देखिये ये माँ नही ,
गंगा है ,
और सोचिये आदमी ,
कितना नंगा है ,
रोज तन मन को ,
गुमराह कराती ,
घुंघरुओं की आवाज ,
में समाती देश की ,
लज्जा की तरह ,
तुम क्यों आदमी पर ,
भरोसा कर आ गयी ,
इन फितरती लोगो ,
से देखो क्या पा गयी ,
कल तक तेरे आँचल,
से अमृत पीते थे ,
मरते दम तक तेरी ,
बून्द से जीते थे ,
पर आज तुम खुद ,
अपने में लाचार हो ,
फिर भी उसकी पहचान ,
और एक प्रचार हो ,
एक बार तू सोच जरा ,
कब तक यहा नारी ,
भावना में लुटती रहेगी,
कहलाएगी माँ गंगा और ,
खुद जीने को तरसती रहेगी .........................हमें अपनी कथनी करनी में अंतर करना होगा तभी जीवन और नारी के हर स्वरुप को पारदर्शी हम बना पाएंगे
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