जिन्दगी मैंने कब क्या कहा तुझसे ,
जो भी मिला क्या तूने पूछा मुझसे ,
बस चलता ही रहा एक नदी की तरह ,
अंत में खारा पानी ही मिला उस से ,
जब चला तो हीरे सी उमंग लेकर था ,
ये किस दौर ने मैला बनाया मुझको ,
अपने दामन से ज्यादा सबका देखा ,
कितने पाप से बचाया मैंने तुझको ,
कोई है जो आज बढ़ कर पकड़ ले ,
अपनी बाहों में बस थोडा जकड ले ,
शायद बहना ही मेरी जिन्दगी रही ,
मेरी मिठास पर भी थोडा अकड ले ,
शायद ये दौर ही है आदमी का यहा,
किस के सामने दुःख ले बैठी मैं यहा,
यहा तो प्यास बुझाने की होड़ लगी है ,
आँचल को मैं खुद मैला कर बैठी यहा ......................क्या नदी क्या जमीं सब के दर्द को हमने अपने जीने का साधन बनाया है .................शायद इनकी गलती यह है कि इन्होने औरत का अक्स लेकर जीना चाहा....................क्या मेरी बात सही नही लग रही है
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