Friday, July 9, 2021
Friday, July 2, 2021
Thursday, July 1, 2021
Tuesday, June 22, 2021
An endeavor for NATIONAL FLAG BY ALL INDIAN RIGHTS ORGANIZATION
#राष्ट्रीय ध्वज # तिरंगा # झंडा
इस देश में तिरंगे को भी राजनैतिक सियासत में रंगने की कोशिश जारी है और इसी लिए जब एक शराब पीकर मरने वाली अभी नेत्री श्री देवी को तिरंगे में लपेटा गया तो अखिल भारतीय अधिकार संगठन को ये हर उस भारतीय का अपमान लगा जो तिरंगे को सलामी देता हा और संगठन ने सरकार से एक शराब पीकर मरने वाली महिला श्री देवी को तिरंगे दिए जाने पर स्पष्टि करण माँगा कई बार तलने के बाद अंततः केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने महाराष्ट्र सरकार को नोटिस भेज कर जवाब माँगा है कि एस अक्यो किया गया ...मेरा हर भारतीय से निवेदन है कि सोशल मीडिया प् र्लादने के बजाये वास्तव में तरंगे के सम्मान के लिए बहस करें क्योकि यही वो प्रतीक है जिसके आधा रप रपने को स्वतंत्र कहते है ..............आप सभी का धन्यवाद ..डॉ आलोक चान्टिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन
कोई नहीं मैं निपट अकेला .............
कोई नहीं मैं निपट अकेला .............
चारदीवारी से करता बातें ................
पत्थर के भगवान सही ................
संग उनके कटती है रातें ..............
सो जाता जब नींद में गहरी ...............
भगवान सभी चिल्लाते है .......................
हमें अकेला निपट छोड़ क्यों .................
मानव खुद सो जाता है .................
सर पटकते , रोते रहते ................
जब मंदिर में मेरे आते है .................
कमरों में लटका फिर हमको ...............
पहरेदारी रात करवाते है ................... जब आप अपने को अकेला कहते है तो सीधे भगवान के अस्तित्व को नकारते है और तब उस भगवान को कितनी पीड़ा होती होगी जो आपके घर में २४ घंटे दिवार पे लटक कर , मंदिर में बैठ कर आपको बचत है ...यानि मानव भागवान का मूल्य तक अनहि समझता और फिर जब भगवान उदासीन होता है तो सिर्फ तांडव होता है ......मौर का सैलाब आता है ........आप मानिये चाहे न मानिये
Saturday, June 19, 2021
ये सच है कि , मैं तेरा दौर नहीं
विश्व योग दिवस पर आप सभी को शुभकामना एक बार किसान के इस योग को भी पहचानिए
किसान के इस योग को पहचानिए
ये सच है कि ,
मैं तेरा दौर नहीं ,
ये झूठ है ,
कि अब और नहीं ,
इस दुनिया में ,
आकर जाना भी है ,
कोई करे कितने जतन ,
पर ये किसी का ठौर नहीं|
ये सच है कि
मैं तेरा दौर नहीं ...
........आलोक चान्टिया
आदमी के बीच में आदमी .............., खुद को अब अकेला पाता है
आदमी के बीच में आदमी ..............,
खुद को अब अकेला पाता है .............
दर्द किसी को भी हो तो ....................
कौन दौड़ कर अब आता है ................
सड़क पर कुत्ता रुक जाता है ............
वह अपने को जब मरा पाता है ...............
बैठता है रोता है रात भर .................
बिना कुछ खाए पिए उदास ...............
कई और आ जाते है पास ..................
क्योकि वो जानते है आदमी ...............
नहीं आज कुत्ता कुचला है यहाँ .................
वरना आदमी मर जाते है ..............
और आदमी के पास वक्त कहा ............
रोज की तरह खाते है पीकर ...................
कहते है जो मरे क्या मिला जीकर ...........
क्या जरूरत थी कही जाने की ..............
जरूरत रही होगी मोक्ष पाने की ...............
बेवजह सुबह से शाम तक बस .....................
मरने मरने की खबर हर कही ................
क्या हम पैदा दुःख मनाने को कही ................
देखो आज मैच आ रहा होगा .................
जिसने जो किया वो भोगा......................
तभी कुत्ते फिर थे रोये कही .................
बाहर देखो कोई कुत्ता मारा होगा .................
अब साले रात भर मातम मनाएंगे .................
औ हम मानव की नींद खा जायेंगे ....................
ये साली सरकार क्या कर रही है ..................
मरने वालो को कितना दे रही है .................
काश कोई अपना उत्तराखंड जाता ...............
मरने वालो के पैसे ही ले आता ................
साले ये सरकारी लोग खा जायेंगे ...............
हम तो बस दर्द ढ़ोते रह जायेंगे ...................
कितनी फुर्सत है लोगो के पास ....................
जाने वालो पर समय बर्बाद करते है ...................
अरे जो आया है वो जायेगा ही .......................
हम क्यों अपनी नींद ख़राब करते है ...................
वैसे भी साले कुत्ते गाना गायेंगे ही ........................
अपने किसी मरने वाले का सिजरा........................
मुहल्ले वाले को सुनायेंगे ही .........
आप लोग मेरी लाइन्स पर बुरा मत मानियेगा पर ये सच है की अगर कोई मानव हमारा सगा सम्बन्धी अहि है तो हमको कोई दर्द होता ही नहीं है मानो सबको गीता का ज्ञान हो चुका
कुछ भी भूल जाने की बीमारी, इस देश की है देखो महामारी,
कुछ भी भूल जाने की बीमारी,
इस देश की है देखो महामारी,
क्या लाये थे क्या ले जायेंगे ,
न संग आये थे न संग जायेंगे
फिर कौन पड़े इन झमेले में ,
मरते तो रोज दुनिया के मेले में,
नेता जनता की बीमारी जब से जाने ,
हर गलत काम किया माने न माने,
बलात्कार ,भर्ष्टाचार ,सूखा,और भूखा,
किसके लिए आवाज नहीं आई ,
पर दूसरे दिन सो कर जब जागे,
बीमारी ने अपनी अलख जगाई ,
हर कोई फिर रोटी को ही भागे,
किसी ने पूछ लिया आन्दोलन,
तो बोले हम है भारत के अभागे ,
अच्छा चलता हूँ सब्जी लेनी है ,
जिसने जो किया सबको यही देनी है
तभी किसी ने की केदारनाथ की बात,
बोले चलो ये मुद्दा कल ही उठाते है ,
आखिर अपने ही देश के लोग मरे है,
सरकार से कुछ तो अच्छा करवाते है ,
तभी एक फ़ोन आ जाता है और ,
वो बीमारी में फिर सब भूल जाता है,
सब दुखो में यही सर्वोत्तम पाता है ,
देश में प्रजातंत्र इसीलिए अभी चल रहा,
तभी एकडाकू नेता बन संसद में आता है
आलोक चांटिया
क्या यह सही नहीं है कि हमें अंग्रेजो ने बाटो और राज करो में उलजह्या पर क्या आज भी हम रोजी रोटी के कारण अपने देश के हर संकट को सिर्फ दो दिन याद रखते है और भूल जाते है
बड़ी शिद्द्त से , मुद्द्त से , चीटी घर से ,
बड़ी शिद्द्त से ,
मुद्द्त से ,
चीटी घर से ,
जिंदगी की तलाश में ,
रोज निकल रही है ,
हाथियों के पावँ,
से कुचल रही है ,
पर हौसला तो देखो ,
चीटी फिर भी
निकल रही है |
अपने दर्द की अंतहीन
कहानी में चीटी ,
ना जल रही है ,
ना पागल हो रही है ,
पर हाथी कुचल कर भी
पागल हो रहा है |
अपना आपा खो रहा है
ये दुनिया में ताकत का
कौन सा नृत्य हो रहा है |
कोई पाकर रो रहा है
कोई खो कर हस रहा है |
भगवन दो बार हस्त है एक जब वो किसी को बर्बाद करना चाहता हो और कोई कहे तुमको कुछ नहीं होगा और एक तब जब भगवन आपके साथ हो और कोई आपको बर्बाद करना चाहता हो | अपने अधिकार और गरिमा के लिए लड़ने वालो ने अक्सर घास की रोटी खायी है | रात जंगल में बितायी है और इसी लिए लोग अब गलत देख कर भी खामोश रहने लगे है |
लिख कर जो मिटाते नही ,
लिख कर जो मिटाते नही ,
सुन कर जो अघाते नही ,
वही बनाते है सुंदर कहानी ,
आओ हम सब दे दे अपनी ,
इस देश को थोड़ी जवानी ....................................देश का स्पंदन महसूस कीजिये ..........................डॉ आलोक चाटिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन
दुनिया में तो हम लेकर जीवन ही आये .........
दुनिया में तो हम लेकर जीवन ही आये ..............
पर क्या हम अपना जीवन ले जा पाए ................
यह जो भी सामने हाथ में आएगा .........
कितनी देर साथ तेरे रह पायेगा .....................
इसी लिए ये दुनिया है ये आलोक ...............
जो होगा वो कल नहीं रह जायेगा ...
मैं चला ना जाने कहा ...इस लिए आज रात हो सकता मैं न लिख पाऊ...
जो भी देखा आँखों से देखा .....
जो भी देखा आँखों से देखा .....
ये किसको सच तुम मान रहे ........
आकाश का रंग काला ही होता ....
पर उसको भी नीला मान रहे ......
आँखों का क्या जब रेत को देखे ...........
पानी का भ्रम पैदा कर देती है ............
तड़प तड़प कर पथिक है मरता .....
रेगिस्तान भेज जब देती है .........
आँख की भाषा पड़कर जब ....
प्रेम किसी को लगता है ......
सूनी आँखों में विरह था वो .....
जो राधा को विकल करता है .....
आज फिर न कर लो आलोक ........
विश्वास इन बेवफा आँखों पर ........
देश नहीं हाहाकार बढ रहा ........
प्रगति विनाश की राखो पर .......
आँखों से नहीं बल्कि सच को खुद जानने की कोशिश करिए ताकि देश को सही हाथो में देकर हम अपने कल को खुद सुनिश्चित कर सके ..........
आलोक चांटिया
जिन राहों पर फूल बिछे हो .....
जिन राहों पर फूल बिछे हो ......
उन राहों का मैं क्या करूँ ..............
काँटों पर चल कर ना पाऊं .........
वो प्रगति का मैं क्या करूँ ........
बूंद बूंद कर खुशियों को मांगू........
वो सागर हो तो मैं क्या करूँ ................
मुट्ठी में गर आलोक बंद हो ........
ऐसे अंधेरो का मैं क्या करूँ ............मुझको मालूम है कि एक अच्छे काम करने के लिए कितने संघर्ष करने पड़ते है दुनिया को किलकारी देने वाली माँ ही जानती है कि उसने एक शरीर को बनाने में कितने दर्द और अपना खून मांस लगाया है .......
काँटों को मैंने देख देख..........,
काँटों को मैंने देख देख..........,
फूल सा जीवन सीख लिया ........
बिना सरसता रेत से मैंने .....
एक घर बनाना सीख लिया .......
तपते जीवन को सूरज सा पा.......
दुनिया को चमकाना सीख लिया .....
क्यों डरते हो कमी से आलोक ........
अँधेरे में जुगुनू बनाना सीख लिया .................आपकी कोई भी कमी आपको एक बेहतरीन जीवन का मर्म दे सकती है अपनी कमी को जान कर काँटों के बीच गुल का जीवन जिन सीखिए .....
आलोक चांटिया
भोर तिमिर की आशा से ही आता है,
भोर तिमिर की आशा से ही आता है,
गर्भ का तम किलकारी हमे सुनाता है,
सूरज ड़ूबता पश्चिम मे पूरब की खातिर ,
तारों को तब ही जीवन जीना आता है ,
जीवन के अंदर धुन मौत की बजती है ,
आंसू में सूरत किसी की ही सजती है ,
जब भी न रहे आलोक जीवन में तेरे ,
मान लेना अंधेरो में जिन्दगी बनती है l
जीवन में आने वाले हर विपरीत परिश्थिति को अगर आप अपनी तरह नहो मोड़ पा रहे है तो आप को अभी और संघर्ष करना है
आलोक चांटिया
रात फिर मुझे अकेला कर रही है ..........
रात फिर मुझे अकेला कर रही है ..........
दुनिया में ही सब से दूर कर रही है .......
सामने होकर भी सबसे दूर हो रहे .....
नींद इस कदर मजबूर कर रही है ........
कितने विश्वास से आँख बंद हो रही ......
कल खुलेंगी इसी लिए सो रही है .......
मिलेंगे कितने खुली आँखों से फिर ....
रिस्क को लेकर खुद से खो रही है .....
जब सपनो का सफ़र अकेले चले हो ........
फिर किसी की इच्छा क्यों हो रही है ........
जब काट देते हो कालिमा इस तरह से ...
उजाले से क्यों फिर घबराहट हो रही है.... जब हम सब रात के अँधेरे को अकेले सोकर काटने का सहस रखते है तो फिर दुइअ के उजाले में आने वाले किसी भी स्थिति को देख कर भाग क्यों पड़ते है .....मुकबला करिए ..हम मनुष्य है
क्यों अपने को अभी मनुष्य कह रहे हो ,
कारगिल मे जो शहीद हुए उनको नमन
................................................
क्यों अपने को अभी मनुष्य कह रहे हो ,
दो रोटी के लिए जानवर से रह रहे हो ,
बेच दी अपनी अस्मिता जीने के लिये
जिंदगी में आज क्यों मौत जी रहे हो ,
कल को लोग न कहे कुत्ते की मौत मरा,
अब क्यों नही आदमी बन कर जी रहे हो ,......
हम सबको उन वीरों के लहू और जान की कीमत समझनी होगी ज़िनके कारण हम ज़िन्दा है अखिल भारतीय अधिकार संगठन का नमन
जीवन को मैंने जीकर पाया है ...
जीवन को मैंने जीकर पाया है .........
कर्म बिना लगता जाया है ..............
कितनो ने क्या समझा इसको ........
गर्भ का दर्द खुद जीने आया है ..................हम सब समझते है कि हम जीवन जी रहे है पर असल में माँ का दर्द ही हमारे जीवन का अक्स बन कर जीता है ...
क्या कहूँ तुमसे मान कर अपना ...
क्या कहूँ तुमसे मान कर अपना ........
भूल जाऊ तुमको नहीं थे सपना ..........
दो पैर से चार बना कर चले थे .......
अकेले हूँ क्या शेष था अभी तपना .......रिश्ते शायद लिखने में ही अधूरे है इस लिए बड़ा मुश्किल है ये जान पाना कि बनाये रिश्ते की उम्र क्या होगी ...............क्या रिश्ता जीना सिर्फ सांसारिक भ्रम है ..
चाँद तेरा भी है , चाँद मेरा भी है ,
चाँद तेरा भी है ,
चाँद मेरा भी है ,
रात तेरी भी है ,
रात मेरी भी है ,
न चाँद मुसलमान है ,
ना रात हिन्दू है ,
मान लो आसमान ही ,
सभी का सहारा है ,
न तुम जीते हो ,
ना कोई कही हारा है
गले मिल कर जीना,
होली कही होती है ,
कही गले मिल कर ,
ईद की रीति होती है ,
आओ चाँद देख कर ,
ख़ुशी का सूरज छू ले ,
कल की सेवइयों में ,
सिर्फ हिंदुस्तानी हो ले ,
कही छूट ना जाये कोई
दौड़ के ईदी तो ले ले ,
फिर से इस देश में संग ,
हिन्दू मुस्लिम खेले ...............
किसी जाति धर्म को नहीं सारे हिन्दुस्तानियों को ईद की मुबारकबाद
जिन्दा मैं नहीं वो है जो मुझे कहेंगे .........
जिन्दा मैं नहीं वो है जो मुझे कहेंगे .........
मरा मैं नहीं वो है जो मुझ पर रोयेंगे .....
मैं तो सिर्फ मुसाफिर हूँ इस दुनिया का .......
वो तो आज यहाँ है कल कही सोयेंगे ......... बेवजह लोग एक दुसरे के लिए पागल हो रहे है .जबकि जो दो लोग एक दुसरे के लिए पागल हो रहे है वो मरेंगे भी साथ नही .....इस लिए किसी भी मुसाफिर को भरपूर आनंद दीजिये
मैं जागा ही कब था जो सो जाऊ .........
मैं जागा ही कब था जो सो जाऊ .........
मैं भागा ही कब था सो रुक जाऊ ......
कितने टेड़े मेढ़े रास्तो से होकर गुजरा .....
मैं धागा ही कब था जो सी जाऊ ..........
आपको अक्सर यह भ्रम हो जाता है कि मैं निर्माता हूँ जब कि ऐसा कुछ नहीं होता बल्कि आप बस उस के अनुसार अपना काम करते है और जिस दिन आप इस बात को समझ लेंगे आपको कभी घमंड नहीं आएगा
साँसे गर्भ के अँधेरे में खिली थी .....
साँसे गर्भ के अँधेरे में खिली थी ......
जिन्दगी से प्रेम करके मिली थी ........
श्मशान में खड़ी जिस्म ताकती.......
बिरह में जो आग में आज जली थी ......
हर कोई कुछ समय तक ही आपका साथ देता है अगर सांसो का भरोसा ना हो तो कोई शरीर गर्भ में आकर ही ना ले पर एक दिन वो भी आपका साथ छोड़ देती है और इस बिरह में अकसर हम खाक हो जाते है
मैं दुखी हूँ या ये नश्वर शरीर ......
मैं दुखी हूँ या ये नश्वर शरीर ......
नश्वर शरीर प्रसन्न है या मैं .....
इसी लिए लिख डाली ये पंक्तियाँ
कोई मेरे आंसुओ से पूछे ,
वो आज खुश क्यों नहीं है ?
अंतस की दीवार ओट पार,
क्यों उनके वश में नहीं है ?
जो मेरे भीतर रहते थे कभी ,
आज मेरे ही भीतर क्यों नहीं है?
किराये सा अब लगता ये मन ,
मन अब खुद का क्यों नहीं है ?
अंधेरो से लड़ना फितरत हमारी ,
आलोक में क्यों आलोक नही है ?????
ये दुनिया है यहाँ सब अपने लिए आये है आप को तनाव दिया जाना मना हो या न हो जिसे अपने मन की कहनी है वो कहेगा क्योकि जीवन और मृत्यु के बाद आंसू गिराने वाले खुद इस अपने को भूल कर दुसरे के साथ जीने लगते है पता नहीं मनुष्यता क्या है और पशुता क्या है ???? जो भी है पर आज मनुष्यता क्यों नहीं है ??????????????
आपका आलोक चान्टिया
कौन कहता है मेरी मौत होती है .
कौन कहता है मेरी मौत होती है .........
बस वो जिन्दगी की सौत होती है .............
एक साथ एक घर में कैसे रहे दोनों ......
नफरत से प्रेम की कब बात होती है .......... कभी ये न सोचिये कि आपके जीवन में ख़ुशी ही रहेगी क्योकि अगर उम्र आपको मिली है तो उसका अंत भी साथ साथ चलता है
पतन मेरा नहीं , वतन का होता है ,
पतन मेरा नहीं ,
वतन का होता है ,
कोई भी काम जब
बिना जतन के होता है |
यूँ तो जी लेता है ,
हर एक कीड़ा मकोड़ा भी ,
मनुष्य कहने वालों ,
तेरा काम चमन का होता है|
क्यों इतरा गए तुम ,
शक्ति पाकर इतनी ,
मनुष्यता का सार बस ,
नमन का होता है |
अगर हम आप एक उद्देश्य के बिना काम करेंगे तो खुद तो अवनति की और जायेंगे ही और हमारा देश खुद उन्नति नहीं कर पायेगा | अखिल भारतीय अधिकार संगठन
ऐसा नही कि तेरे सीने मे दिल नही
ऐसा नही कि तेरे सीने मे दिल नही ,
पर दिल में भी दिमाग है ,
और ऐसा भी नही कि सीने में आग नही ,
पर तेरी आँखों में हया का दाग ,
बढ़ कर कैसे कह दे मै तेरा दोस्त हूँ ,
इस देश में दोस्त ही हमराज है ,
मान भी जाऊ अगर तेरी इन बातो को ,
तन्हाई में साँसों की अपनी कुछ बात है ,
आओ सुना दू तेरे दिमाग को दिल के शब्द ,
सच मानो आज हो जाओगी निः शब्द ,
दोस्त कहने में इतनी देर लगा दी तुमने ,
देखो मेरी चिता में आग खुद लगा दी तुमने .............................क्या आप ही मेरे दोस्त नही है
ऐसा नही कि तेरे सीने मे दिल नही ,
ऐसा नही कि तेरे सीने मे दिल नही ,
पर दिल में भी दिमाग है ,
और ऐसा भी नही कि सीने में आग नही ,
पर तेरी आँखों में हया का दाग ,
बढ़ कर कैसे कह दे मै तेरा दोस्त हूँ ,
इस देश में दोस्त ही हमराज है ,
मान भी जाऊ अगर तेरी इन बातो को ,
तन्हाई में साँसों की अपनी कुछ बात है ,
आओ सुना दू तेरे दिमाग को दिल के शब्द ,
सच मानो आज हो जाओगी निः शब्द ,
दोस्त कहने में इतनी देर लगा दी तुमने ,
देखो मेरी चिता में आग खुद लगा दी तुमने .............................
क्या आप ही मेरे दोस्त नही है..... मित्रता दिवस की आप सभी को शुभकामना आलोक चांटिया
मुस्कराने लगे जिन्दगी को जानकर .......
मुस्कराने लगे जिन्दगी को जानकर ........
खुश हुए साँसों को अपना मान कर .........
क्यों फिर आज इतने ग़मगीन है वो .....
जब आई मौत अपनी छाती तान कर.......
डॉ आलोक चान्टिया ........अगर आपको खुश रहने की आदत है तो दुखी होने की लत भी दाल लेनी चाहिए क्योकि दुनिया में हर चीज़ के दो पहलु है
हमें बटोरने की आदत हो गयी है ......
हमें बटोरने की आदत हो गयी है ........
चींटी जैसी सहादत हो गयी है ..........
मौत से भागते भागते आलोक ........
जिन्दगी कब की खो गयी है ...........डॉ आलोक चान्टिया ..............हो सकता है आपको मेरी बात सही न लगे पर जैसे चींटी बस कल की चिंता में हर समय बटोर करती है और उसको अपने कल या शाम को घर लौटने तक का इल्म नहीं होता .....वैसे ही कुछ मनुष्य हो गया है ........
आओ हम सभी उस पार का सूरज देख ले ,
आओ हम सभी उस पार का सूरज देख ले ,
डूबते हुए को खुद से हारता हुआ देख ले
कितना सदमे में जब बंद दरवाजो से गुजरा ,
रात से लड़ते हुए पूरब का समंदर देख ले ,
यह कोई नई बात नही खुद गरजी का यहा,
अपनों से अपनों को धोखे में डूबा देख ले ...............
आलोक चांटिया
मेरी जिन्दगी जिन्दा थी ही कब ,
मेरी जिन्दगी जिन्दा थी ही कब ,
कौन कहता है मुझसे मिला है अब ,
जमी के नीचे भी सुकूं मिल सकता है
मेरे रब तुझसे शायद कभी मिलूँगा जब
मेरी मौत के बाद जब खाना मिलेगा
मेरी मौत के बाद जब खाना मिलेगा ,
कोई भूखा हो उसका ओठ खिलेगा ,
जिन्दा में मैं खुद ठोकर खाता रहा ,
मरने पर कोई चार कंधे पर चलेगा ,
भगवान के नाम पर नंगे को देखो ,
छाती की हड्डी देख दिल तक हिलेगा ,
भगवान की मर्जी का कैसा ये खेल ,
बंद दरवाजे का राज कब तक खुलेगा ,
किसी तरह जी ले पशु से इतर हम ,
ये अधिकार हमको कब तक मिलेगा |....................हम सब भगवान पर इतना भरोसा करते है कि मनुष्य होकर भी हम पशु की तरह मर जाते है .पर हम कहा यह समझ पाते हैं कि मानव के उन रूपों का भगवान क्यों साथ दे रहा है जो रावन है .क्या आपको अपने अधिकार के लिए नही लड़ना चाहिए ,डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन ,
मै तुमको जो लिख कर दिखाता हूँ ,
मै तुमको जो लिख कर दिखाता हूँ ,
बंद दिल की फोटो दिखाता हूँ ,
मुझको भी शब्दों की वेश्या समझ ,
अपने को क्यों शराबी बना रहे हो ,
मै तो हर रोज मर मर कर जीता हूँ ,
तुम किस मै खाने से आ रहे हो
है कोई बहुत दूर तो कोई बहुत पास .
है कोई बहुत दूर तो कोई बहुत पास .......
जिन्दा हूँ मैं तो किसी को है आस .........
कैसे कह दूँ कि कोई भी अकेला है .......
मौत से करता भला कौन खुद रास ........
डॉ. आलोक चान्टिया
मैं जानता हूँ कि जो लोग आत्महत्या भी इसी लिए करते है क्योकि उनको कुछ न कुछ आरजू रहती है और उसके पूरा न होने पर ही वो चल देते है ....यानि आप भी मानते है कि आप अकेले नहीं है तो जियेये ना उसके साथ चाहे सपनो में चाहे हकीकत में ....
तन्हाई से निकल कभी जब शोर का आंचल पाता हूँ ,
तन्हाई से निकल कभी जब शोर का आंचल पाता हूँ ,
समंदर की लहरों सा विचिलित खुद को ही पाता हूँ ,
निरे शाम में डूबे शून्य को पश्चिम तक ले जाता हूँ ,
भोर की लाली पूरब की खातिर भी मैं ले आता हूँ ,
पर जाने क्यों मन का आंगन सूना सूना नहाता है ,
पंखुडिया से सजे सेज तन मन को कहा सुहाता है ,
तुम नीर भरी दुःख की बदरी मै बदरी ने नाता हूँ ,
तेरे जाने की बात को सुन कफ़न बना मै जाता हूँ ,
एक दिन न जाने क्यों आने का मन फिर करेगा ,
पर क्या जाने भगवन मेरे दिल उसका कब हरेगा ,
मौत यही नाम है उसका आलोक के साथ मिली है ,
जिन्दगी की तन्हाई से अब तो साँसों का तार तरेगा ,................................जितना पशुओ का समूह एक साथ दिखाई देता है और जब कोई हिंसक पशु आक्रमण करता है तो सब अपनी जान बचने में लगे रहते है .वैसे ही आज के दौर में मनुष्य देखने में सबके साथ है पर अपनी जिन्दगी की हिंसक ( भूख , प्यास , महंगाई , बेरोजगारी , आतंकवाद ) स्थिति आने पर वह बिलकुल ही अकेला होता है ...................सच में मनुष्य एक सामजिक जानवर से ऊपर नही .....................
मेरा भी रोने को , मन करता है
जीने के लिए ये भी पैदा हुए है क्या इनके लिए देश नहीं है ???????????????
मेरा भी रोने को ,
मन करता है
मेरा भी सोने को ,
मन करता है ,
पर हर कंधे ,
गीले होते है ,
हर चादर मैले ,
ही होते है ,
मेरा भी जीने का ,
मन करता है ,
मेरा भी पीने को ,
मन करता है ,
पर जिन्दा लाशों ,
का काफिला मिलता है ,
पानी की जगह बस,
खून ही मिलता है |
मुझे क्यों अँधेरा ,
ही मिलता है ,
मुझमे क्यों सपना ,
एक चलता है ,
क्यों नहीं कभी आलोक ,
आँगन में खिलता है ,
क्यों नही एक सच ,
सांसो को मिलता है ...............
जीवन में सभी के लिए एक जैसी स्थिति नही है , इस लिए जीवन को अपने तरह से जियो ( अखल भारतीय अधिकार संगठन )
जो मुझे मैला , करते रहे हर पल ,
जो मुझे मैला ,
करते रहे हर पल ,
वो भी जब डुबकी ,
लगाते है मुझमे ,
मैं उनके दामन,
को ही उजला बनाती हूँ ,
कीचड़ तो मेरी जिंदगी ,
का हिस्सा बन गया ,
उसी को लपेट सब ,
जिंदगी पाते है ,
कभी नदी में रहकर ,
कभी गर्भ में रहकर ,
पर अक्सर ही ,
हम कभी नदी तो ,
कभी औरत के पास ,
खुद के लिए आते है |..................
हम हमेशा सच को स्वीकारने से क्यों भागते है
आंसू .........
आंसू .........
आंसुओ को सिर्फ ,
दर्द हम कैसे कहे ,
कल तक जो अंदर रहे ,
वही आज दुनिया में बहे ,
सूखी सी जिंदगी से निकल ,
किसी सूखी जमी को ,
गीला कर गए ,
मन भारी भी होता रहा,
पर नमी पाकर ,
किसी में नयी कहानी ,
बसने लगी आकर ,
कोपल फूटी ,
किसी को छाया मिली ,
किसी बेज़ार जिंदगी में,
एक ठंडी हवा सी चली ,
दर्द का सबब ही नहीं ,
मेरे आंसू आलोक ,
इस पानी में भी जिंदगी ,
लेती है किसी को रोक .........
आंसू कही दर्द तो किसी के लिए सहानुभूति बन कर आते है और फिर शुरू होती जिंदगी की एक नयी कहानी आलोक चांटिया
जीवन जितने भी अर्थो में रही ,
जीवन जितने भी अर्थो में रही ,
मौत का ही विकल्प था सही ,
साँसे न जाने कहा कहा घूमी ,
पर थक कर ना कही की रही ,
कितने दिनों तक क्या ना कहा ,
पर वो आवाज़ है ही नही कही ,
एक तस्वीर भी जो बसी मन में ,
चिता ने उसको भी छोड़ा नही ,
इतनी नफरत क्यों जिन्दगी से ,
मौत कहूँ तो तू नाराज तो नहीं .....
कितनी शिद्दत से इंतज़ार किया तूने मेरा ,
कितनी शिद्दत से इंतज़ार किया तूने मेरा ,
देख तेरी खातिर जिन्दगी को छोड़ आया ,
बंद आँखों में है भी तो सिर्फ तस्सवुर तेरा ,
मौत हर शख्स को सुकून तुझमे ही आया ,
अब तो खुश हो जा मै किसी को न देखता ,
हर किसी से दूर सिर्फ तेरा गुलाम बना गया ,
कमरे में मेरी जगह रहती अब खाली खाली ,
सच मान मैं शमशान में तेरे ही लिए बस गया ....
मैंने अपनी आंखें क्या बंद कर ली
मैंने अपनी आंखें
क्या बंद कर ली
लोग मुझे फिर से
उस मिट्टी में समाई हुई
असीमित ऊर्जा सर्जन की
शक्ति से मिलाने चल दिए
देखिए तो सही कैसे
अपने चार कंधों पर लिए
मैं मिट्टी में मिल जाऊंगा
फिर भी सच मानो
लौट कर आऊंगा क्योंकि
यह मिट्टी ही मेरे तन को
बनाती है बिगड़ती है
मिलाती है जलाती है
इसीलिए कैसे कहूं तुम
आज मुझे फिर से
वही ले जा रहे हो
जिसके कारण से मिलने के
बाद मेरे इस नश्वर शरीर को
इस दुनिया में पा रहे हो
कितना खुश नसीब हूं मैं
आज मैं फिर उस मिट्टी से
मिल पा रहा हूं
ए दुनिया वालों अब मैं
फिर अपनी सच्ची मोहब्बत के
पास आलोक जा रहा हूं
आलोक चांटिया
न जाने कितनी आँखे रोती रही ,
न जाने कितनी आँखे रोती रही ,
और मौत मेरे संग सोती रही ,
कब पसंद आई मोहब्बत उनको ,
तन्हाई कमरे में अब होती रही ,
कितने बेदर्दी से निकाला घर से ,
सांस न जाने कहाँ खोती रही ,
मेरी प्रेम कहानी का अंत देखो ,
मौत जल कर जिन्दगी ढोती रही ,
मेरी राख को भी नदी में बहा कर ,
मिटटी में कोई बीज फिर बोती रही,
ये क्या आलोक को सिला मिला उनसे ,
मौत को देख उनकी मौत होती रही
न जाने क्यों , जीवन मुझे महसूस नहीं होता |
न जाने क्यों ,
जीवन मुझे महसूस
नहीं होता |
दिन भी होता है
रात भी होती है पर ,
महसूस नही होता|,
एक सन्नाटे सा
फैलता पसरता ,
रोज हर तरह |
एक शोर सा ,
होता अंदर जैसे,
हो कोई विरह |
सांस का होना गर ,
जीवन है आलोक ,
तो चलती क्यों नही| ,
मौत का किलोल ,
सुनती भी नहीं ,
क्यों ढंग से सही |,
मानव तो वो भी ,
जो मारते मानव को ,
हर दिन हर रात |
कहते दानव क्यों ,
नहीं उनको कभी ,
करते सच्ची बात |
क्या कहूँ क्या जीवन मेरा ,..............hindi kavita
क्या कहूँ क्या जीवन मेरा ,
मौत से बेहतर क्या जानूँ,
छोड़ गए जो मुझे अकेला ,
उनको मानव मैं क्यों मानूं ,
जो कहते थे लोग सभी ,
सुख के सब साथी होते है ,
वही खड़े अक्सर बाजार में ,
मेरे सुख के खरीददार होते है ,
कोई फर्क नहीं मुझे अँधेरे का ,
सपने सुन्दर तब ही आते है ,
कोई ताज महल होता तामीर है ,
आलोक से दूर जब जाते है ,
मेरे गरीबी के जलते दीपक ,
तुमको ख़ुशी दीपावली सी देंगे ,
मेरे फटे हाल कपडे के सपने ,
उचे लोग अब फैशन में लेंगे ,
फिर छूट रही है ऊँगली तेरी ,
मुट्ठी में रेत की तरह आज ,
सिलवटें, मसले हुए फूल ,
ना जानेंगे रात का राज ,
अँधेरा तो फिर हुआ बहुत है ,
दायरों में रिश्तो के लेकिन ,
पर एक रिश्ता फिर उभरा ,
मेरी बर्बादी से तेरा मुमकिन ...........
पता नहीं क्या लिखता रहा कभी समझ में आये तो मुझे समजाहिएगा जरूर क्योकि आज आदमी से ज्यादा बर्बादी का खेल कोई नहीं खेल रहा एक पागल कुत्ता भी नहीं एक जहरीला सांप भी नहीं .......
जाने के आसरे बैठे क्यों हो ,
जाने के आसरे बैठे क्यों हो ,
क्यों आये हो ये भी सोचो ,
क्या दिया है इस दुनिया को ,
कभी तनहई में ये भी सोचो ,
जिसको करके तुम खुश हुए ,
ये सब तो है कौन न करता ,
मानव होकर दिया क्या तुमने,
मुट्ठी में है रेत तो सोचो ,
अगर नहीं कोई फर्क चौपाये से ,
दो हाथ मिले क्यों ये तो सोचो ,
जी लो एक बार उसके खातिर ,
भगवन को एक बार तो सोचो ,
कितना दीन हीन हुआ वो है ,
उसकी बेबसी को भी तो सोचो ,
क्या कहे अब सब मिटा कर ,
मानव कैसे ले अवतार वो सोचो .........
ऊपर वाला क्या खुश है मानव को बना कर
बादल फटने पर कुछ लोग ही मरते है ,
बादल फटने पर कुछ लोग ही मरते है ,
पर आज तो दिल ही फट गया है मेरा ,
क्या कोई है जो गिन कर बता दे आलोक ,
कितने मरे जो कल तक जिया करते थे ,
आँखों में पानी जरुरी कितना जनता हूँ ,
पर पानी बहा कर ही हस लिया करते है ,
कह कर निकल गए सब आबरू मेरी लूटी,
इज्जत वाले ही दाग समेट लिया करते है,
क्यों साथ दे तुम्हरा जिन्दगी मेरी अपनी है ,
बस रास्ता काट लेने को बात किया करते है ,
जब न पैदा न मरेंगे कभी भी साथ साथ कोई ,
चीटी के एहसास में तुमको मसल दिया करते है ..
आज लोग यह कहते मिल गए
आज लोग यह कहते मिल गए ,
क्यों मेरे जीवन के तार हिल गए ,
कल तक हमको एहसास था अपना ,
आज क्यों अंतस से विकल गए ,
आप अपने तो कब दिखयेंगे यूँ ही ,
हम तो पानी थे बस मचल गए ,
आपकी जिन्दगी खाक हो रही तो ,
हम मजा लेकर फिर सम्भल गए ...................................आज लगा सब झूठ है ....खास तौर पर रिश्ता सिर्फ रिस रहा है चारो तरफ ...
रोटी की तलाश में एक लाश मिली
रोटी की तलाश में एक लाश मिली .......चार कंधो पर आज वो कहाँ चली ............गाय , कुत्ते की रोटी बनती हर घर में .............आदमी को आदमियत क्यों नहीं कही मिली ...................
मंदिर मस्जिद जाने के बजाये किसी के ये कहने पर कि भूखा है उसको रोटी जरुरर दीजिये बेवजह दान मत दीजिये .......मैंने खुद महसूस किया है कि जब आप खुद अपनी भूख की बात करते है तो ९५ प्रतिशत लोग आपका साथ छोड़ना ज्यादा पसंद करते है ...................पर आज रोटी के लिए एक व्यक्ति दुनिया से गया तो मेरी तबियत हिल गयी ....मनुष्य बनिये और उसका प्रदर्शन भी कीजिये
जब मेरी जिंदगी थमी
जब मेरी जिंदगी थमी ,
सोचा छोड़ दू अब जमीं ,
न पूछो कितनी भीड़ जमी ,
शायद आज संस्कृति की ,
यही कहानी शेष बची थी,
क्या इसी खातिर भगवन ,
ने मानव और मानव ने ,
संस्कृति की बिसात रची थी ............
क्या आप औरत का मतलब जानते है ???
मैंने जब एक दिन पूछा तो उत्तर आया ये लो भला हम क्यों नहीं जानेंगे औरत को ?? क्या हमने अपने को कभी देखा नहीं है और भैया हमाम में तो सभी नंगे है | मैं उनकी बातें सुन कर दंग था मैंने फिर कहा क्या औरत का मतलब सिर्फ शरीर तक ही है तो कहने लगे क्या यार फर्जी बात करते हो क्या तुमको लगता है की औरत कोई योग तपस्या करके आगे बढ़ती है वो तो ?? और उन्होंने एक साथ कई नाम गिना डाले कि कौन कैसे बढ़ा ? मैं आश्चर्य चकित था मैं आज के विक्रमादित्य ( अब इनका असली नाम और काम न पूछ लीजियेगा वरना मेरी तो ) से कहा हुजूर न्याय कीजिये सभा में वो सभी बैठे थे जिन्होंने एक भोले से किसान को अंगुलिमाल डाकू बनाने में पूरी ताकत लगा दी थी पर विक्रमादित्य तो आज कलयुग में थे उन्होंने कहा कि किसी महिला ने तो शिकायत की नहीं है फिर मैं कैसे न्याय कर सकता हूँ ? मैं अवाक् था मैंने कहा इसके मतलब आपके राज्य में दो पुरुष किसी भी सभ्य महिला को कुछ भी कह सकते है पर आप तब तक कुछ नहीं करेंगे जब तक महिला ना कहे !! अब तो जान गए होंगे कि विकर्मादित्य का चिंतन महिला के लिए क्या है ? मैं क्षुब्ध हो गया मैंने महिला से जाकर कहा कि कब तक शोषण का शिकार होती रहोगी अपने अधिकार के लिए लड़ो दुनिया को बताओ कि तुम्हरे साथ क्या किया गया मेरी साडी बात सुन कर बोली क्या फायदा सच कह कर मुझे बचपन से ममरने तक मार ही खाना है तो आज ही उसका प्रतिकार क्यों करूँ आप जो चाहते है करिये मैं आप का साथ नहीं दे सकती !!!! अब बरी मेरी थी आप लोग मेरी हसि उदा सकते है , मुझ पर थूक भी सकते है | खली समय में मेरे ऊपर चुटकुले बना सकते है | अपने समय को मुझे गप्प का हिस्सा बना कर मनोरंजन कर सकते है क्योकि सब यही पूछ रहे है क्या मैं औरत को जानता हूँ ???( एक सच जो मेरी जीवन का सबसे बड़ा व्यंग्य बन गया )
दर्द कुरेद कुरेद कर मेरा
दर्द कुरेद कुरेद कर मेरा ,
बीज कौन सा बो तुम रहे हो ,
बहते आंसू को नीर समझ ,
पाप कौन सा धो तुम रहे हो ,
पथराई आँखों में झाँको तुम ,
हीरा कोईअब खो तुम रहे हो ,
मै क्यों तम से भागूं अब तो ,
अंतस में दिल जी तो रहे हो ,
आलोक जो खोया तो क्या ,
सपनो का यौवन जी तो रहे हो
अब मन न दुनिया में रहता ,
जी जी कर तुम मर तो रहे हो ,
किसे सुनाऊ सौ बाते दर्द की ,
सब में खुद को ही देख रहे हो ,
आज मिले वो बनाने वाला जो ,
पूछूं खेल कौन सा खेल रहे हो ,
मै भी तो था कुछ पल धरा का ,
धर धर के क्यों कुचल रहे हो ,
तोड़ के मेरे हर एक सपने को ,
दिल को दर्पण सा छोड़ रहे हो ,
बटोर नही पाउँगा अब ये सब ,
हर टुकड़े क्यों फिर जोड़ रहे हो ,.................................किसी के साथ रहना और उसका साथ छोड़ देना सबसे आसन काम है ........पर आज मुझे वह हिरन का झुण्ड याद आ रहा है जिनको दूर से देखने पर एक बड़ा समूह सा लगता है ..पर एक शेर( दुःख या समस्या ) के आने पर हिरन के अकेले होने की कलई खुल जाती है , बहुत से लोग कहेंगे की आप तो लिख कर बता लेते है पर वो क्या करे जो सिर्फ घुट घुट कर जी रहे है ........................
Friday, June 18, 2021
वो हमें जिन्दगी जीना सीखा रहे थे
वो हमें जिन्दगी जीना सीखा रहे थे ,
हवाओ का रुख मुझे ही बता रहे थे
जिसने खेई नाव समुन्द्र के मझधार में ,
उसको ठहरे हुए पानी से डरा रहे थे ,
............................ इन लाइन को पंकज जी के जानिब से प्रस्तुत कर रहा हूँ
जिन्दगी में जितने मिले
जिन्दगी में जितने मिले ,
सभी वफ़ा करके ही गए ,
मैं हर पल साथ रहा सबके ,
और बेवफा सा होता गया ,
जिन्दगी को कभी कहो तो ,
क्या उसने वफ़ा की है कभी ,
मौत ही दामन के साथ रही ,
लोग उससे ही दूर रह गए ..............
क्यों इतना मन अशांत , शांत सागर सा तो नही है ,
क्यों इतना मन अशांत ,
शांत सागर सा तो नही है ,
क्यों थक रहे है पैर आज ,
कल सांसो का अंत तो नही है ,
चले साथ उमंग को लेकर ,
देकर उम्र कही ये भंग तो नही है ,
क्या लाये थे तो लेकर जाये ,
आये यहा जो कोई जुर्म तो नही है,
मिल कर नही चले तो क्या ,
अकेले थे आये ये जंग तो नही है ,
आलोक की चाहत अंधेरो में ,
अंधेरो में रहना कोई ढंग तो नही है ,
मैं जो छोडू निशान को अपने ,
अपनों में रहना कोई रंग तो नही है ,
अक्सर तुम आते यादो में मेरी ,
मेरी यादो में रहना कोई संग तो नही है ,
अक्सर मुझे कोई सोता मिला है ,
सपनो में आना कोई प्रसंग तो नही है ....................................कुछ अमूर्त लिखने की चाहत में आज अचानक अपनी तबियत के ख़राब होने पर मैंने यह लाइन लिखी ...................पता नही मुझे अक्सर यही लगता है की एक जानवर अपने पराये लोगो घर सबकी पहचान कर लेता है पर हम मनुष्य होकर भी क्यों ऐसे नही हो पाए एक देश तक के होकर नही हो पाते ??????????? क्या आप देश के लिए सोच पाए .........अखिल भारतीय अधिकार संगठन
जीवन की अविरल धारा में,
जीवन की अविरल धारा में,
बह कर कुछ निर्माण करो ,
यह धरा चाहती गंगा सी ,
निर्मलता का उत्थान करो ,
कल क्या लाये मैं क्यों देखूं ,
आज भोर को सलाम करो ,
यह जीवन है हीरे के माफिक ,
तन को माटी का कह डालो ,
अपने कर्मो की आंधी को लेकर ,
भाग्य आज फिर बदल डालो
..........जीवन बार बार नही मिलता आज अगर भगवन आपको मौका दे रहा हैं कि जन्म को जीवन में बदल लो तो प्रयास करो और नए भोर हाथो में ले उसका ही आगाज़ करो .....................आपको जन्मदिन मुबारक
किस को सुनाऊ दर्द ,
किस को सुनाऊ दर्द ,
सर्द है चेहरा मेरा ,
किसको कहूँ खुदगर्ज,
गर्ज पर नही सवेरा ,
मिलता नही जो चाहो ,
न चाहा साथ हो तेरा ,
मगर रास्ते कटते नही ,
नही शमशान में डेरा ,
आलोक न हो जहाँ ,
क्यों न हो वहां अँधेरा ,
जिन्दगी जब तुझको चाहा ,
मौत का पसरा बसेरा.............
न जाने क्यों , मन नही लग रहा है ,
# किसके लिए
न जाने क्यों ,
मन नही लग रहा है ,
लगता है आज फिर ,
कोई अंदर जग रहा है ,
बोलता नही मगर ,
जाने क्या चल रहा है ,
ये कैसी है अकुलाहट ,
जो वो मचल रहा है ,
रात का अँधेरा ,
क्यों नही कट रहा है ,
भोर का उजाला ,
क्यों पीछे हट रहा है ,
आलोक क्यों नही है ,
ये कौन भटक रहा है ,
वो कौन जो गया है ,
कल तक निकट रहा है ,
आकर भी न जान पाए ,
किससे जीवन लिपट रहा है ,
साँसों को बेच तू भी ,
मौत को ही झपट रहा है ,
पाया भी क्या है खोकर ,
हर झूठ बदल रहा है ,
जलती चिता में देखो ,
तू मिटटी सा निकल रहा है ,
जिन्दगी को जो कभी भी ,
ना अपनी समझ रहा है ,
नाम रहा है उसकी का ,
जो किसी के लिए मर रहा है ...........................अगर हम जानवर से ऊपर उठाना चाहते है तो आदमी को किसी के लिए जीना आना चाहिए ....................वरना हम को मनुष्य कौन और किसके लिए कहा जायेगा .............. डॉ आलोक चान्टिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन
दुर्गा कह कर मजाक उड़ा रहे है ,
# MEE TOO
दुर्गा कह कर मजाक उड़ा रहे है ,
पूरे देश में हम औरत जला रहे है ,
कितने ही नव दुर्गा कहते तुमको ,
बलात्कारी फिर कौन होते जा रहे है ,
कन्या तो देवी का रूप कही जाती है ,
माँ की कोख में ही क्यों मारे जा रहे है ,
कितना झूठ जीने की हसरत तुममे ,
रोज घुंघरू ही क्यों बजते जा रहे है ,
कितने ही कह जायेंगे आलोक बरबस ,
तुम क्यों महिसासुर बनते जा रहे हो ,
रह तो जाने दो कम से कम नव दुर्गा ,
नव महीने उसके ही छीने जा रहे हो ,
कल जब काली न दुर्गा मिलेंगी तुम्हे ,
फिर ये व्रत किसका रखे जा रहे हो ,
कभी तो शर्म करो अपनें दोमुह पर ,
किसका आंचल फाड़े जा रहे हो ,
आज माँ का दिन सच कह लो उससे ,
कल फिर ये शब्द भूले जा रहे हो ,
जय माता दी अपने दिल में बसा लो ,
क्या उसको हसी फिर दिए जा रहे हो .......................अगर इस देश में नारी के लिए इतना बड़ा व्रत रखने के बाद भी औरत की संख्या कम हो रही है या फिर उसके साथ बलात्कार हो रहा है तो ऐसे नवरात्री को हम क्या करने के लिए मना रहे है डॉ आलोक चान्टिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन
आप जाने किस मौत की तलाश में है ....
आप जाने किस मौत की तलाश में है ....
देखिये यहाँ हर एक लाश लिबास में है...
इन्ही में किसी को जिन्दा समझ लीजिये ...
मुर्दों की महफ़िल आज फिर एहसास में है .....
डॉ आलोक चन्टिया ,
अखिल भारतीय अधिकार संगठन
इतना जी चुका जिन्दगी तुझको , चलो कही से मौत खरीद लाये ,
इतना जी चुका जिन्दगी तुझको ,
चलो कही से मौत खरीद लाये ,
रोज रोज साँसों के दौर से ऊबा ,
कुछ देर तो सुकून के कही पाए ,
याद है कल जब मैं भूखा था यहाँ ,
सब मौत की तरह खामोश थे वहा,
मैं दौड़ा हर तरफ पानी के लिए ,
पर सारे कुओं का पानी था कहा
जो हो रहा भगवान ही तो कर रहा ,
फिर दुःख में इन्सान क्यों मर रहा ,
क्यों भागते सब कुछ पाने के लिए ,
संतोष से क्यों नही अब कोई तर रहा ,
मेरे घर में अँधेरा गर्भ की तरह ही है ,
क्या सृजन का प्रयास इस तरह ही है ,
भगवान के घर देर है पर अंधेर तो नही,
पर गरीब बना कर ये न्याय तो नही है ,
अब थक गया आलोक चिराग जला कर ,
शांति शायद मिलेगी मिटटी में मिला कर ,
आओ रुख कर ले अपने जीवन के सच में ,
लोग लौट पड़े आग चिता में मेरी लगा कर ................................आदमी की आदमी के लिए बेरुखी और अपने लिए ही जीने की आरजू ने जानवरों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि अब वो मानव किसको माने.....
लोग मुर्दे पर पैसे चढ़ा गए
लोग मुर्दे पर पैसे चढ़ा गए ,
कितना चाहते बता गए ,
दिल में दया भी है उनके ,
भिखारी को आज बता गए ,
भूख से बिलखते बच्चे को ,
जनसँख्या का दर्द बता गए ,
एक पल भी नही था पास में ,
बस पैसे से ही रिश्ता बता गए ,
खर्च तो करता हूँ सब कुछ ,
कितने खोखले है बता गए ,
एक अदद रोटी क्यों बनाये ,
लंगर में जाने को बता गए ,
आलोक को खरीदने का हौसला ,
असमान को जाने क्यों बता गए ,
मुट्ठी में बंद कौन कर पाया है ,
आलोक को बिकना बता गए ,
कितनी सिद्दत से सजाई दुनिया ,
दुकान का मतलब वो बता गए ,
रीता रीता सा रहा दिल आज फिर ,
खून बिकता है वो भी बता गए ,
आंसू भी बिकता है अब यहा पर,
सच को मेरे वो नाटक बता गए ,
इतनी लम्बी जिन्दगी में कौन अपना ,
बिकती साँसों का राज बता गए ,
कोई खरीद कर जला दो मुझको ,
शमशान में लकड़ी मुझे दिखा गए ,
जाना है उनको भी यहा से एक दिन ,
मुझको कफ़न खरीदना सीखा गए ...........................पता नही इस दुनिया में हम मनुष्य बन कर किस मनुष्य को ढूंढते है ..........................पर अब तो सब कुछ पैसा से तौला जा रहा है .................क्या हमें रुकना नही चाहिए
सभी को मेरे जनाज़े में जाने की जल्दी दिखी
सभी को मेरे जनाज़े में जाने की जल्दी दिखी ,
उनको अपने घर से कुछ ज्यादा दूरी दिखी ,
मैं मातम में खुद डूबा रहा अपनी मैयत देख ,
नुक्कड़ पर चाय में डूबी मेरी कुछ बाते दिखी ,
कल मैं भूख से बेदम अपनी जान से गया था ,
आज मेरी पसंद नापसंद की होती बाते दिखी ,
कोई क्या जाने अब भी मैं धड़क रहा दिल में ,
उनके दिल से मेरी आवाज़ आज आती दिखी ,
लोग नहाकर थे लौटे मुझे छोड़कर अब वहा,
उसकी आँखों में मेरी यादे नहाते फिर दिखी ,
तडपा मैं कितना उसकी यादो में हर पल हूँ ,
रोज चादर पे सिलवटे उसके पड़ती दिखी ,
सूनी सी डगर सी अब मांग उसकी है रहती .
लाली सिंदूर की आज उसकी आँखों में दिखी ,
माफ़ कर दो जिन्दगी आलोक की बेवफाई ,
मौत से इश्क करती शमशान में साँसे दिखी ................................आइये हम सब एक बार ये जान ले की जिसको जिन्दगी कह कर हम इतना इतर रहे हैं .वो हकीकत में मौत ही है ................पर उसके आने से पहले का नाम जिन्दगी है ........तो क्या आप जिन्दगी जी पाए या फिर सिर्फ खाने , सोने को ही जिन्दगी समझ बैठे है ....किसी के लिए जी कर देखिये जानवर से थोडा अलग पहचान बनाइए ..शुभ रात्रि आलोक चांटिया
लोग बाज़ार से
लोग बाज़ार से
घर को सजाने ,
लगे है ,
लोग घर को
बाज़ार बनाने
लगे है ..................................दीपावली की शुभकामना आपका आलोक
उस कुत्ते को मैं , क्या कहूँ जो
उस कुत्ते को मैं ,
क्या कहूँ जो ,
कुत्ता होकर भी ,
आदमी सा रहता रहा ,
और वो आदमी ,
जो न जाने क्यों ,
अपनी हरकतों में ,
अपने सा भी न रहा ,........
आलोक चांटिया
अखिल भारतीय अधिकार संगठन
जानता हूँ मौत मेरे , इर्द गिर्द ही है घूम रही
जानता हूँ मौत मेरे ,
इर्द गिर्द ही है घूम रही ,
चल जिंदगी तुझे कोई ,
फिर मिल जाये सही ,
रास्ते होते नही खुद ,
बनाये जाते यहाँ ,
खीच ले एक बार फिर ,
आज फिर जाता कहाँ,
श्वानों के शोर से ,
गज कभी डरता नहीं ,
गीदड़ों के बीच में ,
वीर कभी मरता नहीं ,
सीपियों के बीच में ही ,
मोती की पहचान है ,
स्वाति की ओज से ,
नहीं कोई अनजान है ,
मुस्कराता गुलाब देखो,
काँटों के है बीच रह कर ,
जी कर एक बार देखो ,
झूठो के बीच रह कर ,
कर्ण हरिश्चंद्र सब यही ,
सच के खातिर जी गए ,
जो जिया न्याय को ,
नाम उसी के रह गए ...................राम , कर्ण , हरीश चन्द्र राणा प्रताप कुछ ऐसे नाम है जिनके जीवन में हमेशा सुख बना रहता अगर वो अपने जीवन को उस तरह से चलते जैसा झूठे फरेबी , मक्कार , असत्य पर चलने वाले चाहते थे पर ऐसा ना करके ही उन्होंने समाज और उसका अर्थ हमारे सामने रखा , शिक्षकों से अपील है कि वेतन भोगी से ज्यादा एक ऐसी रास्ते का निर्माण करें जिससे आने वाली पीढ़ी एक और उन्नत समाज को बनाने में योगदान कर सके
जिन्दगी कितनी सी है , जिन्दगी इतनी सी हैं ,
जिन्दगी कितनी सी है ,
जिन्दगी इतनी सी हैं ,
जिन्दगी जितनी सी है ,
जिन्दगी मिटनी सी है ,
तो क्यों न मुस्करा ले ,
तुमको भी साथ हसा ले ,
कुछ तुमको भी मिलेगा ,
कुछ हमको भी मिलेगा ,
जिन्दगी चलनी सी है ,
जिन्दगी हसनी सी है ,
जिन्दगी कसनी सी है ,
जिन्दगी फसनी सी है ,
तो क्यों न इसे समझ ले ,
थोड़ी देर साथ मचल ले ,
कल किसने देखा है यहा,
आओ कुछ साथ चल ले ,
जिन्दगी आलोक सी है ,
जिन्दगी परलोक सी है ,
जिन्दगी श्लोक सी है ,
जिन्दगी मृत्यु लोक सी है ,
तो क्यों न कुछ कर ले ,
एक बार हस कर बसर ले ,
ये सच अब तो मान भी लो ,
थोडा धूप से हम पसर ले ...........................कब हम समझेंगे अपने जीवन को आज मुझे एक ऐसी बेटी से मुलाकात हुई जिसके पिता नही थे पर न जाने उसने मुझे क्यों पिता कहा और मुझे अच्छा लगा ...........क्या बेटी का सुख आपको मिला है .....डॉ आलोक चान्टिया
अँधेरे में छूटे या , छूटते चले गए ,
अँधेरे में छूटे या ,
छूटते चले गए ,
वो लोग कौन थे ,
और कहा निकल गए ,
दर्द देकर पा लिया ,
जन्म फिर यहाँ ,
माँ बन गयी मगर ,
तुम गए फिर कहाँ,
सींचा तुमको खून से ,
अपना अंश मान कर ,
छोड़ कर तुम गए कहाँ ,
दर्द मेरा सब जान कर ,
कहते नहीं क्यों सुख ,
ढूंढने आये थे यहाँ ,
दर्द सिर्फ आलोक का,
तिमिर चाहता कौन कहाँ ,
......................क्या मैं सच के रास्ते छोड़ कर उन्ही पर बढूँ जिस पर चल कर लोग आज प्रगति को परिभाषित कर रहे है ??????????????? डॉ आलोक चान्टिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन
[23:10, 10/30/2020] Alok Chantia: हर तर
हर तरफ कुछ पाने के निशान दिखे
हर तरफ कुछ पाने के निशान दिखे
मुझे भी कुछ खोने के निशान दिखे
....................आलोक चान्टिया@
मेरे दर्द को क्यों उकेरा तुमने ,
मेरे दर्द को क्यों उकेरा तुमने ,
क्यों अपने को दिखाया तुमने ,
कोई ख़ुशी मिली दरिया से तुम्हे ,
क्यों आँखों से आंसू बहाया तुमने ,
जमीं को दर्द देते देते आज क्यों ,
मुझे ही अपनी बातो से खोद गए ,
क्या कोई गुलाब खिलेगा कभी ,
कौन कलम आज बो गए मुझमे ,
एक बीज सा जीवन था मेरा ,
जो गिर कर भी कोपल देता है ,
क्यों पैरो से कुचल डाला तुमने ,
बस कुछ मिटटी ही तो लेता है ,
आज जान मिला जान का अर्थ ,
जब तुमने किया मुझसे अनर्थ ,
कोई बात नही स्याह में आलोक ,
अपने को उजाला बनाया तुमने ,
कह भी तो नही सकते धरती हूँ ,
हर सृजन को मैं भी करती हूँ ,
क्योकि मैं दुनिया में रहती हूँ ,
ये कैसा मुझको बनाया तुमने ,
माँ होकर भी आज कुचल गई है ,
मेरी ममता कही चली गयी है ,
किसी ने बताया है नाले के किनारे ,
माली ऐसा बीज क्यों लगाया तुमने ,
बंजर कहलाती मगर अपनी होती ,
जीती मगर अपने सपने में होती ,
अब तो जिन्दा लाश हूँ पानी में ,
मुझे साँसों बिन क्यों बनाया तुमने .........................आज न जाने कितने युवा सिर्फ इस लिए लडकियों का शोषण करते है क्योकि यह एक प्रतिस्पर्ध्त्मक खेल हो गया है .....पर वो लड़की भी इस ख़ुशी में कि कोई तो उसको पसंद करता है .....अपना सब कुछ समप्र्पित करती है ...पर परिणाम गर्भपात के बढ़ते बाज़ार और लड़कियों में बढती कुंठा जिसमे उनको विकास होने के बजये एक दर का जन्म ज्यादा हो रहा है ...........................शयद आपको यह सिर्फ एक फर्जी बात लगे पर पाने को अंदर टटोल कर इसको पढ़िए
जिन्दगी मैंने कब क्या कहा तुझसे
जिन्दगी मैंने कब क्या कहा तुझसे ,
जो भी मिला क्या तूने पूछा मुझसे ,
बस चलता ही रहा एक नदी की तरह ,
अंत में खारा पानी ही मिला उस से ,
जब चला तो हीरे सी उमंग लेकर था ,
ये किस दौर ने मैला बनाया मुझको ,
अपने दामन से ज्यादा सबका देखा ,
कितने पाप से बचाया मैंने तुझको ,
कोई है जो आज बढ़ कर पकड़ ले ,
अपनी बाहों में बस थोडा जकड ले ,
शायद बहना ही मेरी जिन्दगी रही ,
मेरी मिठास पर भी थोडा अकड ले ,
शायद ये दौर ही है आदमी का यहा,
किस के सामने दुःख ले बैठी मैं यहा,
यहा तो प्यास बुझाने की होड़ लगी है ,
आँचल को मैं खुद मैला कर बैठी यहा ......................क्या नदी क्या जमीं सब के दर्द को हमने अपने जीने का साधन बनाया है .................शायद इनकी गलती यह है कि इन्होने औरत का अक्स लेकर जीना चाहा....................क्या मेरी बात सही नही लग रही है
मेरा घर उनके घर से दूर लगने लगा है
मेरा घर उनके घर से दूर लगने लगा है
एक रिश्ता अंधेरों में फिर से सिमटने लगा है
आलोक चांटिया
आज फिर चाँद में सुरूर है ,
आज फिर चाँद में सुरूर है ,
लगता है कोई बात जरुर है ,
मांग के सिंदूर में चमकती ,
उन की जिन्दगी का गुरुर है ,
आज भी भूखी प्यासी रही ,
पर कल से कुछ मगरूर है ,
पर आज तो प्रियतम की है ,
जिन्दगी जो उसका नूर है ,
करवा का कारवां चला है ,
एक दिल में दो ही पला है ,
उनकी निशानी ऊँगली में है ,
परदेश में जाना उनका खला है ,
पर क्या हुआ उनका अक्स है ,
दिल के दरवाजो में एक नक्स है ,
चाँद को देख फिर निहारा उनको ,
पति से प्यारा क्या कोई शख्स है ,
आसमान के आगोश में चाँद आज है ,
तेरी पलकों में कोई फिर मेरा राज है ,
रात न गुजरेगी आज तनहा तनहा
शहनाई की वो रात आज पास पास है ...........जिस देश में इतने खुबसूरत एहसास हो पति पत्नी के लिए , अगर वह से किसी भी विवाहित महिला की सिसकी सुनाई दे तो क्या उसे चाँद में डूबी रात की ओस की तरह अनदेखा करके बस अपने में जीते रहे है या फिर महिला की करवा यात्रा के भाव को समझ कर उसे पुरे जीवन हँसाने का यत्न करे ........................आप सभी को करवा चौथ के असली अर्थ की बधाई ...
जिन्दगी सभी को मिलती है नुक्कड़ पर
जिन्दगी सभी को मिलती है नुक्कड़ पर
जिन्दगी पहुच जाती है खुद नुक्कड़ पर ,
कितना भी जतन कर लो नसमझपाओगे
मौत भी खड़ी मिलती है हर नुक्कड़ पर ,
जीवन में दिल की आहट आतीनुक्कड़पर
जब वो सामने से गुजर जाती नुक्कड़पर
कितना ही वक्त गुजर जाता नुक्कड़ पर
शायद वो मुड़ कर देख ले नुक्कड़ पर ,
पता नही क्यों सन्नाटा सा है नुक्कड़पर
कुछ गम सुम सा लगता है अब नुक्कड़पर ,
लोगो ने बताया वो मासूम अब न आयगी ,
कल कोई उठा ले गया उसे नुक्कड़ पर ,
रोज ढूंढ़ता उसके निशान नुक्कड़ पर ,
उसकी हसी दौड़ती मिली नुक्कड़ पर ,
एक प्रश्न सा तैरता हवाओ में आज भी ,
क्यों लड़की मौत ही जीती है नुक्कड़ पर
मैं क्या बताऊ उलझन इस नुक्कड़ पर ,
बस एक अक्स रह गया इस नुक्कड़ पर
वो भी थी रोई बहुत इसी नुक्कड़ पर ,
परायी हुई थी मुझसे इसी नुक्कड़ पर ,
कहा छोड़ पाया था उसे नुक्कड़ पर ,
मौत के संग हो लिया था नुक्कड़ पर ,
प्रेम तो दिखाया जिन्दगी से नुक्कड़ पर
फिर दुनिया से मुंह मोड़ लियानुक्कड़पर
क्या तुम जानते हो उस पार नुक्कड़ के ,
क्यों एक शून्य सा रह जाता नुक्कड़ पर
लोग कहते है भगवान वहा नुक्कड़ पर,
फिर रोने की आवाज क्यों नुक्कड़ पर ............................जिन्दगी में हम सब नुक्कड़ के पर न देख पाए है और न देख पाएंगे ........इसी लिए नुक्कड़ पर मौत , लड़की से छेड़ छाड़ , बलात्कार , अपहरण और फिर एक सन्नाटा नुक्कड़ पर मिलता है .........क्या आप ने नुक्कड़ को ध्यान से देखा है
किसी को जिन्दगी मिल जाती है कौड़ियो के मोल
किसी को जिन्दगी मिल जाती है कौड़ियो के मोल ,
अक्सर वो मेरी उसकी बेबसी का करते दिखते तोल,
नही जानते है कि पानी तो फैला पड़ा हर कही यहा,
मीठे पानी के सोते मिलते है जमीं को लेते जो खोल ,
गीली मिटटी में तो हर कोई उगा लेता है रोटी अपनी ,
रेत पर दिखाओ घर बसा कर और फिर कुछ मीठे बोल ,
आसमान से पानी की आरजू कौन करती है नही आँखे ,
अपने पसीने से दाना उगा कर सच की खोल दो पोल ..............क्या आपको भी जवान ऐसे ही मिल गया है कि आपको लगता है कि जो गरीब है या जिनके पास कुछ नही है वो उनके पूर्व जन्मो का पाप है या फिर आप बचना चाहते है उस जानवर की तरह जो अपने सिवा किसी के लिए नही करता ..................आदमी कहा है .....
हरी हरी घास पर जिन्दगी इंतज़ार में
हरी हरी घास पर जिन्दगी इंतज़ार में ,
सुबह से ही न जाने किस इकरार में ,
सरपट दौड़ती मेरी सांसो का चलना ,
उसकी आंखे न जाने किस तकरार में ,
शायद मौत से मेरी अब तक उबरी नही ,
छूकर देखती मेरी परछाई कही तो नही ,
राख में कोई भी गर्मी अगर ढूंढ़ लेती ,
कुछ देर मर कर मेरे साथ चली तो नही ,
न जाने क्यों घूमती मेरे इर्द गिर्द आज ,
क्या अब तक जी रही मेरा कोई राज ,
उसकी धड़कने क्यों बज रही बन साज,
आलोक सा अँधेरा मिला मिटा के लाज ,
ऋतु की तरह बदल लो तुम भी खुद को ,
आज गर्म हवा हो कल बनाओ सर्द खुद को ,
लोग मिल जायेंगे काटने को समय अपना ,
मौत में सिमटी जिंदगी समझ लो खुद को ........................जो हो रहा हैं उस पर दुःख किस लिए ....जो हो रहा हैं वो गर होना ही था तो उसको समय का सत्य मान कर बस जीते जाओ .और आज जिस ऋतु से आनंद लिया हैं .कल्किसी और के हो जाओ ......................प्रकृति खुद आपको बेवफा होना सिखाती है .जिस गीता कर्म योग कहती है ....तो दुःख में ही सुख देखिये
क्यों अपना दर्द सुनाना चाहते हो ......
क्यों अपना दर्द सुनाना चाहते हो ........
जब कि किसी को दर्द देकर ही आते हो....
ये भी जब सिद्ध हो चुका है कि,
कोई भी अपनी मूल प्रवृत्ति नही ,
छोड़ पाता उम्र भर हर मोड़ पर ,
फिर क्यों उम्मीद करूँ तुमसे ,
बिना कांटो की जिंदगी रहने दोगे,
गुलाब दामन में खिलने दोगे
मैं गुलाम नहीं वो , जान रहे है ,
मैं गुलाम नहीं वो ,
जान रहे है ,
वो जी नहीं रहे ये ,
मान रहे है ,
कितने वक्त के लिए ,
आये यहाँ जानते नहीं ,
किसी के लिए जी ले ,
वो ऐसा मानते नहीं ,
आलोक की चाहत में ,
भटकते है सब दर बदर,
देख कर मुझे क्यों फिर ,
भागते यहाँ इस कदर ............ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन
अधखिली धूप में जिन्दगी हस रही थी
अधखिली धूप में जिन्दगी हस रही थी ,
धुंध फैला के ऋतु अपने में मचल रही थी ,
मैं डूबा अभिनव के नाटक में इस कदर ,
जिन्दगी अनदिखी कल ग़ज़ल रही थी ,
बार बार एक शांत नदी सी सामने पड़ी ,
न चाह कर आज वो थी फिर ऐसे खड़ी,
लगा लपक कर समेट लू फिर उसी तरह
अंधेरो की आज याद आ गयी कई कड़ी ,
बदल रहीये कौन सी ऋतु आज आ गयी
कल किसी के साथ आज किसे वो पा गयी
अकड़ के मर गया कोई आज फिर प्यार में ,
बदला जमाना और ऋतु बदल के छा गयी ..................................कोई भी प्राणी बिना किसी माँ का रक्त मांस लिए नही जन्म पाता है और यही कारण है कि पूरे जीवन कोई भी प्राणी बिना किसी के सहारे के जी नही पाता ............तो जो आपके सहारे जी रहा है उसको स्वार्थी क्यों कहते हो ..............ऋतु भी तो बदलती रहती है पर क्या आप उसको दोष देते हैं ..नही बल्कि आप ऋतु के साथ जीने के लिए ना जाने कितने उपाए करते है ...........जिसे आप और हम संस्कृति कहते है या पजीर फैशन कहते है .............तो आज से ऊँगली उठाना बंद ...
मेरा मन कही लगता नहीं , ये वतन क्यों जगता नहीं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं ,
चुप चाप सब हैं जी रहे ,
सच का बाजार चलता नहीं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं .......1
मैं चाह कर भी हार हूँ ,
जीवन नहीं करार हूँ ,
आलोक मार्ग दर्शक नहीं ,
अंधेरों का मैं प्यार हूँ ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं ..........२
रोटी पाने की बस होड़ हैं ,
भ्रष्टाचार क्यों बेजोड़ हैं ,
ये भाई बहनों के देश में ,
सहमा क्यों हर मोड़ हैं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं .........३
घर ही नहीं देश टूट रहा है ,
विश्वास,भी अब छूट रहा है,
मारना है जब सच जानते हो ,
मन फिर क्यों घुट रहा हैं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं ............४
जीवन में जब हम सिर्फ रोटी तक रह जाते है तो देश , समाज, और घर सब टूट जाते है ......अखिल भारतीय अधिकार संगठन
आज उसकी आँखों में ह्या का जनाजा देखा
आज उसकी आँखों में ह्या का जनाजा देखा .
कुछ रोई आँखे मेरी और तमाशा सबने देखा .
बोले सब जब खो दिया तो दर्द फिर कैसा .
मैंने कहा खोयी है वो मैंने तो जीकर देखा .
आलोक चांटिया
वो कहती हैं मोह्हबत करने का मोल दो
वो कहती हैं मोह्हबत करने का मोल दो .
मुझे मेरी आरजू में आज तोल दो .
मै नही प्यासी घुंघरू की आवाज़ तुम सुनो .
आज सरे आम अपने दिल के राज खोल दो .
मैंने यही सीखा हर बात पर अपनी बोली सुनना .
आज तो अपनी मोह्हबत की बोली बोल दो .
बस इतने के खातिर मैं न जाने कहा से गुजरी .अब एक आसरे की बाँहों का माहौल दो .
आलोक चांटिया
जिन्दगी में कोई भी पल नही मिलता दोबारा
जिन्दगी में कोई भी पल नही मिलता दोबारा
ये मौत का सितम और उसका चौबारा ..
कितनी बार कहा हस कर कट लो चार पल .
फिर भी न समझे नही लौटता ये कल ..
आज राग रागिनी गयी जा रही तेरी .
साँसों को खेल है क्यों मुझसे न मिली मेरी
आलोक चांटिया
मैं लाया हूँ अपना जीवन , तुम भी हिस्सा अपना ले लो ,
मैं लाया हूँ अपना जीवन ,
तुम भी हिस्सा अपना ले लो ,
मुझको जीना है अपने खातिर ,
तुम भी अपने सपने बुन लो ,---------१
उबड़ खाबड़ सांसो के पथ है ,
तुम भी अपना गाना गुन लो ,
पीर बहुत है अंतस में मेरे ,
प्रेम के गीत तुम अपने सुन लो ------२
आज मेरे बेटे रणविजय का जन्मदिन है उन्होंने आकर पौधा लगा कर अपना जन्मदिन मनाया .....ये पंक्तियाँ उन्ही को समर्पित .......जन्मदिन मुबारक हो बेटा
अकेला नही मैं सहारे बहुत है ,
अकेला नही मैं सहारे बहुत है ,
तुम अपना भी सर धर लो ,
मरा समझ कंधे चार मिलते हैं ,
जिन्दा से तुम तौबा अब कर लो ,-------१
आलोक ढूंढने सब हैं आये ,
अंधेरों में भी बसेरा कर लो ,
डूबता को तिनके का सहारा ,
कुछ कदम साथ तुम चल लो -----------२
हम सब लाभ हानि के नज़र से हर रिश्ते को देखते है जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए
आलोक चांटिया
कितनी अजीब बात थी , वो एक मनहूस रात थी
कितनी अजीब बात थी ,
वो एक मनहूस रात थी ,
तारो से चमकते आसमान में,
गोलियों की बरसात थी ,
आतंकवाद की फसल उगी ,
मानवता फिर हैरान थी ,
निर्दोष मर गए जाने क्यों ,
बात नही आसान थी ,
शेर भेड़िये भी हुए शर्मिंदा ,
ये उनकी कैसी पहचान थी ,
आदमी को आदमी ने मारा ,
संस्कृति की कैसी ये शान थी |......
अखिल भारतीय अधिकार संगठन पेरिस में मारे गए मानव को श्रद्धांजलि अर्पित करता है
जब वो खुली आँखों से देखता रहा
जब वो खुली आँखों से देखता रहा ,
दरवाजो के सन्नाटो से मिलता रहा ,
आज ना जाने कितने आये है जब ,
बंद आँखों को किसी का इल्म न रहा ................ऐसे किसी के मरने पर क्या पहुचना जब उसके जिन्दा रहने पर आप कभी दो मिनट उसके लिए ना निकाल पाये हो |
अभी अभी सुबह ने दस्तक दी है
अभी अभी सुबह ने दस्तक दी है ...............मेरी खोज खबर नींद से ली है ...............रौशनी भी लिपट गयी मेरी आहट सुन ....................साँसों ने लक्ष्य की उडान फिर की है ..................... आइये हम सब आज के सूरज के साथ साँसों को मिले इस अवसर को बिना गवांये एक नए कल का सूत्र पात करें ..
थक रहा है तन पर मन आज भी ताजा
थक रहा है तन पर मन आज भी ताजा......................पाकर मानव का वेश न समझा वो अभागा ................भटक रहा है आज काज सब छोड़ के देखो ....................कर्म के पथ चल कोई बन सकता है राजा......................आज रानी लक्ष्मी बाई और इंदिरा गाँधी का जन्मदिन है पर वो हमारे दिल में इसी लिए है क्योकि उनका रास्ता कर्म का था ................कर्म के साथ चलिए क्योकि साँसों के कर्म का नम्म ही जिन्दगी है
ठण्ड का आलिंगन आज बहुत फिर
ठण्ड का आलिंगन आज बहुत फिर ...................... तन मन को सब से फिर छिपा रहा ...................लड़ रहा पूरब में सूरज कोहरे से .......................संघर्ष का मतलब सबको बता रहा .................जीवन का मतलब एक बना पिंड से ..................जो साँसों से खुद को चला रहा ........... जो बना है वो मिटेगा का एक दिन ................... सुख दुःख का दर्शन दिखा रहा ..................... चुकी जीवन का निर्माण किया जाता है इस लिए उसका क्षय तो होना ही है .............इस लिए आप जो भी सम्बन्ध, घर , नौकरी , शादी , जीवन बना रहे है ....उन सबका का क्षय निश्चित है इस लिए अपने द्वारा बनाये दुःख के मार्ग पर चल कर दुःख करने का कोई मतलब नही है ..
LUCKNOW (लखनऊ)
ये जमीं का टुकड़ा ,
भर नही है , मेरा शहर ,
बसी है इसमें ना जाने ,
कितनी राहे गुज़र |
देखो हसरत से इसको ,
पानी में गोमती के ,
मिलती है कहानी , जाने ,
कितनी महफ़िलो की |
है नूर ये बेगमों का ,
है शान हज़रत की अभी ,
महल दिलकुशा सा लगता ,
रेजीडेंसी है अमानत अभी ,
ना कह कर सब कुछ कहती ,
राहें विधान सभा की ,
हर दर्द समेट लेते ,
मेरे पीर खम्मन सभी ,
मनकामेश्वर में शिव से ,
बागों का शहर है चलता ,
कही रूमी का नशा है ,
सब भूल भुलैया सा लगता |
झांकती है हर शान ,
बारादरी में अभी आकर ,
नवाबों का अदब जिन्दा,
हर शाम में लखनऊ पाकर
जिसको सुबह कह रहे हो ..
जिसको सुबह कह रहे हो ............क्या उसमे रह रहे हो ..............कितने उजाले लोगे तुम यहाँ ....................क्या आज ऐसा कुछ कर रहे हो .................जीवन क्या आज है कल नही ................क्या तुम मनुष्य बन रहे हो .................आलोक तो फैलता ही रहेगा यहाँ ..................क्या किसी को रोशन कर रहे हो ........................अपने जीवन का हर पल यहाँ पर ऐसे जिए ताकि लोग याद करे न करे पर आपको लगे की दुनिया को मैंने भी स्वर्ग बनाया था ............
दुनिया का अँधेरा आँखों में बसा कर
दुनिया का अँधेरा आँखों में बसा कर ............................बंद पलकों में अब उनको छिपा कर .......................एक सपना ढूंढ़ने कही जा रहा हूँ ..................सच मानो तुझे अपने पास ला रहा हूँ ....................हर कोई देखता जब बातें होती तुमसे .......................तुमको सन्नाटो में करीब ला रहा हूँ ......................शुक्र है अँधेरा और सपनो का आलोक ..................रात में अकेले खुद न सोने जा रहा हूँ .......................दुनिया में न जाने कितने वो नही पते जो वह चाहते है .ऐसे में रात का आना कितना सुखद है क्यों की अँधेरे में डूब कर सपनो में खोया जाता है ..........और जो न पाया वही आँखों में आता जाता है ..
क्यों लिखूं मैं रात पर जब सुबह हो रही है
क्यों लिखूं मैं रात पर जब सुबह हो रही है .......................क्यों जिउं मैं सपनो को जब हकीकत हो रही है ..................जमीं पे पैर रख कर चलने का समय आया है ...................क्यों रुकूँ मैं राह में जब मंजिल बाँट जोह रही है ..................क्या हर सुबह आपका मन यही नही कहता है ??????????????
चारों तरफ मोती , बिखरे रहे मैं ही ,
चारों तरफ मोती ,
बिखरे रहे मैं ही ,
पपीहा न बन पाया ,
स्वाति को न देख ,
और न समझ पाया ,
मानव बन कर ,,
भला मैंने क्या पाया ?
ना नीर क्षीर ,
को हंस सा कभी ,
अलग ही कर पाया ,
ना चींटी , कौवों ,
की तरह ही ,
ना ही श्वानों की ,
तरह भी ,
संकट में क्यों नहीं ,
कंधे से कन्धा मिला ,
लड़ क्यों ना पाया ,
मैंने मानव बन ,
क्यों नहीं पाया ?
सोचता हूँ अक्सर ,
मानव सियार क्यों ,
नहीं कहलाया ,
हिंसक शेर , भालू ,
विषधर क्यों ,
नहीं कहलाया ?
अपनों के बीच ,
रहकर उनको ही ,
खंजर मार देने के ,
गुण में कही मानव ,
जानवरों से इतर ,
मानव तो नहीं कहलाया ............मुझे नहीं मालूम कि क्यों मनुष्य है हम और किसके लिए है हम कोई कि अगर आपको जरूरत है है तो तो आप किसी मनुष्य के बारे में जानने की कोशिश करते भी है कि वो जिन्दा है या मर गया वरना आप किसी दूसरे मनुष्य में अपना मतलब ढूंढने लगे रहते है | मैं भी इसका हिस्सा हूँ मैं किसी को दोष नही दे रहा बस समझना चाहता हूँ कि जानवर के गुण तो हमें पता है पर हम!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!आज मैं ?????? आलोक चांटिया
रात रावन की भी थी और राम की भी
रात रावन की भी थी और राम की भी ...................दिन रावन का भी है और राम का भी ..................दोनों चलेंगे कर्म के पथ पर पुर जोर ....................तय खुद से करो तुम चलोगे किस ओर....................क्यों कि दिन तुम्हारा भी है और हमारा भी .........शोहरत मेरी भी है और तेरी भी है ....................जाना ही है जब दुनिया से आलोक ...............तय खुद से करो क्या बनना तुम्हे इस लोक .....................मन में अजीब सी उलझन है क्योकि मैं समझ नही पा रहा कि जो लोग इस दुनिया में आये हैं वो रावन का जीवन क्यों ज्यादा पसंद कर रहे है ..................सोचिये पर अभी तो सुप्रभात
[23:11, 12/17/2020] Alok Chantia: नींद कुछ लेकर आ रही है ............मेरी चेतना ये कहा जा रही है ...........हो सके तो सपने में मिल लेना ....................जिन्दगी दिन में समय कहा पा रही है
देखो आँखे बोझिल हो रही है
देखो आँखे बोझिल हो रही है .................हकीकत फिर ओझल हो रही है ...........कितनी देर समेटता आलोक तुझे ...................अँधेरे की बात सपने से हो रही है ..................अगर चाहो तो खुद देख लो आकर ................एक और दुनिया मेरे संग हो रही है .....................कल फिर इसी दुनिया की बात होगी ..........................पूरब की चाहत अभी से हो रही है ..........................९९ का फेरे में डूब कर हम रोज सपने की दुनिया और हकीकत की दुनिया में गोते लगाते रहते है और इसी लिए आपको कहना ही पड़ेगा
तुम समझ ही ना पाये , कि हम यहाँ क्यों आये ?
तुम समझ ही ना पाये ,
कि हम यहाँ क्यों आये ?
बस समझते रहे ,
सुबह से शाम तक ,
जिन्दा रहने को ,
आखिर किससे कहे ,
यूँ तो मानते हो ,
तुम कुछ अलग हो ,
उन सब से ज्यादा ही ,
पर वो भी भाग रहे ,
तुम भी भाग रहे ,
जानवरो से ज्यादा ही ,
क्या आलोक नहीं है ,
जिंदगी में तुम्हारी ,
पीछे क्या रह जायेगा ,
जिंदगी के बाद हमारी ..................अखिल भारतीय अधिकार संगठन
पौधे से न जाने कब , जिंदगी दरख्त बन गयी ,
पौधे से न जाने कब ,
जिंदगी दरख्त बन गयी ,
किसी के लिए यह ,
ओस की बूंद सी रही ,
तो किसी के लिए ,
मदहोश सी मिलती रही
कोई आकर घोसला ,
अपना बना गया ,
कोई मिल कर ,
होसला ही बढ़ा गया ,
किसी को हसी मिली ,
किसी की सांस खिली ,
कोई जिया ही देखकर ,
कोई आया दिल भेद कर ,
सभी में अपने लिए ,
तोड़ने , मोड़ने , छूने ,
छाया पाने की ललक दिखी ,
किसी ने फूल समझा ,
तो किसी ने कलम बना ,
अपनी ही इबारत लिखी ,
सभी को आलोक मिला ,
पर आलोक का गिला ,
अँधेरे से सब डरते रहे ,
मौत से ही मरते रहे ,
कोई नहीं दिखा आलोक में ,
जोड़ी बनती है परलोक में ,
आलोक पूरा हुआ अँधेरे से ,
रात पूरी होगी सबेरे से ,
आइये चलते रहे दरख्त ,
बनने की इस कहानी में ,
फूल पत्ती शाखो से ,
महकते रहे जवानी में ......................अखिल भारतीय अधिकार संगठन आप सभी को जिंदगी के मायने समझते हुए एक नए कल की शुभ कामनाये प्रेषित करता है
जो बीत गया उसका शोक क्या करना
जो बीत गया उसका शोक क्या करना
याद रखो दुनिया मे है सबको मरना
स्वागत करो हर आने वाले पल का तुम
ज़िसमे कर्मो का रंग अब शेष है भरना
आलोक चांटिया
मौत तो उस सफर का नाम है
मौत तो उस सफर का नाम है
जब वो ज़िन्दगी से हुई हैरान है
चाहती थी कुछ निशां रह जाये
वो सांसे क्या जो रही बेनाम है
आलोक चांटिया
जो खुद ही , टूट गया हो ,
जो खुद ही ,
टूट गया हो ,
अपनों से ,
छूट गया हो ,
उस फूल से ,
क्या भगवान पाओगे ?
अपनी ही ,
कृति को बर्बाद देख ,
तुमसे ही उसकी ,
मौत को देख ,
क्या भगवान से ,
कुछ भी करा पाओगे ?....................हम मनुष्य भी भगवान के प्रतिनिधि है पर क्या उनको तोड़ कर हम उस भगवान तक पहुच पाएंगे ???????????? अगर नहीं तो बदलिए अपने चारो तरफ ........ डॉ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन
जीवन कह कर जिसको जीते हम
जीवन कह कर जिसको जीते हम ,
जीवन उसको कब समझ है पाते ,
सूरज निकले या अंधकार सजे भी ,
सिर्फ निजता को लेकर हम आते ...
मेरे दर्द , पर जब , कोई मुस्कराता है
मेरे दर्द ,
पर जब ,
कोई मुस्कराता है ,
शायद उसके ,
अंतस का आदमी ,
तभी जी पाता है |
मेरे अँधेरे पर ,
जलता दीपक ,
उनके घर में एक ,
सुकून दे जाता है |
ना जाने कैसी ,
फितरत पाल ली ,
आलोक दुनिया में ,
कोई क्यों आता है ?
जीते है जिसके साथ ,
वही आस्तीन ,
का सांप निकलेगा ,
कौन जान पाता है ................................ हम अब इतना समय पा ही नहीं पा रहे कि किसी को समझ सके और उसी कारण हम अकसर धोखा कहते है किसी की इज्जत लूटी जाती है और कोई किसी को प्रेम में सब कुछ लुटा कर दुनिया से चला जाता है ...............क्या आप को कोई नहीं मिला .......
सूरज के रास्ते में , चाँद भी आता है ,
सूरज के रास्ते में ,
चाँद भी आता है ,
हर सुबह का पथ ,
अंधकार भी पाता है ,
क्यों देखते हो जीवन ,
हर दर्द से दूर ,
कभी कभी दर्द ,
किलकारी के काम आता है .........................क्या आप अपने दर्द में दर्द थोडा सयम नहीं रखना चाहिए .................हो सकता है कई सवेरा आपका इंतज़ार कर रहा हो ...अखिल भारतीय अधिकार संगठन आपके मंगल की कामना करता है ...
रेत के , छोटे छोटे , कणों सा ,
रेत के ,
छोटे छोटे ,
कणों सा ,
बनकर बिखरा हूँ ,
मैं पत्थर ,
अपने जीवन ,
की दुर्दशा से ,
बहुत सिहरा हूँ ,.............रात गहरा रही है पर पता नहीं क्यों नींद कोसो दूर है , मौत का सच जनता हूँ पर यह नहीं जान पा रहा की इस दुनिया में किस मकसद से आया हूँ ..............क्या मैं सिर्फ खाना , शादी के लिए ही पैदा हुआ हूँ या कभी कुछ बेहतर कर पाउँगा ??????????????????////////
चिन्ताओ के , भंवर में फसकर , कौन कहाँ , जी पाता है ,
चिन्ताओ के ,
भंवर में फसकर ,
कौन कहाँ ,
जी पाता है ,
स्वप्निल दुनिया ,
के सपने लेकर ,
हर कोई यहाँ ,
पर आता है ,
मिल जाये सभी ,
कुछ तो अच्छा है ,
खो जाने पर ,
पछताता है ,
जो पाया है ,
कर्म के पथ पर ,
कण कण हर क्षण ,
जाने कब बिक जाता है ,
कब समझा मानव ,
दुसरो के दर्द को ,
खुद के सुख में ,
हस नहीं वो पाता है ,
धीरे धीरे सब ,
सपने को खोकर ,
पथराई आँखों से वो ,
श्मशान तलक ही आता है ,
क्यों न समझा आलोक ,
ये छोटा सा मर्म यहाँ ,
अंधकार को सच समझ ,
उसका कैसा ये नाता है .......................क्या हम भूल रहे है है की हम जितने भी सुख के पीछे भाग ले और किसी कुचक्र से उसको पा भी ले पर जाना तो है ही .............हम सब अपने पूर्वज के नाम तक नहीं जानते तो आपके इस कार्यो के लिए कौन आपको याद करने जा रहे है ....अगर्ये सच है तो आइये थोडा भाई चारा और सुकून को जी ले ........... डॉ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन
कितना आजीब सा , सिलसिला चल रहा ,
कितना आजीब सा ,
सिलसिला चल रहा ,
मन कही होता ही नहीं ,
पर बरसो से चल रहा ,
दिल होता है पर ,
उसके हम नहीं ,
और मन कहा है ,
हम में किसी में नहीं ,
कैसी है दुनिया जो ,
उनके पीछे है जो
कभी किसी को दिखा ,
न पाया गया ,
क्या मनके बिना भी
इस दुनिया में
कोई लाया गया ............................जैसे मन नहीं दिखाया नहीं जा सकता उसी तरह मैं यह नहीं जनता की मैंने क्या लिख कर क्या कहना चाहा है
मौत की ये , किस दुनिया में , रहने लगे ,
मौत की ये ,
किस दुनिया में ,
रहने लगे ,
अपने में सिमट ,
कर आलोक ,
सब रहने लगे ,
मेरे मरने पर ,
कुछ तो कहेंगे ,
बुरा था या ,
अच्छा कहेंगे ,
पर आज मेरी ,
तन्हाई पर ,
न साथ रहेंगे ,
ना कुछ कहेंगे ,
दुनिया जिसे कहते ,
जादू का खिलौना ,
मिल जाये तो मिटटी ,
खो जाये तो सोना ,
कैसे चलेगा ये ,
एक बार इधर ,
आकर भी ना कोई ,
किसी के साथ चलेंगे ,
बस चार कंधो में ,
हमारे साथ रहेंगे ........................... दुनिया यानि सिर्फ अपने चेहरों की तलाश और अपने में जी जाना .......वही हाड मांस का आदमी कभी हिन्दू तो कभी मुसलमान बन जाता है कभी दलित तो कभी सवर्ण बन जाता है यानि मनुष्य कभी एक सूत्र में पिरो कर न देखा जायेगा ....शत शत अभिनन्दन मानव तुमको निश्चय ही तुम जानवरों से भिन्न हो भिन्न हो ..