Friday, December 29, 2023

चलना इसका ही काम है।

 जो भी पाया था ,

उसके जाने का ,

वक्त आ रहा है ।

संजो भी ना सका ,

अब तो लुटने का ,

दृश्य आ रहा है ।

जिंदगी आलोक में है ,

रास्ते अंधेरो में ,

गुजर रहे है ।

साँसे तो चल रही है ,

खुद हर किसी में पर,

मौत जी रहे है ।

ये कैसा सिला मिला ,

किसी से मिलने का ,

फिर बिछड़ने का ।

अवसर भी मिला तो ,

चार कंधो पर ,

आज संवरने का।

ये वर्ष जो जा रहा है ,

वो वर्ष जो आ रहा है ,

सोचो क्या दे जा रहा है।

कोई मुझको पा रहा है ,

कोई मुझसे जा रहा है ,

समय यही किए जा रहा है।

जीना इसी का नाम है ,

कभी सोच कर देख लेना

चलना इसका ही काम है।

बधाई हो आज का कल

आलोक जी भर के लो

कल इसकी आखिरी शाम है ...


आइये सोचे कितने आजीब है हम जो यह नहीं समझ पाते कि हम सिर्फ किसी की तलाश में इस दुनिया में नहीं आये बल्कि दुनिया हमको तलाश रही है ......कुछ करने के लिए कुछ कहने के लिए ...अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Wednesday, November 8, 2023

फूलों की गलती ,,,,,,,,,कविता by alok chantia

 मिट्टी का साथ पाकर, 

एक पौधा कंक्रीट के, 

बने इमारत पर निकलने का,

 साहस तो कर बैठा ,

फूल भी खिला, पत्ती भी निकली, 

हरियाली के वह हर रंग देखने लगा,

 पर भला कब पैसों की इमारत से,

बड़ा फूल हो पाया है !

यह सच है वह किसी ,

नवयुवती के केश का श्रृंगार बना है, 

कहीं देवालय  पर, 

भगवान के साथ रहा है, 

लाशों का भी कभी-कभी ,

साथ ले लिया है कभी वीरों के, 

रास्तों का श्रृंगार बना है, 

लेकिन आज उसके हिस्से में, 

दर-दर की ठोकर और सड़क पर, 

उखाड़ कर फेंक देने का,

आलोक हिस्सा आया है, 

क्योंकि उसने गलत जगह पर,

गलत समय पर मिट्टी का साथ पाकर, 

इमारत पर उगने का ,

साहस कर लिया था ,

इसलिए हर गुण के बाद भी, 

आदमी ने उसे ,

उसके भ्रम की सजा दिया था,

उसे अपनी इमारत से उखाड़ दिया था, 

वह जान गया था गलत जगह, 

गलत समय गलत साथ का ,

क्या फल मिलता है ,

चाहे फूल हो या शूल हो, 

जरूरत पर गले लगाते सभी हैं,

 लेकिन सीमाओं को भूल जाने पर, उपेक्षा, 

अपमान की बिसात पर ,

एक फूल अक्सर सड़क पर ,

ऐसे ही कुचला हुआ मिलता है।

आलोक चांटिया

Wednesday, October 18, 2023

लोग मुर्दे पर पैसे चढ़ा गए , poem by Alok chantia

 लोग मुर्दे पर पैसे चढ़ा गए ,

कितना चाहते बता गए ,

दिल में दया भी है उनके ,

भिखारी को आज बता गए ,

भूख से बिलखते बच्चे को ,

जनसँख्या का दर्द बता गए ,

एक पल भी नही था पास में ,

बस पैसे से ही रिश्ता बता गए ,

खर्च तो करता हूँ सब कुछ ,

कितने खोखले है बता गए ,

एक अदद रोटी क्यों बनाये ,

लंगर में जाने को बता गए ,

आलोक को खरीदने का हौसला ,

असमान को जाने क्यों बता गए ,

मुट्ठी में बंद कौन कर पाया है ,

आलोक को बिकना बता गए ,

कितनी सिद्दत से सजाई दुनिया ,

दुकान का मतलब वो बता गए ,

रीता रीता सा रहा दिल आज फिर ,

खून बिकता है वो भी बता गए ,

आंसू भी बिकता है अब यहा पर,

सच को मेरे वो नाटक बता गए  ,

इतनी लम्बी जिन्दगी में कौन अपना ,

बिकती साँसों का राज बता गए ,

कोई खरीद कर जला दो मुझको ,

शमशान में लकड़ी मुझे दिखा गए ,

जाना है उनको  भी यहा से एक दिन ,

मुझको कफ़न खरीदना सीखा गए ...........................पता नही इस दुनिया में हम मनुष्य बन कर किस मनुष्य को ढूंढते है ..........................पर अब तो सब कुछ पैसा से तौला जा रहा है .................क्या हमें रुकना नही चाहिए .......शुभ रात्रि

Sunday, October 15, 2023

नवरात्र का सच Me Too

 # MEE TOO




दुर्गा कह कर मजाक उड़ा रहे है ,

पूरे देश में हम औरत जला रहे है ,

कितने ही नव दुर्गा कहते तुमको ,

बलात्कारी फिर कौन होते जा रहे है ,

कन्या तो देवी का रूप कही जाती है ,

माँ की कोख में ही क्यों मारे जा रहे है ,

कितना झूठ जीने की हसरत तुममे ,

रोज घुंघरू ही क्यों बजते जा रहे है ,

कितने ही कह जायेंगे आलोक बरबस ,

तुम क्यों महिसासुर बनते जा रहे हो ,

रह तो जाने दो कम से कम नव दुर्गा ,

नव महीने उसके ही छीने जा रहे हो ,

कल जब काली न दुर्गा मिलेंगी तुम्हे ,

फिर ये व्रत किसका रखे जा रहे हो ,

कभी तो शर्म करो अपनें दोमुह पर ,

किसका आंचल फाड़े जा रहे हो ,

आज माँ का दिन सच कह लो उससे ,

कल फिर ये शब्द भूले जा रहे हो ,

जय माता दी अपने दिल में बसा लो ,

क्या उसको हसी फिर दिए जा रहे हो .......................अगर इस देश में नारी के लिए इतना बड़ा व्रत रखने के बाद भी औरत की संख्या कम हो रही है या फिर उसके साथ बलात्कार हो रहा है तो ऐसे नवरात्री को हम क्या करने के लिए मना रहे है डॉ आलोक चान्टिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Wednesday, October 4, 2023

अमिताभ बच्चन और सिंगल्स वैक्सीन के विरुद्ध अखिल भारतीय अधिकार संगठन ने उठाई आवाज सरकार ने दिया आदेश


अमिताभ बच्चन और सिंगल्स वैक्सीन के विरुद्ध कार्यवाही


अमिताभ बच्चन द्वारा सिंगल्स के लिए बनी वैक्सीन पर अखिल भारतीय अधिकार संगठन ने भारत सरकार से प्रश्न उठाया था जिसको भारत सरकार ने स्वास्थ्य मंत्रालय को भेजा है मेरा यह सबसे बड़ा प्रश्न था कि अमिताभ बच्चन इस तरह की वैक्सीन का प्रचार किसके परमिशन से कर रहे हैं क्या भारत सरकार ने उन्हें परमिट किया है उन्हें अपना ब्रांड एंबेसडर इसमें बनाया है या फिर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने उन्हें बनाया है और अगर नहीं बनाया है तो अमिताभ बच्चन भारतीययों के ऊपर एक्सपेरिमेंट करने के लिए इस वैक्सीन का प्रचार कैसे कर रहे हैं क्या भारतीय केवल अजायब घर की विषय वस्तु है जिनका जो चाहे जैसे उपयोग करें वैसे जितनी मुझे जानकारी है यह विज्ञापन बंद हो गया है चैनल पर नहीं आ रहा है अगर कहीं भी आ रहा है तो आप मुझे तत्काल सूचित करें प्रजातंत्र में भारतीय या नागरिक से मजबूत कोई नहीं है लिए कुछ बढ़िया करते हैं भारत आपका है देश आपका है और आप प्रजातंत्र के सबसे बड़े प्रहरी हैं अखिल भारतीय अधिकार संगठन




 

Tuesday, October 3, 2023

जिन्दगी ले कर आया हूँ , by Alok chantia

 जिन्दगी ले कर आया हूँ ,

जिन्दगी देकर जा रहा हूँ ,

इस दुनिया से  क्या कहूँ ,

लाश बन कर जा रहा हूँ ,

लोग कह क्यों रहे स्वार्थी ,

हा अर्थी ही सजा रहा हूँ ,

क्या मैं साधू नही लगता ,

जब सब छोड़े जा रहा हूँ ,

आलोक देखते थक गया ,

अँधेरे से इश्क लड़ा रहा हूँ ,

किलकारी-बोलने का सफर ,

तेरी यादो में छिपा रहा हूँ ,

कल रास्तो का सन्नाटा देखो ,

मेरे निशान न ढूंढ़ना कभी ,

ये तो दुनिया का दस्तूर था ,

आना है किसी और को अभी .......

Alok chantia

Sunday, September 17, 2023

मानवता के उसे पार poem by Alok chantia

 अनगिनत धमनी शिरा का ,

जाल खून से लथपथ कुछ,

 मांस के लोथड़े और कठोर,

 हड्डियों के ऊपर बना हुआ ,

एक कोमल चेहरा झील सी ,

आंखें मांसल कपोल ही ,

किसी को आकर्षित करता है l

भला ऊपरी चेहरे से इतर ,

कौन भीतर की चेहरे की ,

बात आलोक करता है ?

श्वेद बूंदों से और खेत की ,

मिट्टी से सने हुए कपड़ों के बीच, 

झांकती हुई हड्डियां और ,

धूप की रोशनी से काले पड़ गए,

 तन मे कौन सुंदरता खोजता है ?

 बस उनकी मेहनत से मिट्टी को ,

तोड़कर निकले हुए अनाज के ,

बीजों में ही हर कोई डूबता है !

न जाने क्यों सच से ,

हर कोई सच में उबता है  ?

फिर भी मानवता परोपकार की ,

ना जाने कितनी कहानियां कहता है l

रोज रह जाता है किसी के ,

घर में अंधेरा बिना जला हुआ चूल्हा ,

और भूख से सो गए बच्चों का ,

एक लंबा सिलसिला लेकिन ,

एक झूठ मिल जाता है हंसता हुआ ,

और खिला खिला बोलता भी है ,

जोर-जोर से हम सब एक हैं !

कोई भी अंतर नहीं है हम सब में ,

अनेकता में एकता का दर्शन जीकर ,

वह लोकप्रिय भी बन जाता है पर ,

भला उस आदमी के अंदर ,

जकड़ा हुआ गुलाम आदमी ,

कब कहां कौन देख पाता है ?

चेहरे के अंदर का खून,

 धमनी में बंधा हुआ चेहरा ,

तेजाब से जला हुआ चेहरा, 

कहां किसे आकर्षित कर पाता है ?

आदमी अक्सर सच से दूर रोज ,

एक झूठ जी जाता है ,

एक झूठ जी जाता है ,

अंधेरे में खड़ा आलोक सा जीवन

मुट्ठी में सिर्फ रेत पाता हैl

मुट्ठी में सिर्फ रेत पाता है

 आलोक चांटिया

Friday, September 15, 2023

मिट्टी से जुड़ना सीखो poem by Alok chantia

 अपनी सारी कठोरता ,

अकड़ नीरसता सूखेपन को,

 एक बीज तब समझ पाया,

 जब वह मिट्टी की अतल,

 गहराइयों का स्पर्श और ,

नमी को अपने अंदर समाता पायाl

 मिट्टी ने उसको उसका ,

असली चेहरा दिखाया था,

 कितने सुंदर सुंदर रंग के फूल ,

उसमे छिपे हैं उसको अंकुरण के लिए,

 उत्साहित करके बताया था l

छोटी-छोटी कोमल पत्तियों और,

 फल के साथ दुनिया में,

 वह कितना सम्मान पा सकता है,

 लोगों के कितने करीब आ सकता है?

 बीज को मिट्टी ने अपने ,

संपर्क से यही समझाया था l

ना जाने क्यों मानव ,

इस दर्शन से कोसों दूर जा चुका है l

मिट्टी का शरीर उसका भी है,

 अपने अंदर के बीज को,

 वह न जाने कहां मार चुका है l

मिट्टी चाहती है आज भी,

 अपने शरीर के अंदर उन सारे,

 तत्वों को चुन चुन कर,

 इस दुनिया में निकालना l

जिसके अंदर जियो और,

 जीने दो का सुंदर सार है ,

जानवरों से आदमी को,

 थोड़ा और ऊंचा उठाना l

क्या मानव आज भी अपने ,

शरीर को जानता है ?

मिट्टी का ही है वह भी,

 क्या आलोक यह मानता है !

 आलोक चांटिया

Monday, September 11, 2023

समय एक सा नहीं by Alok chantia

 सोचता हूँ कितना समय ,

कब कहां और क्यों खो गया ?

देखता हूँ अब समुंदर ,

कुछ और ज्यादा उठ गया !

कुछ और खारा हो गया ,

 जिंदगी से दूर हो गयाl

सोचता हूँ समय को ,

लेकर मैं क्यों न चल सका ?

देखता हूँ बाल सारे ,

काले मैं न रख सका l

बिना छड़ी  ना चल सका, 

समय मेरे लिए नहीं रुकाl

सोचता हूँ और कितना, 

समय अब मुट्ठी  में है ?

देखता हूँ जो कल हसे थे , 

दिलों में मेरे बसे थे l

सपने लिए थे वो ,

आज चिताओं पर सोए हैं ,

या मिटटी में खोए हैं l

पूछता हूँ खुद से यही ,

क्यों नहीं समझा समय ?

जानते थे जब सभी ,

एक सा रहता नहीं समय l

 डॉआलोक चांटिया

हिम्मत मत हारो........by Alok chantia

 है दूर बहुत दूर,

सूरज फिर भी, 

कोशिश तो करता है l

घर आंगन  चौबारे को, 

अपनी रोशनी से ,

तो भरता है l

ऐसा नहीं कि पीछे है ,

चांद भी रात की कालिमा को ,

वह अपनी चांदनी से हरता है l

तारे भी टिम टिमा कर ,

एहसास करा जाते हैं l

सुंदरता किसको कहते हैं ,

यह तक बता जाते हैं l

फिर क्यों तुम ,

हारे जा रहे हो ?

अपने अंदर हताशा और,

 कमी को पा रहे हो !

सोचो कुछ ना कुछ तो ,

तारे सूरज चांद सा ,

तुम्हें भी होगा जो इस ,

संसार में ,

किसी के काम का तो होगा l

कोशिश तो कर ही डालो ,

यह जानने के लिएl

 जीवन कर्म का नाम है ,

यह मानने के लिए l

आलोक चांटिया

Wednesday, September 6, 2023

अंधेरे को अपना ही समझो। poem by Alok chantia

 आज का दिन अंधेरे के, 

साथ पूरा हो रहा है ,

अंधेरे से गुजर कर ही ,

दूसरे दिन का सवेरा हो रहा है,

 इतना अजीब है जीवन का ,

यह खेल आलोक ,

कितनी भी कोशिश कर लो,

अंधेरा जीवन का हिस्सा हो रहा है,

 न जाने फिर क्यों ,

घबरा जाते हैं लोग अंधेरों से,

 जब अंधेरे के पार ही ,

सूरज पूरब का हो रहा है ,

घबराकर आंख बंद मत करो,

अंधेरे में आसमान रंगीन हो रहा है,

 तारे भी नाच उठे हैं अनवरत,

अंधेरे को देख देखकर,

 सवेरे ने जो छीना था टिमटिमाना,

 अब उनका हो रहा है ,

मान भी लो अंधेरों में ,

तुम्हारी सांसे पूरी हुई है ,

गर्भ के उस पार देखो ,

किलकारी का बसेरा हो रहा है, 

 सुंदर सपने भी आंखों के,

 बंद होने पर आते हैं ,

नींद मत समझो इन्हें सुंदर रास्तों पर, 

 ये तो कल का सवेरा हो रहा है।

 आलोक चांटिया



जिस दिन हम अंधेरे के दर्शन को समझ जाएंगे हमारे बहुत से संकट दर्द अवसाद वैसे ही समाप्त हो जाएंगे

Tuesday, September 5, 2023

माना की आज मन हताश है , poem by Alok chantia

 माना की आज मन हताश है ,

पर बंजर में भी एक आस है l

चला कर तो एक बार देख लो ,

अपाहिज में चलने की प्यास है l

कह कर मुझे मरा क्यों हँसते,

यह भी लीला उसकी रास है l

लौट कर आऊंगा या नही मैं ,

क्या पता किसको एहसास है l

लेकिन ये सच कैसे झूठ कहूँ ,

मौत के पार भी कोई प्रकाश है l

आओ बढ़ कर उंगली थाम लो ,

हार कर भी मुझमे उजास हैl

पागल मुझको कहकर खुद ही ,

देखो आज वो किसकी लाश है l

आज कर लो जो मन में है कही ,

जाते हुए न कहना मन निराश है l

सभी को नही मिलता आदमी यहां,

आज जानवरों का यही परिहास है l आलोक चांटिया

Monday, August 28, 2023

दर्द

 दर्द

आज फिर क्यों आँखे नम है ,

भीड़ में कोई चेहरा कम है ,

कितना भीगा आलोक से जीवन ,

फिर भी अंतस में क्यों तम है ,

रोज नींद कहकर क्यों सुलाती ,

मौत बता तुझको क्या गम है ,

कल तक दो जीवन जो साथ रहे ,

ठहाको में उनके भी सम है ,

कहा छीन कर ले गई आज तू ,

जब दो शरीर में एक ही हम है ,

इतना सन्नाटा उसको क्यों पाकर ,

लाश को पा मौत अब गई थम हैl आलोक चांटिया

Sunday, August 27, 2023

क्या जीवन नाटक है

 अब मैं पौधा ,

नहीं रहा हूँ , 

अब मुझे जब ,

जहा चाहे उठाना ,

बैठना आसान ,

नहीं रहा है ,

अब मैं दरख्त ,

बन गया हूँ ,

जो छाया दे ,

सकता है , ईंधन ,

भी दे सकता है ,

मुझ पर न जाने ,

कितने आशियाने ,

बन गए है ,

पर अब मैं हिल ,

नहीं सकता ,

मैं किसी से खुद ,

मिल नहीं सकता ,

ठंडी हवा देकर ,

सुकून दे सकता हूँ, ,

आपके लिए जल ,

भी सकता हूँ , 

सब कुछ अच्छा कर,

मैं कुल्हाड़ी से ,

कभी कभी आरे से ,

कट भी सकता हूँ ,

खुद को बर्बाद कर, 

आपके घर की ,

चौखट बन सकता हूँ ,

कितना बेबस आलोक ,

दरख्त बन कर भी ,

लोग टहनी तक ले जाते ,

ऐसे जी कर भी  ..............

जीवन में समय की कीमत को समझिए क्योकि वही आपके जीवन में दोबारा नहीं आता है ...

आलोक चांटिया

Saturday, August 26, 2023

बेमेल विवाह

 बेमेल विवाह .........

अक्सर कोमल सी ,

लताये ही ,

उम्र दराज़ पेड़ों ,

से लिपट जाती है ,

न जाने क्यों उनमे ,

उचाई छूने की ,

ललक जग जाती है ,

पर उम्र की मार से ,

बूढ़ा पेड़ क्या गिरा ,

कोई नन्ही सी कोपल ,

नाजुक सी लता भी ,

 खाक में मिल जाती है ............, आलोक चांटिया

बेमेल विवाह रोकिये .लड़की सिर्फ दूसरो के सुख के लिए अपने को महसूस करके के लिए भी पैदा हुई है

Friday, August 25, 2023

विश्व महिला समानता दिवस

 औरत कैसी भी ........




मैं मानता हूँ ,

और जानता भी हूँ ,

कि सारी औरतें ,

एक जैसी नहीं होती ,

पर रेगिस्तान में ,

कैक्टस भी लोगो ,

के काम आते है ,

जब हम तिल तिल ,

करके मरते है ,

पानी की बून्द को ,

तरसते है तब ,

इन्ही को हम अपने ,

सबसे करीब पाते है ,

उन्ही कांटो में सरसता ,

और जिंदगी के लिए ,

पानी पाते है |

औरत ने ही सब कुछ दिया

भला कहां कह पाते हैं?


औरत कैसी भी हो पर उसका सार निर्माण ही है ............. आलोक चांटिया

Thursday, August 24, 2023

आंसुओं का दर्द

 आंसू .........

आंसुओ को सिर्फ ,

दर्द हम कैसे कहे ?

कल तक जो अंदर रहे ,

वही आज दुनिया में बहे l

सूखी सी जिंदगी से निकल , 

बिल्कुल ना थे  विकलl

किसी सूखी जमी को ,

सपने दिखाए कैसा था कल l

मन भारी भी होता रहा, 

ऐसी नमी पाकर l

किसी में नयी कहानी ,

बसने  लगी आकर l

कोपल फूटी , 

किसी को छाया मिली l

किसी  बेज़ार जिंदगी में,

एक ठंडी हवा सी चली l

दर्द का सबब ही नहीं ,

मेरे आंसू आलोक l

इस पानी में भी जिंदगी ,

लेती है किसी को रोक .........

आंसू कही दर्द तो किसी के लिए सहानुभूति बन कर आते है और फिर शुरू होती जिंदगी की एक नयी कहानी आलोक चांटिया

Wednesday, August 23, 2023

औरत और नदी

 जो मुझे मैला ,

करते रहे हर पल ,

वो भी जब डुबकी ,

लगाते है मुझमे ,

मैं उनके दामन,

को ही उजला बनाती हूँ ,

कीचड़ तो मेरी जिंदगी ,

का हिस्सा बन गया ,

उसी को लपेट सब , 

जिंदगी पाते है ,

कभी नदी में रहकर ,

कभी गर्भ में रहकर ,

पर अक्सर ही ,

हम कभी नदी तो ,

कभी औरत के पास ,

खुद के लिए आते है |..................

डॉ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

हम हमेशा सच को स्वीकारने से क्यों भागते है

Sunday, August 20, 2023

तन्हाई से निकल कभी जब शोर का आंचल पाता हूँ ,

 तन्हाई से निकल कभी जब शोर का आंचल पाता हूँ ,

 समंदर की लहरों सा विचिलित खुद को ही पाता हूँ ,

निरे शाम में डूबे शून्य को पश्चिम तक ले जाता हूँ ,

भोर की लाली पूरब की खातिर भी मैं  ले आता हूँ ,

पर जाने क्यों मन का आंगन सूना सूना नहाता है ,

पंखुडिया से सजे सेज तन मन  को कहा सुहाता है ,

तुम नीर भरी दुःख की बदरी मै बदरी ने नाता हूँ ,

तेरे जाने की बात को सुन  कफ़न बना मै जाता हूँ ,

एक दिन न जाने क्यों आने का मन फिर करेगा ,

पर क्या जाने भगवन मेरे दिल उसका कब हरेगा ,

मौत यही नाम है उसका आलोक के साथ मिली है ,

जिन्दगी की तन्हाई से अब तो साँसों का तार तरेगा ,................................जितना पशुओ का समूह एक साथ दिखाई देता है और जब कोई हिंसक पशु आक्रमण करता है तो सब अपनी जान बचने में लगे रहते है .वैसे ही आज के दौर में मनुष्य देखने में सबके साथ है पर अपनी जिन्दगी की हिंसक ( भूख , प्यास , महंगाई , बेरोजगारी , आतंकवाद ) स्थिति आने पर वह बिलकुल ही अकेला होता है ...................सच में मनुष्य एक सामजिक जानवर से ऊपर नही .....................

Sunday, July 30, 2023

तन्हाई जब , दर्द से मिलती है , poem by Alok chantia

 तन्हाई जब ,

दर्द से मिलती है ,

ये मत पूछो रात भर ,

क्या बात चलती है ,

दीवारों के पीछे कुछ ,

नंगे होते बेशर्म सच ,

साकी सी आँखे ,

बार बार मचलती है ,

शब्दों की खुद की ,

न सुनने की आदत ,

दिल की आवाज बस ,

हर रात ही सुनती है ,

तारों के साथ गुजरी ,

लम्हों में सांसो के बाद ,

सुबह की आहट आलोक ,

क्यों मुझको खलती है ,

अकेले में अकेले का ,

एहसास जब मिलता है ,

जिंदगी क्या बताऊँ ,

तू कैसे संग चलती है

आलोक चांटिया

Monday, July 17, 2023

जो भी देखा आँखों से देखा .....poem by Dr Alok chantia

 जो भी देखा आँखों से देखा .....

ये किसको सच तुम मान रहे ........

आकाश का रंग काला ही होता ....

पर उसको भी नीला मान रहे ......

आँखों का क्या जब रेत को देखे ...........

पानी का भ्रम पैदा कर देती है  ............

तड़प तड़प कर पथिक है मरता .....

रेगिस्तान भेज जब देती है .........

आँख की भाषा पड़कर जब ....

प्रेम किसी को लगता है ......

सूनी आँखों में विरह था वो .....

जो राधा को विकल करता है .....

आज फिर न कर लो आलोक ........

विश्वास इन बेवफा आँखों पर ........

देश नहीं हाहाकार  बढ रहा ........

प्रगति विनाश की राखो पर .......


आँखों से नहीं बल्कि सच को खुद जानने की कोशिश करिए ताकि देश को सही हाथो में देकर हम अपने कल को खुद सुनिश्चित कर सके ..........

आलोक चांटिया

Sunday, July 16, 2023

कविता द्वारा डॉक्टर आलोक चांटिया

 जो भी देखा आँखों से देखा .....

ये किसको सच तुम मान रहे ........

आकाश का रंग काला ही होता ....

पर उसको भी नीला मान रहे ......

आँखों का क्या जब रेत को देखे ...........

पानी का भ्रम पैदा कर देती है  ............

तड़प तड़प कर पथिक है मरता .....

रेगिस्तान भेज जब देती है .........

आँख की भाषा पड़कर जब ....

प्रेम किसी को लगता है ......

सूनी आँखों में विरह था वो .....

जो राधा को विकल करता है .....

आज फिर न कर लो आलोक ........

विश्वास इन बेवफा आँखों पर ........

देश नहीं हाहाकार  बढ रहा ........

प्रगति विनाश की राखो पर .......


आँखों से नहीं बल्कि सच को खुद जानने की कोशिश करिए ताकि देश को सही हाथो में देकर हम अपने कल को खुद सुनिश्चित कर सके ..........

आलोक चांटिया

चूहे की भूल .......... कविता द्वारा डॉक्टर आलोक चांटिया

 चूहे की भूल ..........

ग़ुरबत में कोई मुरव्वत नहीं होती है  ,

रोटी की तलाश हर किसी को होती है ,

मैं भी एक रोटी तलाशता  हूँ हर दिन ,

बनाता भी दो अपने लिए  रोज रात ,

पर कमरे का चूहा पूछता है एक बात ,

क्या आज भी मेरा हिस्सा नहीं है ,

मैंने भी तो तुम पर भरोसा किया ,

रात दिन तुम्हारे  इर्द गिर्द जिया ,

कितना खाऊंगा एक टुकड़ा ही तो ,

उसके लिए भी तुमने मुझे जहर दिया ,

आदमी तुम कितने गरीब हो ,

रिश्तो के तो पूरे रकीब हो ,

जब मुझे एक टुकड़ा नहीं खिला सके ,

अपने कमरे में मुझे बसा ना सके ,

तो भला उन मानुस का क्या होगा ,

जो तेरी जिंदगी में यही  कही होगा ,

कितना हिसाब लगाते होगे रोटी का ,

जहर क्या मोल है उसकी भी रोटी का ,

मैं जानता नहीं गर्रीबी क्या होती है ,

चूहा हूँ बताओ आदमियत क्या होती है .......... आलोक चांटिया

Friday, June 23, 2023

क्यों कहे कि हम जिन्दा है जब ...............

 क्यों कहे कि हम जिन्दा है जब ...............

मरने वालो को ही पैसा मिलता है ..................

जब कोई गरीब मरता है यहाँ ..................

तो पुरे परिवार का चेहरा खिलता है ...................

कल भी खबर आई भैया के मरने की................

माँ भी रोई बप्पा भी रोये कहकर ...............

देखो मुन्ना हमको रोटी दे गया ................

जो न कर पाया था जिन्दा रहकर .....................ये एक सच्ची घटना है जो देश की तस्वीर दिखाती है ....................पूरा घर दुखी है मुन्ना के उत्तराखंड में मर जाने पर शुकून भी है कि जिस देश में जिन्दा रहकर एक रोटी मिलना मुश्किल थी वह मरने पर सरकार अपनी दरिया दिली और मानवता के लबादे को ओढ़ कर कुछ जीने का सहारा तो दे देती है ...........................जागो भारत जागो ..................शुभ रात्रि

Wednesday, June 21, 2023

कोई नहीं मैं निपट अकेला ............. चारदीवारी से करता बातें ..........

 कोई नहीं मैं निपट अकेला .............

चारदीवारी से करता बातें ................

पत्थर के भगवान सही ................

संग उनके कटती है रातें ..............

सो जाता जब नींद में गहरी ...............

भगवान सभी चिल्लाते है .......................

हमें अकेला निपट छोड़ क्यों  .................

मानव खुद सो जाता है .................

सर पटकते , रोते रहते ................

जब मंदिर में मेरे आते है .................

कमरों में लटका फिर हमको ...............

पहरेदारी रात करवाते है ...................  जब आप अपने को अकेला कहते है तो सीधे भगवान के अस्तित्व को नकारते है और तब उस भगवान को कितनी पीड़ा होती होगी जो आपके घर में २४ घंटे दिवार पे लटक कर , मंदिर में बैठ कर आपको बचत है ...यानि मानव भागवान का मूल्य तक अनहि समझता और फिर जब भगवान उदासीन होता है तो सिर्फ तांडव होता है ......मौर का सैलाब आता है ........आप मानिये चाहे न मानिये ...................शुभ रात्रि

निशां की पीड़ा तुम क्या जानो ..........

 निशां की पीड़ा तुम क्या जानो ..........

कालिमा कह उसको पहचानो ...............

सौन्दर्य बोध वो है उसका सच ...........

आलोक को दुश्मन उसका मानो............

कितनी आहत साँझ ढले वो ...........

जब उन्मुक्त नशीली होती है ...............

सूरज को है जीत कर आती ..............

दीपक से चीर तार तार होती है ............

निपट तमस आँखों के भीतर ..........

सुन्दर सपने रात से लाते है .............

कितनी किलकारियों के सृजन ........

ढलते पहरों की गोद में पाते है ..............

फिर क्यों जला उठते हो लट्टू .........

और रात का करते हो अपमान ..........

जी लेने दो चांदनी चकोर को ..............

रजनी का भी कुछ तो है मान ...................ये रात की विकलता है की जब वह अपने सौंदर्य बोध के साथ हमारे सामने आती है तो हम उसके प्रेम का अपमान करके बिजली जला देते है जबकि वो न जाने क्या क्या हमको दे जाती है .........तो रात को प्रेम से देखिये ............शुभ रात्रि

Sunday, June 18, 2023

मैंने भी लूटा है सांसों का मजा

 मैंने भी लूटा है खर्च,

होने से पहले सांसो का मजा |

बेवजह दौड़ते पैरो को मिलेगी ,

कब की फ़िक्र कौन सी सजा |

कहते सभी थे रुक जाओ ,

ये उम्र सांसो की कमाई है |

नौ महीने की तपस्या से ये ,

इस दुनिया में आ पाई है |

पर लगा कि ये बकवास तो ,

सदियों से दुनिया ने गायी है ,

कितना थका कि आज मन ,

तन भी देखो उठा ही नहीं है  ,

चार कंधो पर चला जा रहा जैसे ,

जीवन आलोक ने छुआ ही नहीं है ......................................जीवन को समझिये और इसको भी पैसे की तरह खर्च करिए वरना मिलकर भी मिटटी में मिल जायेगा..आपका आलोक चान्टिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Saturday, June 17, 2023

ना जाने लोग कैसे कैसे भ्रम पाल लेते है ,

 ना जाने लोग कैसे कैसे

भ्रम पाल लेते है ,

कुत्ते की जगह अक्सर ,

आदमी पाल लेते है ,

धोखे खाने के लिए ही ,

रिश्ते जिए जाते है ,

बंद घर में भी जब तब ,

साँप चले आते है,

न चाह कर भी रोज ,

जानवर ही हम जीते है ,

कुछ जीवन कुतर देते है ,

कुछ कीचड़ छोड़ जाते है ...................

कभी आप को सिर्फ निखालिस आदमी मिला जो गंगा सा निर्मल हो ..........या फिर जानवर ----- डॉ आलोक चान्टिया, अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Thursday, June 15, 2023

भारत मां की चिथडो में लिपटी


 विकास का भारत ???????????????

सड़क के किनारे ,

भारत माँ चिथड़ो में लिपटी ,

इक्कीसवीं सदीं में ,

जा रहे देश को ,

दे रही चुनौती ,

खाने को न रोटी ,

पहनने को न धोती ,

है तो उसके हाथ में ,

कटोरा वहीं ,

जिसके आलोक में ,

झलकती है प्रगति की ,

पोथी सभी ,

किन्तु हर वर्ष होता है ,

ब्योरो का विकास ,

हमने इतनो को बांटी रोटी ,

और कितनो को आवास ,

लेकिन आज भी है उसे ,

अपने कटोरे से ही आस ,

जो शाम को जुटाएगा ,

एक सूखी रोटी और ,

तन को चिथड़ी धोती ,

पर लाल किले से आएगी ,

यही एक आवाज़ ,

हमने इस वर्ष किया ,

चाहुमुखीं विकास ,

हमने इस वर्ष किया ,

चाहुमुखीं  विकास ............................ देश में फैली गरीबी के बीच न जने कितने कटोरे से ही अपना जीवन चला रहे है जब कि देश के नेता विकास का ढिंढोरा पीट रहे है .क्या आप को ऐसा भारत नही दिखाई दिया ...डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Tuesday, June 13, 2023

कितनी सुबह कितनी बार आएगी द्वारा आलोक चांटिया

 कितनी सुबह कितनी बार आएगी ,

और तुमको  सोते से जगा पायेगी ,

पश्चिम को कोसना छोड़ दे आलोक ,

जिन्दगी आदमी फिर बन न पाएगी ...................... हम जो भी कर रहे है उसमे रोज यह सोचिये कि खाना , कपडा , प्रजनन , और आवास कि व्यवस्था ( जानवर भी करते है ) के अलावा दूसरो के लिए हम कितना जी पा रहे है ( जानवर दूसरो के लिए नही जीते है और अपने सामने शेर को शिकार करता देखते है पर खुद को बचाने में लगे रहते है ) यही अधिकारों कि रक्षा का मूल मन्त्र है ....सुप्रभात , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

अंतस में तमाशा कविता द्वारा आलोक चांटिया

 अंतस के तमस में ही दिल चल पाता है ,

गर्भ के अंधकार से जन्म कोई पाता है 

नींद भी आती स्वप्न भी आते रातो में ,

कालिमा से निकल सूर्य पूरब में आता है ............................

अंधकार हमारा स्वाभाव है और प्रकाश हमारा प्रयास ....कोई भी दीपक अँधेरा नही फैलाता पर  दीपक के बुझते  ही  अँधेरा खुद फ़ैल जाता है ..अणि हमको अच्छे समाज से लिए निर्माण  करना है क्यों की गलत समाज तो हमेशा से ही है .................... अखिल भारतीय अधिकार संगठन

तुम जानते नहीं कितने दिलों में बस रहे हो

 तुम जानते नहीं कितने दिलो में बस रहे हो ................

क्यों मेरी बेबसी पर  आज हस रहे हो ............

माना की अब ईद के चाँद से भी नहीं ...........

पर ख़ुशी है उस के पास ही जा रहे हो ...............

आज फिर याद आई तेरी हर वो बाते ..................

जब इस दिनिया से ही चले जा रहे हो ..........

एक बार तो खबर मेरी भी लेना तुम वहा...........

और पूछना कि तुम यहाँ कब आ रहे हो ..........

तुम तो भ्रष्टाचार से उब जल्दी चल दिए ...............

और मुझे इसी दलदल में छोड़े जा रहे हो .................

ले लो मेरा सलाम आज मेरे कंधो पर ...........

खुद चुप होकर आंसू दिए जा रहे हो ................

अब कौन पुकारेगा मुझे डॉ साहेब सुनिए ................

मेरी आवाज तो खुद लेकर जा रहे हो .................................अपने प्रिय श्री जे पी सिंह के आकस्मिक निधन पर एक अनशनकारी और उनके अनुज के श्रधांजलि के दो शब्द ............................

जब पत्थर से बन जाओगे

 जब पत्थर से बन जाओगे ............

भगवान तभी तुम पाओगे .............

गडों जमीं में या जलो चिता में .............

जन्नत , स्वर्ग तभी ही पाओगे ...........

जितनी गर्मी जीवन में पाई ...........

उससे कम अंत में न तुम पाओगे .........

आखिर मिलना भी है तो किससे...............

ईश्वर, अल्लाह गॉड जब गुनगुनाओगे ..............

सब रोयेंगे ले मलिन से चेहरे ............

परम तत्व से मिल तुम शांत हो जाओगे ................

छोड़ तुम्हे सब  लौटेंगे  घर जब ...........

खुद को अकेला नहीं तुम पाओगे ...................

शमशान तो कहती दुनिया है इसको ....................

यात्रा के अगले पथ तुम यही पाओगे ...............

कोई क्या जाने अब कहा गए तुम ...............

घर में मूरत सी बन जाओगे ...............

कर्मो के निशान पर चल कर ...............

लोगो में भगवान कभी कहलाओगे ................शमशान पर श्री जे पी सिंह के पञ्च तत्व में विलीन होते समय जो भाव आ रहे थे उनको आजेब तरह से उकेरा है क्योकि शमशान ही इस दुनिया से पूरी तरह जाने का रास्ता है .............क्या आप सहमत है .......शुभ रात्रि

मैं जानता हूं फितरत कविता द्वारा आलोक चांटिया

 मैं जानता हूँ फितरत 

क्या है मेरी खातिर ,

हम उम्र भर जिंदगी ,

के लिए वफ़ा करते है ,

और फिर मौत के लिए ,

मर लिया करते है ,

फिर तुम क्यों मारते हो ,

खंजर पीठ मेरे पीछे ,

 दिल में आकर रह लो ,

धड़कन के पीछे पीछे ,

तुम्हे एतबार नहीं है ,

खुद अपने पैतरे पर ,

हस कर जो मुझसे मिलते ,

राज करते दिल पर ,

मैं जानता था फितरत ,

तेरी लूटने की कबसे ,

ये जिंदगी भी रहती ,

ये लाश कहती है तुझसे .....................

धोखा मत दीजिये क्योकि जीवन अनमोल है किसी को मार कर आप सिर्फ अपने जानवर होने का सबूत देते है

Monday, June 12, 2023

जिंदगी तलाश रहा हूं कविता द्वारा आलोक चांटिया

 जिंदगी तलाश रहा हूँ ,

तेरे पास आ रहा हूँ ,

कितना सफर है लम्बा ,

न जान पा रहा हूँ ,

कभी धूप की है गर्मी ,

कभी धूप है सुहाती ,

कभी खुद में सिमट कर ,

कभी खुद से बिखर कर ,

बस दौड़ा जा रहा हूँ ,

कभी पास तू है लगती ,

कभी दूर तक न दिखती ,

हर रात रहती आशा ,

साँसों की बन परिभाषा ,

जब खुल कर गगन में ,

उड़ कर जा रहा हूँ ,

तू चील की नजरों से ,

मुझे खोजे जा रही है ,

ये मिलन अधूरा कैसा,

ये सफर कुछ है ऐसा ,

कितना तड़पी जिंदगी है ,

मौत ये कैसी बंदगी है ,

सब जीते आलोक में है ,

अब अँधेरे के लोक में है ,

अब घोसला है खाली,

ये दोनों का मिलन है ,

है जिंदगी एक धोखा ,

ये मौत का जतन है .............

जिंदगी किसी की नहीं पर हम उसे न जाने कितने जतन से जीते है अगर मौत का एहसास कर ले तो कोई क्यों लालच करें ................,

,डॉ आलोक चांटिया

Sunday, June 11, 2023

जो आपने बही कुछ बातें कहीं

 ये  दैनिक जागरण समाचार पत्र में प्रकाशित हुई है 


जो आँखे बही ,

कुछ बाते कही ,

मौन के शब्द ,

है दिल स्तब्ध ,

नीरवता की लय ,

ये कैसी पराजय ,

मन है अशांत ,

जैसे गहरा प्रशांत 

हिमालय से ऊचे ,

जमीन  के नीचे ,

तड़प है ये कैसी ,

अँधेरे के जैसी ,

समुद्र सिमट आया ,

पा आँख का साया ,

 थे बादल से  सपने ,

हुए ना आज अपने ,

बरसे तो खूब बरसे ,

सन्नाटो के डर से ,

क्यों अकेली आत्मा ,

पूछती परमात्मा ,

कसूर क्या है मेरा ,

चाहा सच का बसेरा ,

रावणो की लंका ,

क्यों न हो आशंका ,

तार तार है सीता ,

 है मन भी आज रीता ,

जब मिला न सहारा ,

तो सब कुछ था हारा,

ज्वार भाटा सा आया ,

जब आँखों का साथ पाया ,

सच निकल पड़ा बूंदबन कर ,

दुनिया के सामने तन कर ,

रोया जब झूठ ही पाया ,

आँखों के हिस्से क्या आया ,

खारा पानी , दर्द ,खुली पलके ,

क्या पाया जिंदगी यूँ जलके ................

जिंदगी में सब सच सामने आता है तो आंसू काफी काम आते है पर आंसू को खुद क्या मिलता है 


डॉ आलोक चांटिया


 ,

Saturday, June 10, 2023

मेरे दर्द , पर जब , कोई मुस्कराता है ,

 मेरे दर्द ,

पर जब ,

कोई मुस्कराता है ,

शायद उसके ,

अंतस का आदमी ,

तभी जी पाता है |

मेरे अँधेरे पर ,

जलता दीपक ,

उनके घर में एक ,

सुकून दे जाता है |

ना जाने कैसी ,

फितरत पाल ली ,

आलोक दुनिया में ,

कोई क्यों आता है ?

जीते है जिसके साथ ,

वही आस्तीन ,

का सांप निकलेगा ,

कौन जान पाता है ................................

 हम अब इतना समय पा ही नहीं पा रहे कि किसी को समझ सके 

आलोक चांटिया

मौत का जतन है .............

 जिंदगी तलाश रहा हूँ ,

तेरे पास आ रहा हूँ ,

कितना सफर है लम्बा ,

न जान पा रहा हूँ ,

कभी धूप की है गर्मी ,

कभी धूप है सुहाती ,

कभी खुद में सिमट कर ,

कभी खुद से बिखर कर ,

बस दौड़ा जा रहा हूँ ,

कभी पास तू है लगती ,

कभी दूर तक न दिखती ,

हर रात रहती आशा ,

साँसों की बन परिभाषा ,

जब खुल कर गगन में ,

उड़ कर जा रहा हूँ ,

तू चील की नजरों से ,

मुझे खोजे जा रही है ,

ये मिलन अधूरा कैसा,

ये सफर कुछ है ऐसा ,

कितना तड़पी जिंदगी है ,

मौत ये कैसी बंदगी है ,

सब जीते आलोक में है ,

अब अँधेरे के लोक में है ,

अब घोसला है खाली,

ये दोनों का मिलन है ,

है जिंदगी एक धोखा ,

ये मौत का जतन है .............

जिंदगी किसी की नहीं पर हम उसे न जाने कितने जतन से जीते है अगर मौत का एहसास कर ले तो कोई क्यों लालच करें ................,

,

Friday, June 9, 2023

पैसा ही सब कुछ है

 कमरो में पैसो से ,

ठंढी हवा आज पैसे से ,

मिलती है ,

पर झोपडी में किलकारी ,

गर्म हवाओ में ,

झुलसती है ,

सुना तुमने भी है ,

पैसा बहुत कुछ है पर ,

सब कुछ नहीं 

भूखे को रोटी मिलती ,

नंगो को कपडा ,

पर सांस तो नहीं ,

गर्मी में जी कर लोग 

स्वर्ग नरक का अर्थ ,

जान रहे है ,

नंगे पैरो से सड़क पर , 

दौड़ते जीवन इसे ,

नसीब मान रहे है ,

अपनी सूखी, झूठी रोटी ,

देकर पुण्य का अर्थ ,

पा रहे है लोग  ,

पानी को तरसते ओठ ,

गरीबी और पानी का ,

क्या सिर्फ संजोग 

मानिये न मानिये आलोक ,

हवा पानी रौशनी ,

पैसे के सब गुलाम है ,

भूख , प्यास , गर्मी से  ,

बिलबिलाते कीड़े से ,

आदमी गरीबी के नाम है ...........................सोचिये और अपने सुख से थोड़ा सुख उन्हें भी दीजिये जो आपकी ही तरह इस दुनिया में मनुष्य बन कर आये है और आप उनको ?????? आलोक चाटिया

हिमालय से निकली गंगा सी जिन्दगी ............

 हिमालय से निकली गंगा सी जिन्दगी ............

शहर से गुजरेगी मैली सी जिन्दगी ...........

कितने भी जतन खेलेंगे सब जिन्दगी ...........

खुद को पाक कर बनायेंगे कोठे सी जिन्दगी .........

हर छूने वालो में अपने को तलाशती जिन्दगी ....

जिन्दगी में खुद से दूर जाती जिन्दगी ...........

मिठास की तलाश में घर छोड़ आई जिन्दगी .........

खुद की लाश को बाचती अब जिन्दगी ............

थक हार के जिन बाहों में समायी जिन्दगी ........

खारी ही सही दागो संग समाती जिन्दगी ........

गंगा से गंगा सागर बनी क्या पाई ये जिन्दगी ............

खुद के मन से ना निकल पड़ना ये जिन्दगी .........

तुझसे अपने पापो को धोने देखो खड़ी हैं जिन्दगी .........................शुभ रात्रि

Thursday, June 8, 2023

और सांसों का अवशेष था

 मेरे पास खोने के लिए , 

इतना कुछ था कि, 

लोग आते गए , 

और लेकर चलते गए , 

पर कोई न देख पाया ,

 न समझ ही पाया , 

कि इन सब के बीच ,

 मैं अब भी शेष था , 

शायद ये मेरी हिम्मत , 

और सांसो का अवशेष था .............................

आप किसी को लूट कर खुश हो सकता है बर्बाद करके खुश हो सकते है लेकिन कटे पेड़ की जड़ से फिर पत्तियां निकल आती है और फिर वो रौशनी और हवा पाती है हा ये बात और है कि फिर से दरख्त बनने में समय लगता है 

डॉ आलोक चान्टिया

Wednesday, June 7, 2023

पेट की आग में हर शर्म जल कर राख हुई

 पेट की आग में हर शर्म जल कर राख हुई ,

घूँघट के अंधेरो में फिर आज बरसात हुई ,

गूंगो की बस्ती में घुंघरू बस बजते ही रहे ,

दर्द से सड़क पर मुलाकात अकस्मात् हुई .................

एक ऐसी लड़की जिस से आज मै ऐसी जगह मिला झा सोचा ना था और अपने अधिकारों से दरकती भारत माँ की भारत पुत्री भारत पुत्रो से तार तार हुई ....क्यों न ऐसे देश पर फक्र जहा घुंघरू की गूंज आज भी है .............जय भारत पाने गरिमा को जानिए ..........डॉ आलोक चान्टिया

मुझ में अकेलेपन का एहसास रहने लगा

 मुझमे अकेलेपन का एहसास रहने लगा .......

सच ये है कि अब साथ कोई रहने लगा ............

माना कि आलोक अंधेरो में नहीं आता ......................

पर एक साया रोज कुछ  कहने लगा ................

यूँ ही जिन्दगी में कब तक उकेरोगे मुझको ..............

कोई तो तेरी जुदाई का दर्द सहने लगा ................

इस दुनिया को मिटटी का खिलौना समझो ..................

साँसों से कोई बदन मुझे जिन्दा कहने लगा ...............

आज बारिश से सुकून पाया कुछ दिल है ......................

तेरे संग भीगने का सगल होने लगा ...............

कौन कहता है भिगोती नहीं आँखे ......................

मेरे दिल से होकर जब वो गुजरने लगा ...........

मुझमे अकेलेपन का एहसास होने लगा ...............

सच ये है कि अब साथ कोई रहने लगा .............................

कैसे कह दूं सुबह मुझे मयस्सर ना हुई

 कैसे कह दूँ सुबह मुझे मयस्सर ना हुई ,

कई कह दूँ पूरब आफ़ताब की ना हुई ,

पर ना जाने क्यों मन में बादल छाये ,

रौशनी तो दिखी पर कही रौशनी ना हुई l

आलोक चांटिया

Sunday, June 4, 2023

दरख्तों के आस पास आँचल का एहसास है ,

 दरख्तों के आस पास आँचल का एहसास है ,

जमीं में उलझी शबनम में ओठो की प्यास है ,

कोई बढ़कर हवाओ की तरह ही लिपट जाये ,

आफताब से प्यार में जैसे बादल के जज्बात है .........................

हर विपरीत परिस्थिति में जीवन से मोह्हबत करना आना चाहिए वरना बादल की क्या मजाल कि वो अपने प्रेम की बहो में सूरज को समेटने की गुस्ताखी करे | यही है आपके अधिकारों के जागने का मन्त्र , अखिल भारतीय अधिकार संगठन .........सुप्रभात

पर्यावरण की दशा

 मुझे काट कर दरवाजो में महफूज होते रहे  ,

मेरी ही छावं में लेट सुकून से तुम सोते रहे ,

जला कर मुझे खुद को रोज जिन्दा रखते हो ,

जान न पाए दरख्त बिन कितने तन्हा होते रहे  ................

आप अपने पुरे जीवन में उतनी आक्सीजन का प्रयोग करते है जितनी दो पेड़ अपने पूरे जीवन में निकालते है तो क्यों नही इस सबसे आसान से ऋण को पृथ्वी  पर जिन्दा रहते हुए ही उतार दीजिये और अपने आस पास दो पेड़ लगा दीजिये ....अखिल भारतीय अधिकार संगठन विश्व पर्यावरण दिवस पर आप से बस यही जाग्रति की उम्मीद करता है

Tuesday, May 23, 2023

आज क्यों लोग मुझे आवारा कह गए

 आज लोग क्यों मुझे 

 आवारा कह गए l

जमीन के टुकड़े बस ,

बंजर से अब रह गए l

न बो सका एक बीज ,

न की कोई ही तरतीब l

पसीने का एक कतरा,

भी नही बहाया मैंने l

ना  तो मैं कभी थका,

और ना ही उतारी  थकान l

आलोक कैसे चुनता अँधेरा ,

फिर कैसे होता सृजन महान l

आज मुझे आवारा कह कर ,

क्यों बादल बना रहे हो ?

धरती की अस्मिता को ,

घाव सा हरा करा रहे हो l

कहते क्यों नहीं तुम्हे ,

अपने सुख की आदत है l

तुम्हारी ख़ुशी के लिए ,

जमी की आज शहादत है l

जी लेने दो हर टुकड़े को ,

बस वही सच्ची इबादत है l.............

आलोक चांटिया 

.पता नहीं क्यों मानव ने संस्कृति बनाने के बाद एक अजीब सी फितरत पाल ली कि अगर लड़का लड़की साथ में है तो सिर्फ एक ही काम होगा या फिर लड़की का मतलब ही सिर्फ एक ही है अगर आप अकेले है तो आप से कोई जरूर पूछ लेगा क्या भाई ???????????कोई मिली नहीं क्या ? अगर किसी के साथ है तो और भाई आज कल तो आपके बड़े मजे है शायद इसी मानसिकता के लिए हमने संस्कृति बनाई ....सोचियेगा जरूर

जाने क्यूं अब शर्म से, चेहरे गुलाब नही होते।

 जाने क्यूं

अब शर्म से, चेहरे गुलाब नही होते।

जाने क्यूं

अब मस्त मौला मिजाज नही होते।

पहले बता दिया करते थे, दिल की बातें।

जाने क्यूं

अब चेहरे, खुली किताब नही होते।


सुना है

बिन कहे 

दिल की बात समझ लेते थे।

गले लगते ही

दोस्त हालात समझ लेते थे।

जब ना फेस बुक थी

ना व्हाटस एप था

ना मोबाइल था

एक चिट्टी से ही

दिलों के जज्बात समझ लेते थे।


सोचता हूं

हम कहां से कहां आ गये।

प्रेक्टीकली सोचते सोचते

भावनाओं को खा गये।

अब भाई भाई से

समस्या का समाधान कहां पूछता है

अब बेटा बाप से

उलझनों का निदान कहां पूछता है

बेटी नही पूछती

मां से गृहस्थी के सलीके।

अब कौन गुरु के चरणों में बैठकर

ज्ञान की परिभाषा सीखे।

परियों की बातें

अब किसे भाती है

अपनो की याद

अब किसे रुलाती है

अब कौन 

गरीब को सखा बताता है

अब कहां 

कृण्ण सुदामा को गले लगाता है

जिन्दगी मे

हम प्रेक्टिकल हो गये है

रोबोट बन गये है सब

इंसान जाने कहां खो गये है

इंसान जाने कहां खो गये है

इंसान जाने कहां खो गये है....

आंखों के बादल से..... कविता

 आँखों के बादल से ,

निकल कुछ बून्द ,

दौड़ पड़ी कपोल ,

तन की धरती पर ,

किसी के मन में ,

हरियाली फैली तो ,

कोई दलदल में डूबा ,

अविरल धारा देख किसी ,

दिल का सब्र था उबा ,

खारा पानी आया कैसे ,

समुद्र कहाँ से टूटा,

नैनो की गहराई में ,

कौन रत्न है छूटा ,

छिपा बादलों में सूरज ,

आलोक नीर ने लूटा ,

....................जब भी दुनिया को पानी की जरूरत हुई है तो आलोक को बादलों में छिपाना पड़ा है या फिर धरती की अटल गहराई के अंधकार से उसे निकलना पड़ा है पर आज दुनिया अँधेरे में नही रहना चाहती इसी लिए उसके आँखों में पानी नहीं रह गया है जब भी कोई रोता  है तो आप मान लीजिये कि उसने मान लिया है कोई सच्चाई (आलोक ) उसके भीतर छिपी  है

Sunday, May 14, 2023

अपने बीजों की तरह...... एक कविता


 बार-बार फूल और कांटे 

पेड़ों के नीचे बैठकर परिंदे 

हमें यह सिखा रहे हैं 

क्यों मानव होकर हम 

दुनिया से जिंदगी का 

नामोनिशान मिटा रहे हैं 

मनोरंजन के खातिर 

जब बर्बाद कर देते हो 

करोड़ों अपने बीजों को 

वैसे ही हंसी खेल में 

एक बीज दरख़्त का 

क्यों नहीं लगा रहे हो 

आलोक चांटिया

Wednesday, May 3, 2023

भूख का एहसास








 

उसको पाने के लिए

 

रात का डर किसको सुबह की आहट में ,
मौत का डर किसको तेरी चाहत में ,
हर इसी को इंतज़ार समय की अंगड़ाई का ,
पैमाने का डर किसको आँखों की राहत में  ........१
जब दामन से तन्हाई लिपट जाती है ,
आँखे खुद ब खुद  छलक आती है ,
डरता हूँ कही कोई देख ना ले मुझको  ,
इसी से हसी ओठो पे मचल जाती है ....................२
खो जाना बेहतर है पाने के लिए ,
चले जाना बेहतर फिर आने के लिए ,
सभी में छिपी है रब की एक सूरत ,
तुझको जीना बेहतर उसको पाने के लिए ...........३
डॉ आलोक चांटिया

Sunday, April 30, 2023

तुम कहो तो हर सांस में आलोक से सवेरा कर दूं

 तुम कह दो तो एक कविता तुम पर लिख दूँ ,

तुम कह दो तो उसमे मन की बात कह दूँ ,

न जाने कितनी तपती रेत गुजरी पैरो  तले,

तुम कह दो तो एक बूंद पानी पर भी  रख दूँ ,

आँखे न बंद करो इतनी बेबसी से ऐसे आलोक ,

तुम कहो तो सपनो का रंग उनमे भी भर दूँ ,

जब आये ही थे खाली हाथ तो इतना दर्द क्यों ,

तुम कहो तो अपनी मुट्ठी में अँधेरा ही बंद कर दूँ ,

जब मिले थे इस दुनिया से क्या याद है तुमको ,

तुम रहो  तो यादो में नन्हा सा एक झरोखा कर दूँ ,

गुमनाम कौन न हुआ यहा चार कंधो पर चल कर ,

तुम कहो तो आज  बस आंसुओ का बसेरा कर दूँ ,

देख लो  बस एक बार जी  भर कर मुझे  जिन्दगी ,

तुम कहो तो हर सांस में   आलोक  से सबेरा कर दूँ

Alok chantia

रोने का अपना अलग द्वंद है

 रात जैसे  जैसे गहराती गई ,

तारो सी जिन्दगी आती गई ,

सुबह तक सूरज सा चमका ,

सांस  अँधेरे में समाती गई |,

पूरी रात जिसकी बाहों में रहा ,

वही समय अब न जाने कहाँ ,

ढूंढता भी रहा फिर पूरब में ,

वो उम्र का लम्हा फिर  वहां|

मौत की बात करने से डरे ,

फिर भी एक दिन हम मरे ,

सच से भागने  की ये आदत ,

इस झूठ  का हम क्या करें |

रिश्तो के बाज़ार में अकेला ,

फिर भी उसी का हर मेला ,

कोई  क्यों बढ़ कर मिला ,

कोई क्यों भावना से खेला |

जिन्दा रहने पर एक भी नही ,

मरने पर चार कंधे का सहारा ,

कोई भी न बैठा मेरे साथ कभी ,

पर आज था सारा जहाँ हमारा |

एक बूंद में छिपी नदी की कहानी ,

एक आंसू में थी बूंद की जवानी ,

कितना बहूँ की समंदर मिल जाये ,

रास्ते की कसक न होती सुहानी |

आलोक को पाकर चाँद भी चमका ,

तारो का भी कुछ संसार था दमका ,

क्यों फिर भी रहा सफ़र अँधेरे में ,

सपनो में जीकर दिल क्यों छमका |

रेत सा जीवन मुट्ठी में बंद है ,

 जीने के चार दिन भी चंद है ,

हस लो तुम जितना भी चाहो ,

रोने का अपना अलग ही द्वन्द है |Alok chantia

Saturday, April 15, 2023

मानव कहां खो गया

 दूर तक फैला सन्नाटा इतना,

 कि सुई गिरने की भी,

 आवाज सुन सकता है कोई, 

ऐसा इसलिए हो रहा था ,

क्या सब की आत्मा है सोई,

 कभी-कभी चिड़ियों की,

 चहचहाहट भी सुनाई पड़ जाती है,

 बंद कमरे में बाहर से ,

 पर आदमी की कोई भी ,

आहट नहीं आती है ,

कहते हैं जानते हैं पूरी दुनिया,

 मानव से भर गई है ,

पर सच यह भी है ,

मानवता कहीं मर गई है,

अब सड़क पर निकलने पर भी,

 शरीर रगड़ खा जाता है ,

 घूर कर देख भी लेते हैं 

आंखों से ही खा जाता है ,

अब आदमी से आदमी ,

बोलना नहीं चाहता है,

 शायद आदमी आदमी को ,

अब नहीं चाहता है ,

सब अपने पीछे अपनी निशानी,

 छोड़ने की जुगत में लगे हैं ,

इसीलिए मां बाप के घर

 लोगों को  छोटे लगने लगे हैं,

 कोयल गाना गा भी लेती है,

 प्रकृति के साथ बैठकर ,

पर आदमी ना जाने किस,

 धुन में रहता है ऐठ कर ,

पैसे की तरह ही वह अपने,

 चारों तरफ बस उन्हीं से ,

बोलता दिखाई देता है ,

जिससे वह कोई फायदा , 

या फिर कोई अपना सुख उससे

अपने जीवन में लेता है ,

वरना ना जाने कितने घर दीवारों के,

 साथ अकेलेपन से जूझ रहे हैं ,

बूढ़ी होती सांसे थके हुए कदम,

 किसी अपने के होने की ,

कमी से डूब रहे हैं ,

मीठे कौन कहे नमकीन बोल भी,

 अब नहीं बोले जाते हैं,

 बंद दरवाजे न जाने कितने,

 समय बाद खोले जाते हैं,

 कभी-कभी बंद दरवाजों के,

 पीछे ही बंद हो जाती है ,

किसी एक दिल की धड़कन 

चुपचाप अंधेरे में खो जाती है 

 क्योंकि चिड़ियाघर के पिंजड़े की तरह,

 उसमें आदमी रहने लगा है ,

कल की भविष्य की बात करके

अपने में सिमटकर वह डरने लगा है,

 वह जानता भी नहीं अंत 

अपने अंदर के इस शोर का,

किस तरफ जा रहा है मानव,

इंतजार है किस भोर का ।


आलोक चांटिया

Tuesday, April 11, 2023

पेड़ का दर्द

 शहर में उगने की तुमने 

जो जुगत पाल ली थी 

अपनी तरह से जीने की 

एक आरजू डाल ली थी

 पर शायद तुम्हें नहीं मालूम था 

आधुनिकता का जहर एक दिन 

तुमको भी पिलाया जाएगा 

तुम्हारे हिस्से में मिट जाने 

कट जाने का सबब आएगा 

अच्छा लगता है अभी भी 

तुम्हारा यह साहस देख कर 

कि एक दिन तुम्हारा

 लौटकर फिर आएगा 

लेकिन शहर की संस्कृति में

 तुम शायद यह भूल गए 

सड़क चौड़ी करने में तुम्हें

 जड़ से उखाड़ आ जाएगा 

गांव जंगलों को छोड़कर 

शहरों में निकलने का कुछ 

दर्द तो तुम्हारे हिस्से भी आएगा 

आदमी तुम्हें मार कर काट कर ही

 अपने होने एक कहानी लिख पाएगा 

शिव से हटकर तब तक तुम को काटेगा 

जब तक खुद भस्मासुर  नहीं बन जाएगा


आज चौड़ी होती सड़कों पर कटे पेड़ को देखकर जो लाइने मेरी दिमाग में उस दिन वह आप को समर्पित है 

डॉ आलोक चांटिया




अब तो दरख़्त का माहौल भी ना रहा



 

Monday, March 27, 2023

हम भारत के लोग

 

#काव्यमंचमेघदूत

हम भारत के लोग ,
हम भारत के लोग |
जमीं नही इसको हम माने,
माँ कहने का मतलब जाने ,
बटने नही देंगे अब इसको ,
हम भारत के लोग, हम भारत के लोग .....
भाई बहन बन कर हम रहते ,
दुनिया को भी आपना कहते ,
रिश्तो के खातिर यहा पर ,
पल पल जीते है लोग ..........
हम भारत के लोग ..हम भारत के लोग ...
दुनिया पूरी परिवार सी लगती ,
संस्कृति अनूठी शान है रखती ,
मूल्यों की खातिर यहा पर ,
कट मरते है लोग .....
हम भारत के लोग ...हम भारत के लोग ...
कहा गए वो सब लोग ,
खो क्यों गए वो लोग ,
भटक गए हम सब आज यू,
क्यों भारत के लोग ...
हम भारत के लोग ...हम भारत के लोग ....
इस गीत को लिखते समय मेरे मन में सिर्फ यही ख्याल था कि हम किस भारत की बात करना चाहते है .....डॉ आलोक चांटिया

Thursday, March 23, 2023

मां

 

मैं जानता हूं मेरे अस्तित्व के लिए

तेरा बदलना जरूरी है

कोई क्या जाने शक्ति की

कितनी मजबूरी है

सृजन के पथ पर चलना

आसान नहीं आलोक

9 दिन 9 माह का पथ

एक तपती दुपहरी है

तुम बच भी जाओगे

प्रकृति कह कर मुझे

पर एक मां ही अपने

बच्चों की सच्ची प्रहरी है

आलोक चांटिया

Tuesday, March 21, 2023

जीवन के अर्थ


 इस जीवन की चादर में,

सांसों के ताने बाने हैं,

दुख की थोड़ी सी सलवट है,

सुख के कुछ फूल सुहाने हैं।


क्यों सोचे आगे क्या होगा,

अब कल के कौन ठिकाने हैं,

ऊपर बैठा वो बाजीगर ,

जाने क्या मन में ठाने है।


चाहे जितना भी जतन करे,

भरने का दामन तारों से,

झोली में वो ही आएँगे,

जो तेरे नाम के दाने है।

Saturday, March 18, 2023

बदनामी राजस्थान पत्रिका समाचार में प्रकाशित कविता

 बदनामी


हिल गया मेरा,

 प्रतिबिंब,

 एक कंकड़ के,

 गिरने भर से,

 श्वेत पारदर्शी ,

जल से जीवन में ,

मेरे ही सामने ,

मेरा रूप आकार ,

लुप्त हो गया,

मेरे ही जीवन में,

 पर मैं बैठा रहा ,

और समय के साथ ,

फिर स्थिर,

 प्रतिबिंब उभरा,

 लेकिन ,

अभी शेष था एहसास,

 उस कंकड़ का ,

जिसने मिटाया था ,

मेरा पहला चित्र,

 समय के अंतस में ,

मेरी शून्यता भरकर ।


आलोक चांटिया

इंतजार राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित कविता

 इंतजार


सब कुछ डूबा,

 सा जाता है,

अस्ताचल की ओर ।

 कितना भी चाहो,

 पर डूबना ,

जब शाश्वत हो,

तो भला,

 प्रयास भी किस ,

अर्थ का सिवाय इसके,

 कि अपनी पथराई,

 स्थिर आंखों से ,

हाथ पर हाथ धरे ,

बस पूरब की तरफ ,

रात भर की ,

कालिमा के साथ ,

देखते रहे जब,

 वहां से फिर लाली छाए,

 पक्षी चहचहाये  ,

अपना गाना गाए ,

और दुख से टूटे ,

शरीर की थकान एक,

 अंगड़ाई के साथ ,

दूर कर मै ,

निकल निकल पड़ू,

 इस प्यारी अनूठी ,

सुबह का स्पर्श लपेट ,

किसी तरफ उजाले का,

 रंग रूप देखने ,

क्षणिक जीवन में ,

अमर मुस्कान के लिए ,

अपनी फिर से ,

एक पहचान के लिए ।


आलोक चांटिया राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित

पेड़ का जीवन

 बीज से फूटा,

 नन्हा सा पौधा ,

आज वृक्ष बना है ।

दिल में संजोए,

 किसी को छाया,

 किसी को चारा,

 कभी मधुमिता,

 पवन का स्पर्श ,

देने का सपना।

 सबके बीच ,

हंसने जीने का सपना।

 खटाई । खटाई ।

 आप सपनों को,

 चूर करती कुल्हाड़ी ,

सब कुछ खत्म करती हुई।

 लेकिन अभी भी ,

शेष एक सपना ,

कट कर भी वह 

उपयोगी रहेगा ।

 लोगों के जीवन को ,

देकर अपना जीवन ,

आलोक सहयोगी रहेगा ।

आलोक चांटिया

नदी

 अपने अल्हड़ 

यौवन में बहती नदी,

 अपने को ,

समुद्र में समा,

 खो जाती है ।

शेष रहता है ,

उसके जन्म से,

 समुद्र तक,

 चलने का रास्ता ।

डूब कर जिसमें,

 अक्सर लोग,

 अपनी प्यास बुझा लेते हैं।

आलोक चांटिया