शहर में उगने की तुमने
जो जुगत पाल ली थी
अपनी तरह से जीने की
एक आरजू डाल ली थी
पर शायद तुम्हें नहीं मालूम था
आधुनिकता का जहर एक दिन
तुमको भी पिलाया जाएगा
तुम्हारे हिस्से में मिट जाने
कट जाने का सबब आएगा
अच्छा लगता है अभी भी
तुम्हारा यह साहस देख कर
कि एक दिन तुम्हारा
लौटकर फिर आएगा
लेकिन शहर की संस्कृति में
तुम शायद यह भूल गए
सड़क चौड़ी करने में तुम्हें
जड़ से उखाड़ आ जाएगा
गांव जंगलों को छोड़कर
शहरों में निकलने का कुछ
दर्द तो तुम्हारे हिस्से भी आएगा
आदमी तुम्हें मार कर काट कर ही
अपने होने एक कहानी लिख पाएगा
शिव से हटकर तब तक तुम को काटेगा
जब तक खुद भस्मासुर नहीं बन जाएगा
आज चौड़ी होती सड़कों पर कटे पेड़ को देखकर जो लाइने मेरी दिमाग में उस दिन वह आप को समर्पित है
डॉ आलोक चांटिया
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