अपनी सारी कठोरता ,
अकड़ नीरसता सूखेपन को,
एक बीज तब समझ पाया,
जब वह मिट्टी की अतल,
गहराइयों का स्पर्श और ,
नमी को अपने अंदर समाता पायाl
मिट्टी ने उसको उसका ,
असली चेहरा दिखाया था,
कितने सुंदर सुंदर रंग के फूल ,
उसमे छिपे हैं उसको अंकुरण के लिए,
उत्साहित करके बताया था l
छोटी-छोटी कोमल पत्तियों और,
फल के साथ दुनिया में,
वह कितना सम्मान पा सकता है,
लोगों के कितने करीब आ सकता है?
बीज को मिट्टी ने अपने ,
संपर्क से यही समझाया था l
ना जाने क्यों मानव ,
इस दर्शन से कोसों दूर जा चुका है l
मिट्टी का शरीर उसका भी है,
अपने अंदर के बीज को,
वह न जाने कहां मार चुका है l
मिट्टी चाहती है आज भी,
अपने शरीर के अंदर उन सारे,
तत्वों को चुन चुन कर,
इस दुनिया में निकालना l
जिसके अंदर जियो और,
जीने दो का सुंदर सार है ,
जानवरों से आदमी को,
थोड़ा और ऊंचा उठाना l
क्या मानव आज भी अपने ,
शरीर को जानता है ?
मिट्टी का ही है वह भी,
क्या आलोक यह मानता है !
आलोक चांटिया
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