Sunday, July 16, 2023

कविता द्वारा डॉक्टर आलोक चांटिया

 जो भी देखा आँखों से देखा .....

ये किसको सच तुम मान रहे ........

आकाश का रंग काला ही होता ....

पर उसको भी नीला मान रहे ......

आँखों का क्या जब रेत को देखे ...........

पानी का भ्रम पैदा कर देती है  ............

तड़प तड़प कर पथिक है मरता .....

रेगिस्तान भेज जब देती है .........

आँख की भाषा पड़कर जब ....

प्रेम किसी को लगता है ......

सूनी आँखों में विरह था वो .....

जो राधा को विकल करता है .....

आज फिर न कर लो आलोक ........

विश्वास इन बेवफा आँखों पर ........

देश नहीं हाहाकार  बढ रहा ........

प्रगति विनाश की राखो पर .......


आँखों से नहीं बल्कि सच को खुद जानने की कोशिश करिए ताकि देश को सही हाथो में देकर हम अपने कल को खुद सुनिश्चित कर सके ..........

आलोक चांटिया

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