दूर तक फैला सन्नाटा इतना,
कि सुई गिरने की भी,
आवाज सुन सकता है कोई,
ऐसा इसलिए हो रहा था ,
क्या सब की आत्मा है सोई,
कभी-कभी चिड़ियों की,
चहचहाहट भी सुनाई पड़ जाती है,
बंद कमरे में बाहर से ,
पर आदमी की कोई भी ,
आहट नहीं आती है ,
कहते हैं जानते हैं पूरी दुनिया,
मानव से भर गई है ,
पर सच यह भी है ,
मानवता कहीं मर गई है,
अब सड़क पर निकलने पर भी,
शरीर रगड़ खा जाता है ,
घूर कर देख भी लेते हैं
आंखों से ही खा जाता है ,
अब आदमी से आदमी ,
बोलना नहीं चाहता है,
शायद आदमी आदमी को ,
अब नहीं चाहता है ,
सब अपने पीछे अपनी निशानी,
छोड़ने की जुगत में लगे हैं ,
इसीलिए मां बाप के घर
लोगों को छोटे लगने लगे हैं,
कोयल गाना गा भी लेती है,
प्रकृति के साथ बैठकर ,
पर आदमी ना जाने किस,
धुन में रहता है ऐठ कर ,
पैसे की तरह ही वह अपने,
चारों तरफ बस उन्हीं से ,
बोलता दिखाई देता है ,
जिससे वह कोई फायदा ,
या फिर कोई अपना सुख उससे
अपने जीवन में लेता है ,
वरना ना जाने कितने घर दीवारों के,
साथ अकेलेपन से जूझ रहे हैं ,
बूढ़ी होती सांसे थके हुए कदम,
किसी अपने के होने की ,
कमी से डूब रहे हैं ,
मीठे कौन कहे नमकीन बोल भी,
अब नहीं बोले जाते हैं,
बंद दरवाजे न जाने कितने,
समय बाद खोले जाते हैं,
कभी-कभी बंद दरवाजों के,
पीछे ही बंद हो जाती है ,
किसी एक दिल की धड़कन
चुपचाप अंधेरे में खो जाती है
क्योंकि चिड़ियाघर के पिंजड़े की तरह,
उसमें आदमी रहने लगा है ,
कल की भविष्य की बात करके
अपने में सिमटकर वह डरने लगा है,
वह जानता भी नहीं अंत
अपने अंदर के इस शोर का,
किस तरफ जा रहा है मानव,
इंतजार है किस भोर का ।
आलोक चांटिया
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