माना की आज मन हताश है ,
पर बंजर में भी एक आस है l
चला कर तो एक बार देख लो ,
अपाहिज में चलने की प्यास है l
कह कर मुझे मरा क्यों हँसते,
यह भी लीला उसकी रास है l
लौट कर आऊंगा या नही मैं ,
क्या पता किसको एहसास है l
लेकिन ये सच कैसे झूठ कहूँ ,
मौत के पार भी कोई प्रकाश है l
आओ बढ़ कर उंगली थाम लो ,
हार कर भी मुझमे उजास हैl
पागल मुझको कहकर खुद ही ,
देखो आज वो किसकी लाश है l
आज कर लो जो मन में है कही ,
जाते हुए न कहना मन निराश है l
सभी को नही मिलता आदमी यहां,
आज जानवरों का यही परिहास है l आलोक चांटिया
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