Sunday, September 17, 2023

मानवता के उसे पार poem by Alok chantia

 अनगिनत धमनी शिरा का ,

जाल खून से लथपथ कुछ,

 मांस के लोथड़े और कठोर,

 हड्डियों के ऊपर बना हुआ ,

एक कोमल चेहरा झील सी ,

आंखें मांसल कपोल ही ,

किसी को आकर्षित करता है l

भला ऊपरी चेहरे से इतर ,

कौन भीतर की चेहरे की ,

बात आलोक करता है ?

श्वेद बूंदों से और खेत की ,

मिट्टी से सने हुए कपड़ों के बीच, 

झांकती हुई हड्डियां और ,

धूप की रोशनी से काले पड़ गए,

 तन मे कौन सुंदरता खोजता है ?

 बस उनकी मेहनत से मिट्टी को ,

तोड़कर निकले हुए अनाज के ,

बीजों में ही हर कोई डूबता है !

न जाने क्यों सच से ,

हर कोई सच में उबता है  ?

फिर भी मानवता परोपकार की ,

ना जाने कितनी कहानियां कहता है l

रोज रह जाता है किसी के ,

घर में अंधेरा बिना जला हुआ चूल्हा ,

और भूख से सो गए बच्चों का ,

एक लंबा सिलसिला लेकिन ,

एक झूठ मिल जाता है हंसता हुआ ,

और खिला खिला बोलता भी है ,

जोर-जोर से हम सब एक हैं !

कोई भी अंतर नहीं है हम सब में ,

अनेकता में एकता का दर्शन जीकर ,

वह लोकप्रिय भी बन जाता है पर ,

भला उस आदमी के अंदर ,

जकड़ा हुआ गुलाम आदमी ,

कब कहां कौन देख पाता है ?

चेहरे के अंदर का खून,

 धमनी में बंधा हुआ चेहरा ,

तेजाब से जला हुआ चेहरा, 

कहां किसे आकर्षित कर पाता है ?

आदमी अक्सर सच से दूर रोज ,

एक झूठ जी जाता है ,

एक झूठ जी जाता है ,

अंधेरे में खड़ा आलोक सा जीवन

मुट्ठी में सिर्फ रेत पाता हैl

मुट्ठी में सिर्फ रेत पाता है

 आलोक चांटिया

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