अनगिनत धमनी शिरा का ,
जाल खून से लथपथ कुछ,
मांस के लोथड़े और कठोर,
हड्डियों के ऊपर बना हुआ ,
एक कोमल चेहरा झील सी ,
आंखें मांसल कपोल ही ,
किसी को आकर्षित करता है l
भला ऊपरी चेहरे से इतर ,
कौन भीतर की चेहरे की ,
बात आलोक करता है ?
श्वेद बूंदों से और खेत की ,
मिट्टी से सने हुए कपड़ों के बीच,
झांकती हुई हड्डियां और ,
धूप की रोशनी से काले पड़ गए,
तन मे कौन सुंदरता खोजता है ?
बस उनकी मेहनत से मिट्टी को ,
तोड़कर निकले हुए अनाज के ,
बीजों में ही हर कोई डूबता है !
न जाने क्यों सच से ,
हर कोई सच में उबता है ?
फिर भी मानवता परोपकार की ,
ना जाने कितनी कहानियां कहता है l
रोज रह जाता है किसी के ,
घर में अंधेरा बिना जला हुआ चूल्हा ,
और भूख से सो गए बच्चों का ,
एक लंबा सिलसिला लेकिन ,
एक झूठ मिल जाता है हंसता हुआ ,
और खिला खिला बोलता भी है ,
जोर-जोर से हम सब एक हैं !
कोई भी अंतर नहीं है हम सब में ,
अनेकता में एकता का दर्शन जीकर ,
वह लोकप्रिय भी बन जाता है पर ,
भला उस आदमी के अंदर ,
जकड़ा हुआ गुलाम आदमी ,
कब कहां कौन देख पाता है ?
चेहरे के अंदर का खून,
धमनी में बंधा हुआ चेहरा ,
तेजाब से जला हुआ चेहरा,
कहां किसे आकर्षित कर पाता है ?
आदमी अक्सर सच से दूर रोज ,
एक झूठ जी जाता है ,
एक झूठ जी जाता है ,
अंधेरे में खड़ा आलोक सा जीवन
मुट्ठी में सिर्फ रेत पाता हैl
मुट्ठी में सिर्फ रेत पाता है
आलोक चांटिया
No comments:
Post a Comment