इंतजार
सब कुछ डूबा,
सा जाता है,
अस्ताचल की ओर ।
कितना भी चाहो,
पर डूबना ,
जब शाश्वत हो,
तो भला,
प्रयास भी किस ,
अर्थ का सिवाय इसके,
कि अपनी पथराई,
स्थिर आंखों से ,
हाथ पर हाथ धरे ,
बस पूरब की तरफ ,
रात भर की ,
कालिमा के साथ ,
देखते रहे जब,
वहां से फिर लाली छाए,
पक्षी चहचहाये ,
अपना गाना गाए ,
और दुख से टूटे ,
शरीर की थकान एक,
अंगड़ाई के साथ ,
दूर कर मै ,
निकल निकल पड़ू,
इस प्यारी अनूठी ,
सुबह का स्पर्श लपेट ,
किसी तरफ उजाले का,
रंग रूप देखने ,
क्षणिक जीवन में ,
अमर मुस्कान के लिए ,
अपनी फिर से ,
एक पहचान के लिए ।
आलोक चांटिया राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment