सोचता हूँ कितना समय ,
कब कहां और क्यों खो गया ?
देखता हूँ अब समुंदर ,
कुछ और ज्यादा उठ गया !
कुछ और खारा हो गया ,
जिंदगी से दूर हो गयाl
सोचता हूँ समय को ,
लेकर मैं क्यों न चल सका ?
देखता हूँ बाल सारे ,
काले मैं न रख सका l
बिना छड़ी ना चल सका,
समय मेरे लिए नहीं रुकाl
सोचता हूँ और कितना,
समय अब मुट्ठी में है ?
देखता हूँ जो कल हसे थे ,
दिलों में मेरे बसे थे l
सपने लिए थे वो ,
आज चिताओं पर सोए हैं ,
या मिटटी में खोए हैं l
पूछता हूँ खुद से यही ,
क्यों नहीं समझा समय ?
जानते थे जब सभी ,
एक सा रहता नहीं समय l
डॉआलोक चांटिया
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