बदनामी
हिल गया मेरा,
प्रतिबिंब,
एक कंकड़ के,
गिरने भर से,
श्वेत पारदर्शी ,
जल से जीवन में ,
मेरे ही सामने ,
मेरा रूप आकार ,
लुप्त हो गया,
मेरे ही जीवन में,
पर मैं बैठा रहा ,
और समय के साथ ,
फिर स्थिर,
प्रतिबिंब उभरा,
लेकिन ,
अभी शेष था एहसास,
उस कंकड़ का ,
जिसने मिटाया था ,
मेरा पहला चित्र,
समय के अंतस में ,
मेरी शून्यता भरकर ।
आलोक चांटिया
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