अपने अल्हड़
यौवन में बहती नदी,
अपने को ,
समुद्र में समा,
खो जाती है ।
शेष रहता है ,
उसके जन्म से,
समुद्र तक,
चलने का रास्ता ।
डूब कर जिसमें,
अक्सर लोग,
अपनी प्यास बुझा लेते हैं।
आलोक चांटिया
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