तन्हाई से निकल कभी जब शोर का आंचल पाता हूँ ,
समंदर की लहरों सा विचिलित खुद को ही पाता हूँ ,
निरे शाम में डूबे शून्य को पश्चिम तक ले जाता हूँ ,
भोर की लाली पूरब की खातिर भी मैं ले आता हूँ ,
पर जाने क्यों मन का आंगन सूना सूना नहाता है ,
पंखुडिया से सजे सेज तन मन को कहा सुहाता है ,
तुम नीर भरी दुःख की बदरी मै बदरी ने नाता हूँ ,
तेरे जाने की बात को सुन कफ़न बना मै जाता हूँ ,
एक दिन न जाने क्यों आने का मन फिर करेगा ,
पर क्या जाने भगवन मेरे दिल उसका कब हरेगा ,
मौत यही नाम है उसका आलोक के साथ मिली है ,
जिन्दगी की तन्हाई से अब तो साँसों का तार तरेगा ,................................जितना पशुओ का समूह एक साथ दिखाई देता है और जब कोई हिंसक पशु आक्रमण करता है तो सब अपनी जान बचने में लगे रहते है .वैसे ही आज के दौर में मनुष्य देखने में सबके साथ है पर अपनी जिन्दगी की हिंसक ( भूख , प्यास , महंगाई , बेरोजगारी , आतंकवाद ) स्थिति आने पर वह बिलकुल ही अकेला होता है ...................सच में मनुष्य एक सामजिक जानवर से ऊपर नही .....................
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