Friday, December 27, 2019

मैं जिसको उस मोड़ पर


मैं जिसको उस मोड़ पर ,
मानो ना मानो ,
छोड़ आया हूँ ,
और कुछ भी नहीं बस ,
वो मेरा कल जिसे ,
उम्र बना लाया हूँ |
लोग कहते है अब मुझे ,
कुछ बदल से गए हो ,
आलोक इस तरह ,
क्या कहूं उनसे भी ,
कुछ भी नहीं बदला ,
सिवा इस उम्र की तरह ..........
Alok Chantia
अखिल भारतीय अधिकार संगठन

जब भी मैं आवाज देता हूं

जब भी मैं आवाज देता हूं तुम्हें बोलना गवारा नहीं होता
शायद तुम्हें समझा ना पाऊं हर कोई दुनिया में आवारा नहीं होता
आलोक चांटिया
2
जानते सभी है रात होना ही है
पर तारों की तलब कितनो को है
आलोक चान्टिया
3
क्यों दूर तक सोचने की आदत पाल ली
आँखों ने आलोक कब सारी दूरी जान ली
आलोक चान्टिया
4
चलो आज एक जिद पाल लेते हैं
रास्ता लम्बा कितना जान लेते हैं आलोक चान्टिया

तुम समझ ही ना पाये


तुम समझ ही ना पाये ,
कि हम यहाँ क्यों आये ?
बस समझते रहे ,
सुबह से शाम तक ,
जिन्दा रहने को ,
आखिर किससे कहे ,
यूँ तो मानते हो ,
तुम कुछ अलग हो ,
उन सब से ज्यादा ही ,
पर वो भी भाग रहे ,
तुम भी भाग रहे ,
जानवरो से ज्यादा ही ,
क्या आलोक नहीं है ,
जिंदगी में तुम्हारी ,
पीछे क्या रह जायेगा ,
जिंदगी के बाद हमारी ..................अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Tuesday, December 17, 2019

रात रावन की भी थी और राम की भी

रात रावन की भी थी और राम की भी ...................दिन रावन का भी है और राम का भी ..................दोनों चलेंगे कर्म के पथ पर पुर जोर ....................तय खुद से करो तुम चलोगे किस ओर....................क्यों कि दिन तुम्हारा भी है और हमारा भी .........शोहरत मेरी भी है और तेरी भी है ....................जाना ही है जब दुनिया से आलोक ...............तय खुद से करो क्या बनना तुम्हे इस लोक .....................मन में अजीब सी उलझन है क्योकि मैं समझ नही पा रहा कि जो लोग इस दुनिया में आये हैं वो रावन का जीवन क्यों ज्यादा पसंद कर रहे है

Wednesday, December 11, 2019

# जाड़ा


# जाड़ा
मुझे भी जीने दो ...........
कूड़े की गर्मी से ,
जाड़े की रात ,
जा रही है ,
पुल पर सिमटे ,
सिकुड़ी आँख ,
जाग रही है ,
कमरे के अंदर ,
लिहाफ में सिमटी ,
सर्द सी ठिठुरन ,
दरवाजे पर कोई ,
अपने हिस्से की ,
सांस मांग रही है ,
याद करना अपनी ,
माँ का ठण्ड में ,
पानी में काम करना ,
खुली हवा में आज ,
जब तुम्हारी ऊँगली ,
जमी जा रही है ,
क्यों नहीं दर्द ,
किसी का किसी को ,
आज सर्द आलोक ,
जिंदगी क्यों सभी की ,
बर्फ सी बनती ,
पिघलती जा रही है ...................
आप अपने उन कपड़ों को उन गरीबों को दे दीजिये जो इस सर्दी के कारण मर जाते है हो सकता है आपके बेकार कपडे उनको अगली सर्दी देखने का मौका दे , क्या आप ऐसे मानवता के कार्य नहीं करना चाहेंगे ??????? विश्व के कुल गरीबों के २५% सिर्फ आप के देश में रहते है इस लिए ये मत कहिये कि ढूँढू कहाँ ?????? अखिल भारतीय अधिकार संगठन

घर के बाहर , अक्सर दो चार


घर के बाहर ,
अक्सर दो चार ,
रोटी फेंकी जाती है ,
कभी उसको ,
गाय खाती है ,
कभी कुत्ते खाते,
मिल जाते है ,
घर के बाहर ,
खड़ा एक भूखा ,
आदमी भूख की ,
गुहार लगाता है ,
उसे झिड़की ,दुत्कार ,
नसीहत मिलती है ,
पर वो घर की ,
रोटी नहीं पाता है .....................
जब आपके पास रोज घर के बाहर फेकने के लिए रोटी है तो क्यों नहीं रोज दो तजि रोटी किसी भूखे को खिलाना शुरू कर देते है क्या मानवता का ये काम आपको पसंद नहीं कब तक गाय और कुत्तो को रोटी खिलाएंगे , ये मत कहियेगा जानवर वफादार होता है , आप बस घर के बाहर पड़ी रोटी पर सोचिये ...........अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Monday, December 9, 2019

अंधेरे कासीना चीर

अंधेरे का सीना चीर जब सूरज सामने आता है
सुबह उसका नूर आलोक किसे नहीं भाता है

रौशनी का जरा सा साथ

रौशनी का जरा सा साथ ..............पाकर कली खिल तो गयी ..............पर पश्चिम का हुआ नही सूरज ...............कि देखो मिटटी में मिल गयी ................रात को कहा तरस आता है ................. उसे बंद आंख में मजा आता है .....................तुम  सपने  की आदत डाल लो ...............वरना सच में कोई सो जाता है .................... अगर आप ने बुरे के साथ जीना नही सिखा तो वह आपको ख़त्म कर देगा ..............इसी लिए रात में सोने का अपना मजा है ....तो चलिए कहिये शुभ रात्रि

रात गयी बात भी गयी

रात गयी बात भी गयी ..............लेकर सपनो की बारात गयी ................रोक भला कौन पाया है उसको ....................आराम की हर अब बात गयी ................लेकिन अपने पीछे जो छोड़ा ....................वो देकर पूरब का साथ गयी .............देखो कैसा चमक रहा सूरज है .....................आलोक से नहलाने के बाद गयी ......................ऐसा नही है कि जीवन में सब कुछ ख़राब ही होता है ...रात जब जाती है तो कालिमा सपनो से दूर हमको हमरी मंजिल  , सूरज के साथ छोड़ जाती है तो फिर कहिये सुप्रभात

ये देश अब मरा मरा रटने लगा है

ये देश अब मरा मरा रटने लगा है ,
राम का शहर कैसा लगने लगा है ,
क्यों रत्नाकर पैदा हो रहे हर तरफ?
बाल्मीकि बनने से मन हटने लगा है l
आलोक चान्टिया

आज की सुबह कुछ तंग है

आज की सुबह कुछ तंग है ........
परेशान थोडा कोहरे के संग है ..........
.जुटी है जतन से बाहर के लिए ......
क्योकि पूरब का अपना ही रंग है .....
कुहासा का भी जीवन अपना है .....
उसका भी कोई तो सपना है .....
आज सूरज से उसकी जंग है ....
जीने का उसका अपना ही ढंग है .....
आप जीवन को यह समझ कर कि उसमे परेशानी  नहीं आनी चाहिए जीते है पर सूरज को क्या कम  परेशानी है बादल कोहरा सबका सामना करके वह हमारे बीच  मैं है यही असली जीवन का दर्शन

घनीभूत पीड़ा को लेकर

घनीभूत पीड़ा को लेकर आता नही है कौन यहाँ ..............हर पल पीड़ा में रह कर जीता नही है कौन यहाँ .............पीड़ा को देकर ही बीज फूटता धरती को कर विकल ...................पीड़ा ही अंतिम सत्य दर्द को  समझा नही कोई यहाँ ...................पीड़ा को  तुम गले लगाकर हस सकते हर मोड़ पर ................आलोक को  फैला सकते हो अपनी कर्मो के छोर पर ...............सुप्रभात

चारों तरफ मोती , बिखरे रहे मैं ही

चारों तरफ मोती ,
बिखरे रहे मैं ही ,
पपीहा न बन पाया ,
स्वाति को न देख ,
और न समझ पाया ,
मानव बन कर ,,
भला मैंने क्या पाया ?
ना नीर क्षीर ,
को हंस सा कभी ,
अलग ही कर पाया ,
ना चींटी , कौवों ,
की तरह ही ,
ना ही श्वानों की ,
तरह भी ,
संकट में क्यों नहीं ,
कंधे से कन्धा मिला ,
लड़ क्यों ना पाया ,
मैंने मानव बन ,
क्यों नहीं पाया ?
सोचता हूँ अक्सर ,
मानव सियार क्यों ,
नहीं कहलाया ,
हिंसक शेर , भालू ,
विषधर क्यों ,
नहीं कहलाया ?
अपनों के बीच ,
रहकर उनको ही ,
खंजर मार देने के ,
गुण में कही मानव ,
जानवरों से इतर ,
मानव तो नहीं कहलाया ............मुझे नहीं मालूम कि क्यों मनुष्य है हम और किसके लिए है हम कोई कि अगर आपको जरूरत है है तो तो आप किसी मनुष्य के बारे में जानने की कोशिश करते भी है कि वो जिन्दा है या मर गया वरना आप किसी दूसरे मनुष्य में अपना मतलब ढूंढने लगे रहते है | मैं भी इसका हिस्सा हूँ मैं किसी को दोष नही दे रहा बस समझना चाहता हूँ कि जानवर के गुण तो हमें पता है पर हम!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!आज मैं ?????? आलोक चांटिया

मानव ..........

अखिल भारतीय अधिकार संगठन विश्व मानवाधिकार दिवस की पूर्व संध्या पर ये विचार करना जरुरी है कि क्यों मानव को अधिकारों की जरूरत पड़ी क्या वो भटक गया है .हम किस मानव के अधिकारों के लिए चिंतित है.............
मानव ..........
कही कुछ आदमी ,
मिल जाये तो ,
मिला देना मुझ से l
दो पैरों पर ,
चलने वाले क्या ,
मिट गए जमी से l
जीते रहते ,
खुद की खातिर ,
जैसे गाय और भालू l
रात और दिन ,
बस खटते रहते,
भूख कहाँ मिटा लूँ ?
कभी तो निकलो ,
अपने घर से ,
चीख किसी की सुनकर l
कुचल जाएगी पर ,
निकलती चीटीं ,
हौसला मौत का चुनकर l
राम कृष्णा ,
ईसा, मूसा की बातें ,
क्या कहूँ किसी से ?
चल पड़े जो ,
इनके रास्तों पर ,
ढूंढो उसे कही से ?
मिल जाये कही ,
जो कुछ आदमी ,
जरा मिला दो मुझ से l
जो फैलाये आलोक ,
अँधेरा करें दूर ,
मानव अधिकार उन्ही से l

.......................क्या आप ऐसे आदमी बनने की कोशिश करेंगे ???????????????///////, आलोक चांटिया

Sunday, December 1, 2019

हाथ छुड़ा कर चली रात जब

हाथ छुड़ा कर चली रात जब ...................नींद को छोड़ खुली आँख तब ...........जो देखा वो मन को भाया.................पूरब मिलने मुझसे था आया ..............अन्जाना वो भी न मुझसे ................पर लगा उसे आज ही पाया ............भरी चपलता चाल में मेरी .............आलोक का स्पर्श कुछ ऐसा छाया ........................प्रेम की अपनी दास्ताँ है और उसे समझना किसी के बस में नही है पर ऐसा लगता है कि हम अपनी जरूरत के अनुसार प्रेम करते है .कभी रात के कभी दिन के किसी एक के होकर रहना हमारी फितरत नही है पर सोच तो सकते है ना तो चलिए कह ही देते हैं सुप्रभात

रात अब गहराने लगी है

रात अब गहराने लगी है .............काजल सी मुस्काने लगी है ..............सुंदर लगने लगे सपने आँखों में ......................पलकों के दरवाजे छिपाने लगे है ...................मैं भी आना चाहता हूँ एक बार ....................आलोक में काले बादल छाने लगे है ................ बरसेंगे आज फिर सन्नाटे में भरपूर ..................सिलवटो के राज फिर आने लगे है ........................ रात आपको अपने से मिलने का भरपूर मौका देती है .....क्या आप कभी अपने से मिले ......नही तो कहिये जल्दी से शुभ रात्रि

Saturday, November 30, 2019

आँख मिचौली का खेल चल रहा........

आँख मिचौली का खेल चल रहा न जाने कब से .........................कभी रात तो कभी दिन के होते हम तब से .......................पर नींद में लाती ररत सपनो का जीवन ......................... और मिला देता है पूरब हकीकत को सब से ............................कितना सुंदर है खेल देख लो प्रकृति का .....................कुम्हार के चाक सी प्रयास आकृति का .............तुम और कौन नही हिस्सा इसकी संस्कृति का ....................सूरज में आलोक है आया परिणाम इसी की कृति का ......................इतनी अद्भुत प्रकृति के खेल को अगर हम नही समझ रहे है तो फिर क्यों और किस अर्थ में हम मनुष्य है

जीवन का स्वर चुप हो रहा है

जीवन का स्वर चुप हो रहा है ...............देखिये अब सारा शहर सो रहा है .................सर्द है रातें खुद जिन्दगी की तलाश में ..................कोई मेरा अपना सपनो में खो रहा है .................. ये कैसी आरजू है ऋतु से तुम्हारी .................कोई क्यों सन्नाटे में फिर रो रहा है .....................आलोक जब जरूरत रात में भी तुमको ....................क्यों रिश्ता तेरा पूरब से दूर हो रहा है ...................पहले हम सब को जानना चाहिए कि हम वास्तव में क्या चाहते है ............फिर चाहे रात हो या दिन .........

Saturday, November 23, 2019

खुद को गिरा कर मुझे गिरा दिया उसने

खुद को गिरा कर मुझे गिरा दिया उसने ......... न जाने मैखाने में क्या आकर पाया उसने ....................सुना है अब उसके आंसू घुंघरू बन बजते है ........................ उजाला नही अँधेरे को बनाया आशियाना उसने ..............मुझे बर्बाद करने में खुद बर्बाद होते रहे .................खुद की जिन्दगी से वो बेजार होते रहे .............आलोक को क्या कोई पकड़ पाया मुठ्ठी में ................अँधेरे ही अक्सर उनके दामन में सोते रहे ......................क्यों चाहते है की हम एक दूसरे को गिरा कर आगे बढे पर ऐसे करके बढ़ने वाले कभी खुद भी हस नही पाते..................

Friday, November 22, 2019

कितनी दफ़ा दफ़ा हो जाऊं आलोक

कितनी  दफ़ा दफ़ा हो जाऊं  आलोक
मोहब्बत है हुजूर कैसे  फना हो जाऊं

मेरे आंसू का कोई मोल नही

मेरे आंसू का कोई मोल नही अब क्या दुनिया मे,
जंगल को शहर बनाया क्यो आकर मेरी दुनिया मे l
आलोक चांटिया

क्यों जिन्दगी का फरेब

क्यो ज़िन्दगी मे सांसो से मोहब्बत का फरेब चला
चाहा मौत को तो फिर इस बेवाफाई से क्या मिला
आलोक चांटिया
 

ज़िन्दगी गंगा सी मैली हो गयी

ज़िन्दगी गंगा सी मैली हो गयी
समुन्दर मे लो फिर खो ही गयी
हर किसी ने चाहा खुद उसको
गंगा सी ज़िन्दगी तन्हा हो गयी
आलोक चांटिया

Sunday, November 17, 2019

वह दूर तिमिर में चमका तो

वह  दूर तिमिर में चमका तो,
उस को सूरज भी कह डाला ,
मैं कितना जल कर चमका हूँ ,
क्या ये दर्द कभी तुमने पाला |@
 आलोक

आज उसकी आँखों में ह्या का जनाजा देखा

आज उसकी आँखों में ह्या का जनाजा देखा .
कुछ रोई आँखे मेरी और तमाशा सबने देखा .
बोले सब जब खो दिया तो दर्द फिर कैसा .
मैंने कहा खोयी है वो मैंने तो जीकर देखा .
आलोक चांटिया

मेरा मन कही लगता नहीं

मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं ,
चुप चाप सब हैं जी रहे ,
सच का बाजार चलता नहीं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं .......1
मैं चाह कर भी हार हूँ ,
जीवन नहीं करार हूँ ,
आलोक मार्ग दर्शक नहीं ,
अंधेरों का मैं प्यार हूँ ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं ..........२
रोटी पाने की बस होड़ हैं ,
भ्रष्टाचार क्यों बेजोड़ हैं ,
ये भाई बहनों के देश में ,
सहमा क्यों हर मोड़ हैं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं .........३
घर ही नहीं देश टूट रहा है ,
विश्वास,भी अब छूट रहा है,
मारना है जब सच जानते हो ,
मन फिर क्यों घुट रहा हैं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं ............४
जीवन में जब हम सिर्फ रोटी तक रह जाते है तो देश , समाज, और घर सब टूट जाते है ......अखिल भारतीय अधिकार संगठन

वो कहती हैं मोह्हबत करने का मोल दो

वो कहती हैं मोह्हबत करने का मोल दो .
मुझे मेरी आरजू में आज तोल दो .
मै नही प्यासी घुंघरू की आवाज़ तुम सुनो .
आज सरे आम अपने दिल के राज खोल दो .
मैंने यही सीखा हर बात पर अपनी बोली सुनना .
आज तो अपनी मोह्हबत की बोली बोल दो .
बस इतने के खातिर मैं न जाने कहा से गुजरी .
अब एक आसरे की बाँहों का माहौल दो .
आलोक चांटिया

मैं लाया हूँ अपना जीवन

मैं लाया हूँ अपना जीवन ,
तुम भी हिस्सा अपना ले लो ,
मुझको जीना है अपने खातिर ,
तुम भी अपने सपने बुन लो ,---------१
उबड़ खाबड़ सांसो के पथ है ,
तुम भी अपना गाना गुन लो ,
पीर बहुत है अंतस में मेरे ,
प्रेम के गीत तुम अपने सुन लो ------२

आलोक चांटिया

जिन्दगी में कोई भी पल नही मिलता दोबारा

जिन्दगी में कोई भी पल नही मिलता दोबारा
ये मौत का सितम और उसका चौबारा ..
कितनी बार कहा हस कर कट लो चार पल .
फिर भी न समझे नही लौटता ये कल ..
आज राग  रागिनी गयी जा रही तेरी .
साँसों को खेल है क्यों मुझसे न मिली मेरी
आलोक चांटिया

मैं आलोक हूँ क्योकि मुझे

मैं आलोक हूँ क्योकि मुझे,
अँधेरे को समेटने का हुनर है,
तुम भी अपने हिस्से का दे दो
मुझे उसे अपनाने का जिगर है

अकेला नही मैं सहारे बहुत है

अकेला नही मैं सहारे बहुत है ,
तुम अपना भी सर धर लो ,
मरा समझ कंधे चार मिलते हैं ,
जिन्दा से तुम तौबा अब कर लो ,-------१
आलोक ढूंढने सब हैं आये ,
अंधेरों में भी बसेरा कर लो ,
डूबता को तिनके का सहारा ,
कुछ कदम साथ तुम चल लो -----------२
हम सब लाभ हानि के नज़र से हर रिश्ते को देखते है जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए
आलोक चांटिया

Tuesday, November 12, 2019

निपट अकेला दीपक सा मैं

निपट अकेला दीपक सा मैं ,
घर घर भटका करता हूँ ,
लोगो को रोशन करके मैं ,
तमस समेटा करता हूँ ,
लगता मुझको ख़ुशी दे रहा ,
पल पल घटता रहता हूँ ,
सूरज के आगे विवश खड़ा ,
पूरा दिन मैं मरता हूँ ..............दीपक की गति इतनी सरल नही हैं , वो हमारे लिए जी कर खुद को बर्बाद कर लेता हैं .....शायद इसी लिए कोई किसी के लिए या समज के लिए जीना कम पसंद करता है ......क्या आपको दीपक वास्तव में पसंद हैं

Monday, November 11, 2019

जिन्दगी आज बेकार सी लगने लगी है

जिन्दगी आज बेकार सी लगने लगी है ,
बाज़ार में बोली बेहिसाब लगने लगी है ,
कितनी बार बदल कर देखूं मैं तुझको ,
हर जिन्दगी में वही फिर दिखने लगी है ,
लोग कहते है आलोक होकर अँधेरे में ,
किसको बताऊँ आंखे छलकने लगी है ,
जन कर भी अन्जान नही मैं हुआ हूँ ,
अन्जाने में मौत अच्छी लगने लगी है ,
कोई नही जो ऋतु से यहाँ बच पाया हो ,
मेहँदी से सरुर में खुद न रच आया हो ,
उसका तो काम था आना और चले जाना,
दीवाली में दीपक सी आज लगने लगी है ..

Saturday, November 9, 2019

मैं गुलाम नहीं वो , जान रहे है ,

मैं गुलाम नहीं वो ,
जान रहे है ,
वो जी नहीं रहे ये ,
मान रहे है ,
कितने वक्त के लिए ,
आये यहाँ जानते नहीं ,
किसी के लिए जी ले ,
वो ऐसा मानते नहीं ,
आलोक की चाहत में ,
भटकते है सब दर बदर,
देख कर मुझे क्यों फिर ,
भागते यहाँ इस कदर ............ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Friday, November 8, 2019

दुनिया में राह कोई नहीं

दुनिया में मैं रास्ता नित ढूंढू
रास्ता दुनिया में है कोई नहीं
जिधर चल पड़ो पग से अपने
फिर दूर लक्ष्य है कोई नहीं
आलोक चांटिया
दुनिया में मैं रास्ता नित ढूंढू
रास्ता दुनिया में है कोई नहीं
जिधर चल पड़ो पग से अपने
फिर दूर लक्ष्य है को
दुनिया में मैं रास्ता नित ढूंढू
रास्ता दुनिया में है कोई नहीं
जिधर चल पड़ो पग से अपने
फिर दूर लक्ष्य है कोई नहीं
आलोक चांटिया
ई नहीं
आलोक चांटिया

कभी कभी वो मेरे करीब चली आती है


हरी हरी घास पर जिन्दगी इंतज़ार में

हरी हरी घास पर जिन्दगी इंतज़ार में ,
सुबह से ही न जाने किस इकरार में ,
सरपट दौड़ती मेरी सांसो का चलना ,
उसकी आंखे न जाने किस तकरार में ,
शायद मौत से मेरी अब तक उबरी नही ,
छूकर देखती मेरी परछाई कही तो नही ,
राख में कोई भी गर्मी अगर ढूंढ़ लेती ,
कुछ देर मर कर मेरे साथ चली तो नही ,
न जाने क्यों घूमती मेरे इर्द गिर्द आज ,
क्या अब तक जी रही मेरा कोई राज ,
उसकी धड़कने क्यों बज रही बन साज,
आलोक सा अँधेरा मिला मिटा के लाज ,
ऋतु की तरह बदल लो तुम भी खुद को ,
आज गर्म हवा हो कल बनाओ सर्द खुद को ,
लोग मिल जायेंगे काटने को समय अपना ,
मौत में सिमटी जिंदगी समझ लो खुद को ........................



जो हो रहा हैं उस पर दुःख किस लिए ....जो हो रहा हैं वो गर होना ही था तो उसको समय का सत्य मान कर बस जीते जाओ .और आज जिस ऋतु से आनंद लिया हैं .कल् किसी  और के हो जाओ ......................प्रकृति खुद आपको बेवफा होना सिखाती है .जिस गीता कर्म योग कहती है ....तो दुःख में ही सुख देखिये और मेरे साथ कहिये

क्यों अपना दर्द सुनाना चाहते हो

क्यों अपना दर्द सुनाना चाहते हो ........
जब कि किसी को दर्द देकर ही आते हो....
ये भी जब सिद्ध हो चुका है कि,
कोई भी अपनी मूल प्रवृत्ति नही ,
छोड़ पाता उम्र भर हर मोड़ पर ,
फिर क्यों उम्मीद करूँ तुमसे ,
बिना कांटो की जिंदगी रहने दोगे,
गुलाब दामन में खिलने दोगे ......................

Tuesday, November 5, 2019

Monday, November 4, 2019

किसी को जिन्दगी मिल जाती है कौड़ियो के मोल

किसी को जिन्दगी मिल जाती है कौड़ियो के मोल ,
अक्सर वो मेरी उसकी बेबसी का करते दिखते तोल,
नही जानते है कि पानी तो फैला पड़ा हर कही यहा,
मीठे पानी के सोते मिलते है जमीं को लेते जो खोल ,
गीली मिटटी में तो हर कोई उगा लेता है रोटी अपनी ,
रेत पर दिखाओ घर बसा कर और फिर कुछ मीठे बोल ,
आसमान से पानी की आरजू कौन करती है नही आँखे ,
अपने पसीने से दाना उगा कर सच की खोल दो पोल ..............क्या आपको भी जवान ऐसे ही मिल गया है कि आपको लगता है कि जो गरीब है या जिनके पास कुछ नही है वो उनके पूर्व जन्मो का पाप है या फिर आप बचना चाहते है उस जानवर की तरह जो अपने सिवा किसी के लिए नही करता ..................आदमी कहा है

Sunday, November 3, 2019

लेखनी और शब्द

जिन्दगी जीने का प्रयास करता हूँ ......... 
लेखनी से प्यार किया करता हूँ ....
कभी कभी लिपट जाती उँगलियों से .......... 
तभी  शब्दों में नहा लिया करता हूँ ........ 
आलोक चान्टिया

जिन्दगी सभी को मिलती है नुक्कड़ पर

जिन्दगी सभी को मिलती है नुक्कड़ पर
जिन्दगी पहुच जाती है खुद नुक्कड़ पर ,
कितना भी जतन कर लो नसमझपाओगे
मौत भी खड़ी मिलती है हर नुक्कड़ पर ,
जीवन में दिल की आहट आतीनुक्कड़पर
जब वो सामने से गुजर जाती नुक्कड़पर
कितना ही वक्त गुजर जाता नुक्कड़ पर
शायद वो मुड़ कर देख ले नुक्कड़ पर ,
पता नही क्यों सन्नाटा सा है नुक्कड़पर
कुछ गम सुम सा लगता है अब नुक्कड़पर ,
लोगो ने बताया वो मासूम अब न आयगी ,
कल कोई उठा ले गया उसे नुक्कड़ पर ,
रोज ढूंढ़ता उसके निशान नुक्कड़ पर ,
उसकी हसी दौड़ती मिली नुक्कड़ पर ,
एक प्रश्न सा तैरता हवाओ में आज भी ,
क्यों लड़की मौत ही जीती है नुक्कड़ पर
मैं क्या बताऊ उलझन इस नुक्कड़ पर ,
बस एक अक्स रह गया इस नुक्कड़ पर
वो भी थी रोई बहुत इसी नुक्कड़ पर ,
परायी हुई थी मुझसे इसी नुक्कड़ पर ,
कहा छोड़ पाया था उसे नुक्कड़ पर ,
मौत के संग हो लिया था नुक्कड़ पर ,
प्रेम तो दिखाया जिन्दगी से नुक्कड़ पर
फिर दुनिया से मुंह मोड़ लियानुक्कड़पर
क्या तुम जानते हो उस पार नुक्कड़ के ,
क्यों एक शून्य सा रह जाता नुक्कड़ पर
लोग कहते है भगवान वहा नुक्कड़ पर,
फिर रोने की आवाज क्यों नुक्कड़ पर ............................



 आलोक चान्टिया

जिन्दगी में हम सब नुक्कड़ के पर न देख पाए है और न देख पाएंगे ........इसी लिए नुक्कड़ पर मौत , लड़की से छेड़ छाड़ , बलात्कार , अपहरण और फिर एक सन्नाटा नुक्कड़ पर मिलता है .........क्या आप ने नुक्कड़ को ध्यान से देखा है

जिन्दगी से मोहब्बत कौन कर पाया है

आज कली बहुत थी रोई ,
अपने में थी बस खोई खोई ,
नही चाहती थी वो खिलना ,
दुनिया से कल फिर मिलना ,
कोई हाथ बढ़ा तोड़ लेगा ,
डाली का भ्रम सब तोड़ लेगा ,
वो बेबस रोएगी जाने कितना ,
पर दर्द कौन समझेगा इतना ,
जिस डाली पर भरोसा किया ,
वही ने आज भरोसा लिया ,
खुद खामोश रही बढे हाथो पर ,
बिस्तर पर सजने दिया रातो पर ,
मसल कर छोड़ दिया नरम समझ ,
फूल तक न बनने दिया नासमझ ,
कली के जीवन में अलि नही है ,
ऐसे पराग को पीना सही नही है,
ये कैसी पहचान मिली उसको आज ,
गुलाब की कली छिपाए क्या है राज,
अपनी ख़ुशी से बेहतर कब कौन माने,
जीने की आरजू उसमे भी कब जाने ,
जीवन का ये कैसा खेल चल रहा ,
हर डाल का फूल क्यों विकल रहा ,
क्यों नही पा रहे फूल का पूरा जीवन ,
क्यों नही कली का कोई संजीवन .....................


आइये हम सब समझे कि जिस तरह लड़की को हम सिर्फ जैविक समझ कर जी रहे हैं ................क्या उनको भी कली की तरह पूरा जीने का हक़ नही है ...
..............गुलाबी ठंडक सभी को मुबारक ..

Saturday, November 2, 2019

आज फिर चाँद में सुरूर है

आज फिर चाँद में सुरूर है ,
लगता है कोई बात जरुर है ,
मांग के सिंदूर में चमकती ,
उन की जिन्दगी का गुरुर है ,
आज भी भूखी प्यासी रही ,
पर कल से कुछ मगरूर है ,
पर आज तो प्रियतम की है ,
जिन्दगी जो उसका नूर है ,
करवा का कारवां चला है ,
एक दिल में दो ही पला है ,
उनकी निशानी ऊँगली में है ,
परदेश में जाना उनका खला है ,
पर क्या हुआ उनका अक्स है ,
दिल के दरवाजो में एक नक्स है ,
चाँद को देख फिर निहारा उनको ,
पति से प्यारा क्या कोई शख्स है ,
आसमान के आगोश में चाँद आज है ,
तेरी पलकों में कोई फिर मेरा राज है ,
रात न गुजरेगी आज तनहा तनहा
शहनाई की वो रात आज पास पास है ...........


 आलोक चान्टिया
जिस देश में इतने खुबसूरत एहसास हो पति पत्नी के लिए , अगर वह से किसी भी विवाहित महिला की सिसकी सुनाई दे तो क्या उसे चाँद में डूबी रात की ओस की तरह अनदेखा करके बस अपने में जीते रहे है या फिर महिला की करवा यात्रा के भाव को समझ कर उसे पुरे जीवन हँसाने का यत्न करे ........................आप सभी को करवा चौथ के असली अर्थ की बधाई

रावण की लंका में

रावण की लंका में ,
रहकर क्या सपने ,
मैंने गलत चुने ,
राम राज्य की ,
कर कल्पना पथ ,
क्या सही नहीं बुने,
कब तक चलेगा दमन ,
अशोक वाटिका में ,
सीता घुट घुट कर जियेगी ,
जगह मिलेगी धरा में ,
उठाया है तो धनुष ,
अंत रावण का करना है ,
गरिमा से जीना है मुझको,
अब उसको ही मरना है ,...................
महिला में तो इतना दम नहीं है की वो अपने विरुद्ध होने वाले शोषण के खिलाफ बोल पाये

Friday, November 1, 2019

जिन्दगी मैंने कब क्या कहा तुझसे

जिन्दगी मैंने कब क्या कहा तुझसे ,
जो भी मिला क्या तूने पूछा मुझसे ,
बस चलता ही रहा एक नदी की तरह ,
अंत में खारा पानी ही मिला उस से ,
जब चला तो हीरे सी उमंग लेकर था ,
ये किस दौर ने मैला बनाया मुझको ,
अपने दामन से ज्यादा सबका देखा ,
कितने पाप से बचाया मैंने तुझको ,
कोई है जो आज बढ़ कर पकड़ ले ,
अपनी बाहों में बस थोडा जकड ले ,
शायद बहना ही मेरी जिन्दगी रही ,
मेरी मिठास पर भी थोडा अकड ले ,
शायद ये दौर ही है आदमी का यहा,
किस के सामने दुःख ले बैठी मैं यहा,
यहा तो प्यास बुझाने की होड़ लगी है ,
आँचल को मैं खुद मैला कर बैठी यहा ......................


क्या नदी क्या जमीं सब के दर्द को हमने अपने जीने का साधन बनाया है शायद इनकी गलती यह है कि इन्होने औरत का अक्स लेकर जीना चाहा....................क्या मेरी बात सही नही लग रही है ....................

शर्म नहीं आती है

एक पूँछ उठाये ,
कुत्ते को देख ,
मैंने लाल पीले ,
होते हुए कहा ,
क्या तुम्हे शर्म ,
नही आती है ,
कुत्ते ने बड़े ही ,
शालीनता से ,
कहा कि आदमी ,
के साथ रहने ,
वाले के पास शर्म ,
रह कहा जाती है .............. आलोक चांटिया

Thursday, October 31, 2019

जिस आँगन में दिखे अंधेरा

जिस आँगन में दिखे अंधेरा,
वहीं पे दीप जलाना ,
जो मुस्काना भूल गए,
उन होठों को मुस्काना,
जिन आंखों ने देखे सपने,
तुम सच कर दिखलाना.
ऐसा यदि कर सके तो,
समझो सच हुआ दीप जलाना....................अखिल भारतीय अधिकार संगठन

मेरे दर्द को क्यों उकेरा तुमने

मेरे दर्द को क्यों उकेरा तुमने ,
क्यों अपने को दिखाया तुमने ,
कोई ख़ुशी मिली दरिया से तुमको  ,
क्यों आँखों से आंसू बहाया तुमने ,
जमीं को दर्द देते देते आज क्यों ,
मुझे ही अपनी बातो से खोद गए ,
क्या कोई गुलाब खिलेगा कभी ,
कौन कलम आज बो गए मुझमे ,
एक बीज सा जीवन था मेरा ,
जो गिर कर भी कोपल देता है ,
क्यों पैरो से कुचल डाला तुमने ,
बस कुछ मिटटी ही तो लेता है ,
आज जान मिला जान का अर्थ ,
जब तुमने किया मुझसे अनर्थ ,
कोई बात नही स्याह में आलोक ,
अपने को उजाला बनाया तुमने ,
कह भी तो नही सकते धरती हूँ ,
हर सृजन को मैं भी करती हूँ ,
क्योकि मैं दुनिया में रहती हूँ ,
ये कैसा मुझको बनाया तुमने ,
माँ होकर भी आज कुचल गई है ,
मेरी ममता कही चली गयी है ,
किसी ने बताया है नाले के किनारे ,
माली ऐसा बीज क्यों लगाया तुमने ,
बंजर कहलाती मगर अपनी होती ,
जीती मगर अपने सपने में होती ,
अब तो जिन्दा लाश हूँ पानी में ,
मुझे साँसों बिन क्यों बनाया तुमने .........................आज न जाने कितने युवा सिर्फ इस लिए लडकियों का शोषण करते है क्योकि यह एक प्रतिस्पर्ध्त्मक खेल हो गया है .....पर वो लड़की भी इस ख़ुशी में कि कोई तो उसको पसंद करता है .....अपना सब कुछ समप्र्पित करती है ...पर परिणाम गर्भपात के बढ़ते बाज़ार और लड़कियों में बढती कुंठा जिसमे उनको विकास होने के बजये एक दर का जन्म ज्यादा हो रहा है ...........................शयद आपको यह सिर्फ एक फर्जी बात लगे पर पाने को अंदर टटोल कर इसको पढ़िए और फिर ????????????????????

Wednesday, October 30, 2019

अँधेरे में छूटे या ,
छूटते चले गए ,
वो लोग कौन थे ,
और कहा निकल गए ,
दर्द देकर पा लिया ,
जन्म फिर यहाँ ,
माँ बन गयी मगर ,
तुम गए फिर कहाँ,
सींचा तुमको खून से ,
अपना अंश मान कर ,
छोड़ कर तुम गए कहाँ ,
दर्द मेरा सब जान कर ,
कहते नहीं क्यों सुख ,
ढूंढने आये थे यहाँ ,
दर्द सिर्फ आलोक का,
तिमिर चाहता कौन कहाँ ,
......................क्या मैं सच के रस्ते छोड़ कर उन्ही पर बढूँ जिस पर चल कर लोग आज प्रगति को परिभाषित कर रहे है ???????????????

जिन्दगी कितनी सी है

जिन्दगी कितनी सी है ,
जिन्दगी इतनी सी हैं ,
जिन्दगी जितनी सी है ,
जिन्दगी मिटनी सी है ,
तो क्यों न मुस्करा ले ,
तुमको भी साथ हसा ले ,
कुछ तुमको भी मिलेगा ,
कुछ हमको भी मिलेगा ,
जिन्दगी चलनी सी है ,
जिन्दगी हसनी सी है ,
जिन्दगी कसनी सी है ,
जिन्दगी फसनी सी है ,
तो क्यों न इसे समझ ले ,
थोड़ी देर साथ मचल ले ,
कल किसने देखा है यहा,
आओ कुछ साथ चल ले ,
जिन्दगी आलोक सी है ,
जिन्दगी परलोक सी है ,
जिन्दगी श्लोक सी है ,
जिन्दगी मृत्यु लोक सी है ,
तो क्यों न कुछ कर ले ,
एक बार हस कर बसर ले ,
ये सच अब तो मान भी लो ,
थोडा धूप से हम पसर ले ...........................कब हम समझेंगे अपने जीवन को आज मुझे एक ऐसी बेटी से मुलाकात हुई जिसके पिता नही थे पर न जाने उसने मुझे क्यों पिता कहा और मुझे अच्छा लगा ...........क्या बेटी का सुख आपको मिला है .....डॉ आलोक चान्टिया

Tuesday, October 29, 2019

मुझे कली कब तक समझोगे

आज कली बहुत थी रोई ,
अपने में थी बस खोई खोई ,
नही चाहती थी वो खिलना ,
दुनिया से कल फिर मिलना ,
कोई हाथ बढ़ा तोड़ लेगा ,
डाली का भ्रम सब तोड़ लेगा ,
वो बेबस रोएगी जाने कितना ,
पर दर्द कौन समझेगा इतना ,
जिस डाली पर भरोसा किया ,
वही ने आज भरोसा लिया ,
खुद खामोश रही बढे हाथो पर ,
बिस्तर पर सजने दिया रातो पर ,
मसल कर छोड़ दिया नरम समझ ,
फूल तक न बनने दिया नासमझ ,
कली के जीवन में अलि नही है ,
ऐसे पराग को पीना सही नही है,
ये कैसी पहचान मिली उसको आज ,
गुलाब की कली छिपाए क्या है राज,
अपनी ख़ुशी से बेहतर कब कौन माने,
जीने की आरजू उसमे भी कब जाने ,
जीवन का ये कैसा खेल चल रहा ,
हर डाल का फूल क्यों विकल रहा ,
क्यों नही पा रहे फूल का पूरा जीवन ,
क्यों नही कली का कोई संजीवन .....................


आइये हम सब समझे कि जिस तरह लड़की को हम सिर्फ जैविक समझ कर जी रहे हैं ................क्या उनको भी कली की तरह पूरा जीने का हक़ नही है ...

Monday, October 28, 2019

उस कुत्ते को मैं

उस कुत्ते को मैं ,
क्या कहूँ जो ,
कुत्ता होकर भी ,
आदमी सा रहता रहा ,
और वो आदमी ,
जो न जाने क्यों ,
अपनी हरकतों में ,
अपने सा भी न रहा ,........
आलोक चांटिया
अखिल भारतीय अधिकार संगठन

जानता हूँ मौत मेरे

जानता हूँ मौत मेरे ,
इर्द गिर्द  ही है  घूम रही ,
चल जिंदगी तुझे कोई ,
फिर मिल जाये सही ,
रास्ते होते नही खुद ,
बनाये जाते यहाँ ,
खीच ले एक बार फिर ,
आज फिर जाता कहाँ,
श्वानों के शोर से ,
गज कभी डरता नहीं ,
गीदड़ों के बीच में ,
वीर कभी मरता नहीं ,
सीपियों के बीच में ही ,
मोती की पहचान है ,
स्वाति की ओज से ,
नहीं कोई अनजान है ,
मुस्कराता गुलाब देखो,
काँटों के है बीच रह कर ,
जी कर एक बार देखो ,
झूठो के बीच रह कर ,
कर्ण हरिश्चंद्र सब यही ,
सच के खातिर जी गए ,
जो जिया न्याय को ,
नाम उसी के रह गए ...................राम , कर्ण , हरीश चन्द्र राणा प्रताप कुछ ऐसे नाम है जिनके जीवन में हमेशा सुख बना रहता अगर वो अपने जीवन को उस तरह से चलते जैसा झूठे फरेबी , मक्कार , असत्य पर चलने वाले चाहते थे पर ऐसा ना करके ही उन्होंने समाज और उसका अर्थ हमारे सामने रखा , शिक्षकों से अपील है कि वेतन भोगी से ज्यादा एक ऐसी रास्ते का निर्माण करें जिससे आने वाली पीढ़ी एक और उन्नत समाज  को बनाने में योगदान कर सके

तोड़ कर मुस्कराहट

तोड़ कर मुस्कराहट,
का एक गुच्छा ,
काश मैं तुझको ला,
के दे पाता,
बदहवास सी होती ,
जिंदगी को कोई ,
तिनके का सहारा ,
करा पाता,
बहती ना अंतस ,
की जिन्दा कहानी ,
जो तूने हर रात ,
बुनी थी कि ,एक राजा ,
था एक रानी ,
चांदनी सी पसरती ,
झींगुरों के गान में ,
नीरवता को समेटे ,
तिमिर किसी प्रान में ,
सिर्फ शेष अब रह गया ,
समय का वो उजास ,
गुजरे जिनमे थे कभी ,
सिंदूरी से प्रकाश ,
लगता है हो कही यही ,
पर सच ये भ्रम है ,
आने जाने का यहाँ ,
ना जाने कैसा क्रम है ...................जीवन और मौत दोनों एक मात्र सच है......आलोक  चा

Tuesday, October 22, 2019

सभी को मेरे जनाज़े में जाने की जल्दी दिखी

सभी को मेरे जनाज़े में जाने की जल्दी दिखी ,
उनको अपने घर से कुछ ज्यादा दूरी दिखी ,
मैं मातम में खुद डूबा रहा अपनी मैयत देख ,
नुक्कड़ पर चाय में डूबी मेरी कुछ बाते दिखी ,
कल मैं भूख से बेदम अपनी जान से गया था ,
आज मेरी पसंद नापसंद की होती बाते दिखी ,
कोई क्या जाने अब भी मैं धड़क रहा दिल में ,
उनके दिल से मेरी आवाज़ आज आती दिखी ,
लोग नहाकर थे लौटे मुझे छोड़कर अब वहा,
उसकी आँखों में मेरी यादे नहाते फिर दिखी,
तडपा मैं कितना उसकी यादो में हर पल हूँ ,
रोज चादर पे सिलवटे उसके पड़ती दिखी ,
सूनी सी डगर सी अब मांग उसकी है रहती .
लाली सिंदूर की आज उसकी आँखों में दिखी ,
माफ़ कर दो जिन्दगी आलोक की बेवफाई ,
मौत से इश्क करती शमशान में साँसे दिखी ................................आइये हम सब एक बार ये जान ले की जिसको जिन्दगी कह कर हम इतना इतर रहे हैं .वो हकीकत में मौत ही है ................पर उसके आने से पहले का नाम जिन्दगी है ........तो क्या आप जिन्दगी जी पाए या फिर सिर्फ खाने , सोने को ही जिन्दगी समझ बैठे है ....किसी के लिए जी कर देखिये जानवर से थोडा अलग पहचान बनाइए ..

Sunday, October 20, 2019

लोग मुर्दे पे पैसे चढ़ा गए

लोग मुर्दे पर पैसे चढ़ा गए ,
कितना चाहते बता गए ,
दिल में दया भी है उनके ,
भिखारी को आज बता गए ,
भूख से बिलखते बच्चे को ,
जनसँख्या का दर्द बता गए ,
एक पल भी नही था पास में ,
बस पैसे से ही रिश्ता बता गए ,
खर्च तो करता हूँ सब कुछ ,
कितने खोखले है बता गए ,
एक अदद रोटी क्यों बनाये ,
लंगर में जाने को बता गए ,
आलोक को खरीदने का हौसला ,
असमान को जाने क्यों बता गए ,
मुट्ठी में बंद कौन कर पाया है ,
आलोक को बिकना बता गए ,
कितनी सिद्दत से सजाई दुनिया ,
दुकान का मतलब वो बता गए ,
रीता रीता सा रहा दिल आज फिर ,
खून बिकता है वो भी बता गए ,
आंसू भी बिकता है अब यहा पर,
सच को मेरे वो नाटक बता गए ,
इतनी लम्बी जिन्दगी में कौन अपना ,
बिकती साँसों का राज बता गए ,
कोई खरीद कर जला दो मुझको ,
शमशान में लकड़ी मुझे दिखा गए ,
जाना है उनको भी यहा से एक दिन ,
मुझको कफ़न खरीदना सीखा गए ...........................


पता नही इस दुनिया में हम मनुष्य बन कर किस मनुष्य को ढूंढते है ..........................पर अब तो सब कुछ पैसा से तौला जा रहा है .................क्या हमें रुकना नही चाहिए

आओ रिश्ते ले लो रिश्ते

आज एक किलो रिश्ता ,
खरीद कर लाया हूँ ,
पचास किलो शरीर में ,
किसी को रखने की ,
फुर्सत की नही मिलती ,
इसी लिए बाज़ार से ,
जीने के लिए उठा लाया हूँ ,
ये देखो एक किलो रिश्ता ,
तुम्हारे लिए भी ले आया हूँ ,
बात भी डालो कितना दूँ ,
क्या कुछ भी नही चाहते ,
फिर मानव क्यों हो बताते ,
सिर्फ जिस्म में गोश्त ही नही ,
एक भावना भी खेलती है ,
जो बनाती है मुझको यहाँ ,
पिता , चाचा , मामा , फूफा ,
दादा ,नाना और पति,प्रेमी भी ,
तुम भी तो बनती हो यहाँ ,
माँ , चाची. मामी , बुआ ,
दादी , नानी और पत्नी प्रेमिका भी ,
पर आज हम क्यों भाग रहे है ,
दिन रात जाग रहे है ,
कहा और कब खो गए रिश्ते ,
क्या मिल पाएंगे कभी रिश्ते ,
सुना है अब कंपनी भी बेचती है ,
कुछ रगीन दुनिया खिचती है ,
और हम फिर से बिकने लगे ,
आदमी में जानवर दिखने लगे ,
देखो आज मैं रिश्ते ताजे लाया हूँ ,
आओ जल्दी ले लो दौड़ो दौड़ो ,
बड़ी मुश्किल से एक किलो पाया हूँ ,
चाहो तो काट कर खा लो या ,
पी लो एक गिलास में भर कर ,
पर रिश्ते की खुराक लेना न छोडो ,
इस दुनिया को फिर न मोड़ो ,
वरना जानवर हम पर हसने लगेंगे ,
फब्तियां हम पर कसने लगेंगे ,
कैसे कहेंगे हम है इनसे बेहतर ,
जब पाएंगे हमको कमतर ,
तो लो अब मुह न मोड़ो रिश्तो से ,
जी लो थोडा अब रिश्तो से ,
कब तक चलोगे किश्तों से ,
आओ हमसे कुछ रिश्ते ले लो ,
रिश्ते को रिसने से तौबा कर लो,
रिश्तो को दीमक क्यों लग रही है

क्या सिर्फ पशुता ही जग रही है
 ...............हम रिश्ते से ज्यादा मैं में डूब कर बस एक शरीर से ज्यादा कुछ नही रह गए .

Tuesday, October 15, 2019

मैं अबला बाला वियोगिनी

# MEE TOO
दुर्गा कह कर मजाक उड़ा रहे है ,
पूरे देश में हम औरत जला रहे है ,
कितने ही नव दुर्गा कहते तुमको ,
बलात्कारी फिर कौन होते जा रहे है ,
कन्या तो देवी का रूप कही जाती है ,
माँ की कोख में ही क्यों मारे जा रहे है ,
कितना झूठ जीने की हसरत तुममे ,
रोज घुंघरू ही क्यों बजते जा रहे है ,
कितने ही कह जायेंगे आलोक बरबस ,
तुम क्यों महिसासुर बनते जा रहे हो ,
रह तो जाने दो कम से कम नव दुर्गा ,
नव महीने उसके ही छीने जा रहे हो ,
कल जब काली न दुर्गा मिलेंगी तुम्हे ,
फिर ये व्रत किसका रखे जा रहे हो ,
कभी तो शर्म करो अपनें दोमुह पर ,
किसका आंचल फाड़े जा रहे हो ,
आज माँ का दिन सच कह लो उससे ,
कल फिर ये शब्द भूले जा रहे हो ,
जय माता दी अपने दिल में बसा लो ,
क्या उसको हसी फिर दिए जा रहे हो .......................अगर इस देश में नारी के लिए इतना बड़ा व्रत रखने के बाद भी औरत की संख्या कम हो रही है या फिर उसके साथ बलात्कार हो रहा है तो ऐसे नवरात्री को हम क्या करने के लिए मना रहे है डॉ आलोक चान्टिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Monday, October 14, 2019

किसके लिए

# किसके लिए
न जाने क्यों ,
मन नही लग रहा है ,
लगता है आज फिर ,
कोई अंदर जग रहा है ,
बोलता नही मगर ,
जाने क्या चल रहा है ,
ये कैसी है अकुलाहट ,
जो वो मचल रहा है ,
रात का अँधेरा ,
क्यों नही कट रहा है ,
भोर का उजाला ,
क्यों पीछे हट रहा है ,
आलोक क्यों नही है ,
ये कौन भटक रहा है ,
वो कौन जो गया है ,
कल तक निकट रहा है ,
आकर भी न जान पाए ,
किससे जीवन लिपट रहा है ,
साँसों को बेच तू भी ,
मौत को ही झपट रहा है ,
पाया भी क्या है खोकर ,
हर झूठ बदल रहा है ,
जलती चिता में देखो ,
तू मिटटी सा निकल रहा है ,
जिन्दगी को जो कभी भी ,
ना अपनी समझ रहा है ,
नाम रहा है उसकी का ,
जो किसी के लिए मर रहा है ...........................


अगर हम जानवर से ऊपर उठाना चाहते है तो आदमी को किसी के लिए जीना आना चाहिए ....................वरना हम को मनुष्य कौन और किसके लिए कहा जायेगा .............. डॉ आलोक चान्टिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

चींटी की तरह कुचले जा रहे हो

चींटी की तरह कुचले जा रहे हो ,
मेरी लाश से होकर कहा जा रहे हो ,
मैं भी तो निकली थी एक सपना लिए ,
मेरी हकीकत को भी मिटा जा रहे हो ,
सिर्फ मुझको मसलने के लिए ही क्यों ,
मेरे अस्तित्व तक को नकारे जा रहे हो ,
क्यों नही है दूर तक जाने का मेरा सच ,
बस अपने को अपनों में पुकारे जा रहे हो ,
मालूम है मेरे भी अपने रोते है न आने पर ,
मेरी शाम को क्यों आंसू दिए जा रहे हो ,
कहा ढूंढे मेरे होने के निशान इस दुनिया में ,
तुम हत्यारे होकर भी मुस्काए जा रहे हो ,
मेरी नियत यही तो न थी कि कोई मुझे मारे,
अपनी ख़ुशी में मेरी ख़ुशी क्यों जला रहे हो ,
मैं भी हसने के लिए तुझे से होकर ही गुजरी ,
अपने दामन से क्यों मुझे रगड़े जा रहे हो ,
कब तक चींटी कह कर मुझे मिटाते रहोगे ,
औरत को आज ये क्या दिखाते जा रहे हो ,
मेरी ही तरह तो है तेरी माँ भी घर में देखो ,
फिर मुझे मादा कह क्यों जलाते जा रहे हो ,.................................
.आइये हम समझे इनका दर्द और कुछ बदल कर दिखाए इनका भी कल और आज ...........................आखिर ये है तभी तो है मेरा आपका वजूद . आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Friday, October 11, 2019

रात का डर किसको सुबह की आहट में

रात का डर किसको सुबह की आहट में ,
मौत का डर किसको तेरी चाहत में ,
हर इसी को इंतज़ार समय की अंगड़ाई का ,
पैमाने का डर किसको आँखों की राहत में...१

जब दामन से तन्हाई लिपट जाती है ,
आँखे खुद ब खुद छलक आती है ,
डरता हूँ कही कोई देख ना ले मुझको ,
इसी से हसी ओठो पे मचल जाती है ....२

खो जाना बेहतर है पाने के लिए ,
चले जाना बेहतर फिर आने के लिए ,
सभी में छिपी है रब की एक सूरत ,
तुझको जीना बेहतर उसको पाने के लिए ...३
-

मैं जिसको उस मोड़ पर

#

कविता 📖


मैं जिसको उस मोड़ पर , मानो ना मानो , छोड़ आया हूँ , और कुछ भी नहीं बस , वो मेरा कल जिसे , उम्र बना लाया हूँ | लोग कहते है अब मुझे , कुछ बदल से गए हो , आलोक इस तरह , क्या कहूं उनसे भी , कुछ भी नहीं बदला , सिवा इस उम्र की तरह ..........

ऐसा नही कि तेरे सीने मे दिल नही

ऐसा नही कि तेरे सीने मे दिल नही ,
पर दिल में भी दिमाग है ,
और ऐसा भी नही कि सीने में आग नही ,
पर तेरी आँखों में हया का दाग ,
बढ़ कर कैसे कह दे मै तेरा दोस्त हूँ ,
 इस देश में दोस्त ही हमराज है ,
मान भी जाऊ अगर तेरी इन बातो को ,
तन्हाई में साँसों की अपनी कुछ बात है ,
आओ सुना दू तेरे दिमाग को दिल के शब्द ,
सच मानो आज हो जाओगी निः शब्द  ,
दोस्त कहने में इतनी देर लगा दी तुमने ,
देखो मेरी  चिता में आग खुद लगा दी तुमने

कितने जीवन को जीकर तुम आये

कितने जीवन को जीकर तुम आये ........
फिर मानव बन कर तुम क्या पाए .........
जो था उसको भी मिटा ही डाला.......
या इस वसुधा पर  स्वर्ग भी लाये ..........
हमको इस बात पर बड़ा अभिमान कराया जाता है कि हम मनुष्य है और सर्वश्रेष्ठ है पर क्या प्रकृति उतनी सुंदर रह पाई जितनी उसको रहना चाहिए था ....ये मुक्तक आप के सोचने के लिए ....आलोक चान्टिया

मुस्कराने लगे जिन्दगी को जानकर

मुस्कराने लगे जिन्दगी को जानकर ........
खुश हुए साँसों को अपना मान कर .........
क्यों फिर आज इतने ग़मगीन है वो .....
जब आई मौत अपनी छाती तान कर.......
डॉ आलोक चान्टिया  ........अगर आपको खुश रहने की आदत है तो दुखी होने की लत भी डाल लेनी चाहिए क्योकि दुनिया में हर चीज़ के दो पहलू होते है 

मेरी मौत के बाद जब खाना मिलेगा

मेरी मौत के बाद जब खाना मिलेगा ,
कोई भूखा हो उसका ओठ खिलेगा ,
जिन्दा में मैं खुद ठोकर खाता रहा ,
मरने पर कोई चार कंधे पर चलेगा ,
भगवान के नाम पर  नंगे को देखो ,
छाती की हड्डी देख दिल तक हिलेगा ,
भगवान की मर्जी का कैसा ये खेल ,
बंद दरवाजे का राज कब तक खुलेगा ,
किसी तरह जी ले पशु से इतर हम ,
ये अधिकार हमको कब तक मिलेगा |....................हम सब भगवान पर इतना भरोसा करते है कि मनुष्य होकर भी हम पशु की तरह मर जाते है .पर हम कहा यह समझ पाते हैं कि मानव के उन रूपों का भगवान क्यों साथ दे रहा है जो रावन है .क्या आपको अपने अधिकार के लिए नही लड़ना चाहिए ,डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन ,

है कोई बहुत दूर तो कोई बहुत पास

है कोई बहुत दूर तो कोई बहुत पास .......
जिन्दा हूँ मैं तो किसी को है आस .........
कैसे कह दूँ कि कोई भी अकेला है .......
मौत से करता भला कौन खुद रास ........
डॉ. आलोक चान्टिया
मैं जानता हूँ कि जो लोग आत्महत्या भी इसी लिए  करते है क्योकि  उनको कुछ न कुछ आरजू रहती है और उसके पूरा न होने पर ही वो चल देते है ....यानि आप भी मानते है कि आप अकेले नहीं है तो जियेये ना उसके साथ चाहे सपनो में चाहे हकीकत में .....

मै तुमको जो लिख कर दिखाता हूँ

मै तुमको जो लिख कर दिखाता हूँ ,
बंद दिल की फोटो दिखाता हूँ ,
मुझको भी शब्दों की वेश्या समझ ,
अपने को क्यों शराबी बना रहे हो ,
मै तो हर रोज मर मर कर जीता हूँ ,
तुम किस मेखाने से आ रहे हो ?

मेरी जिन्दगी जिन्दा थी ही कब

मेरी जिन्दगी  जिन्दा थी ही कब ,
कौन कहता है मुझसे मिला है अब ,
जमी के नीचे भी सुकूं मिल सकता है
मेरे रब तुझसे शायद कभी मिलूँगा जब |

मेरा भी रोने को मन करता है

मेरा भी रोने को ,
मन करता है
मेरा भी सोने को ,
मन करता है ,
पर हर कंधे ,
गीले होते है ,
हर चादर मैले ,
ही होते है ,
मेरा भी जीने का ,
मन करता है ,
मेरा भी पीने को ,
मन करता है ,
पर जिन्दा लाशों ,
का काफिला मिलता है ,
पानी की जगह बस,
खून ही मिलता है |
मुझे क्यों अँधेरा ,
ही मिलता है ,
मुझमे  क्यों सपना ,
एक चलता है ,
क्यों नहीं कभी आलोक ,
आँगन में खिलता है ,
क्यों नही एक सच ,
सांसो को मिलता है ...............
जीवन में सभी के लिए एक जैसी स्थिति नही है , इस लिए जीवन को अपने तरह से जियो ( अखल भारतीय अधिकार संगठन )

मुर्दो ने पूछा

मुर्दो ने पूछा ,
आज यहाँ क्यों,
आये हो ,
क्या अपने घर ,
का रास्ता भूल ,
आये हो ,
मैंने कहा सुना था ,
भूत लोगो को ,
डराते है ,
कभी सपने में ,
को कभी सामने ,
आ जाते है |
पर अब तो शहर ,
में शैतान रहने ,
लगे है ,
लोग कुछ ज्यादा ,
सहमे सहमे से ,
रहने लगे है |
सड़क , घर , रेल ,
स्कूल में शरीर ,
को खाते है |
सच में श्मशान ,
हैवानो से बचाने,
खुद को आते है |
भूत आदमी से ,
काफी अच्छा साबित ,
हो रहा है |
बलात्कार , छेड़छाड़ से  ,
उसे आज भी परहेज ,
हो रहा है |
.........................बचपन में भूत की कहनी सुना कर हमको डराया जाता था पर आज सड़क पर कुछ हो ना जाये इस लिए डराया जाता है क्या आदमी भूत को भी पीछे छोड़ आया ????????? आलोक चान्टिया अखिल आरतीय अधिकार संगठन ...जियो और जीने दो

जो मुझे मैला करते रहे हर पल

जो मुझे मैला ,
करते रहे हर पल ,
वो भी जब डुबकी ,
लगाते है मुझमे ,
मैं उनके दामन,
को ही उजला बनाती हूँ ,
कीचड़ तो मेरी जिंदगी ,
का हिस्सा बन गया ,
उसी को लपेट सब ,
जिंदगी पाते है ,
कभी नदी में रहकर ,
कभी गर्भ में रहकर ,
पर अक्सर ही ,
हम कभी नदी तो ,
कभी औरत के पास ,
खुद के लिए आते है |..................
हम हमेशा सच को स्वीकारने से क्यों भागते 

जीवन जितने भी अर्थो में रही

जीवन जितने भी अर्थो में रही ,
मौत का ही विकल्प था सही ,
साँसे न जाने कहा कहा घूमी ,
पर थक कर ना कही की रही ,
कितने दिनों तक क्या ना कहा ,
पर वो आवाज़ है ही नही कही ,
एक तस्वीर भी जो बसी मन में ,
चिता ने  उसको भी छोड़ा नही ,
इतनी नफरत क्यों जिन्दगी से ,
मौत कहूँ तो तू नाराज तो नहीं |

कितनी शिद्दत से इंतज़ार किया तूने मेरा

कितनी शिद्दत से इंतज़ार किया तूने मेरा ,
देख तेरी खातिर जिन्दगी को छोड़ आया ,
बंद आँखों में है भी तो सिर्फ तस्सवुर तेरा ,
मौत हर शख्स को सुकून तुझमे ही आया ,
अब तो खुश हो जा मै किसी को न देखता ,
हर किसी से दूर सिर्फ तेरा गुलाम बना गया ,
कमरे  में मेरी जगह रहती अब खाली खाली ,
सच मान मैं शमशान में तेरे ही लिए बस गया |

आज फिर क्यों आँखे नम है ?

आज फिर क्यों आँखे नम है ,
भीड़ में कोई चेहरा कम है ,
कितना भीगा आलोक से जीवन ,
फिर भी अंतस में क्यों तम है ,
रोज नींद कहकर क्यों सुलाती ,
मौत बता तुझको क्या गम है ,
कल तक दो जीवन जो साथ रहे ,
ठहाको में उनके भी सम है ,
कहा छीन कर ले गई आज तू ,
जब दो शरीर में एक ही हम है ,
इतना सन्नाटा उसको क्यों पाकर ,
लाश को पा मौत अब गई थम है|

आज लोग यह कहते मिल गए

आज लोग यह कहते मिल गए ,
क्यों मेरे जीवन के तार हिल गए ,
कल तक हमको एहसास था अपना ,
आज क्यों अंतस से विकल गए ,
आप अपने तो कब दिखयेंगे यूँ ही ,
हम तो पानी थे बस मचल गए ,
आपकी जिन्दगी खाक हो रही तो ,
हम मजा लेकर फिर सम्भल गए ...................................आज लगा सब झूठ है ....खास तौर पर रिश्ता सिर्फ रिस रहा है चारो तरफ

जाने के आसरे बैठे क्यों हो

जाने के आसरे बैठे क्यों हो ,
क्यों आये हो ये भी सोचो ,
क्या दिया है इस दुनिया को ,
कभी तनहई में ये भी सोचो ,
जिसको करके तुम खुश हुए ,
ये सब तो है कौन न करता ,
मानव होकर दिया क्या तुमने,
मुट्ठी में है रेत तो सोचो ,
अगर नहीं कोई फर्क चौपाये से ,
दो हाथ मिले क्यों ये तो सोचो ,
जी लो एक बार उसके खातिर ,
भगवन को एक बार तो सोचो ,
कितना दीन हीन हुआ वो है ,
उसकी बेबसी को भी तो सोचो ,
क्या कहे अब सब मिटा कर ,
मानव कैसे ले अवतार वो सोचो .........

ऊपर वाला क्या खुश है मानव को बना कर

बादल फटने पर कुछ लोग ही मरते है

बादल फटने पर कुछ लोग ही मरते है ,
पर आज तो दिल ही फट गया है मेरा ,
क्या कोई है जो गिन कर बता दे आलोक ,
कितने मरे जो कल तक जिया करते थे ,
आँखों में  पानी जरुरी कितना जनता हूँ ,
पर पानी बहा कर ही हस लिया करते है ,
कह कर निकल गए सब आबरू मेरी लूटी,
इज्जत वाले ही दाग समेट लिया करते है,
क्यों साथ दे तुम्हरा जिन्दगी मेरी अपनी है ,
बस रास्ता काट लेने को बात किया करते है ,
जब न पैदा न मरेंगे कभी भी साथ साथ कोई  ,
चीटी के एहसास में तुमको मसल दिया करते है

दर्द कुरेद कुरेद कर मेरा

दर्द कुरेद कुरेद कर मेरा ,
बीज कौन सा बो तुम रहे हो ,
बहते आंसू  को नीर समझ ,
पाप कौन सा धो तुम रहे हो ,
पथराई आँखों में झाँको तुम ,
हीरा कोईअब खो तुम रहे हो ,
मै क्यों तम से भागूं अब तो ,
अंतस में दिल जी तो रहे हो ,
आलोक जो खोया तो क्या  ,
सपनो का यौवन जी तो रहे हो 
अब मन न दुनिया में रहता ,
जी जी कर तुम मर तो रहे हो ,
किसे सुनाऊ सौ बाते दर्द की ,
सब में खुद को ही देख रहे हो ,
आज मिले वो बनाने वाला जो ,
पूछूं खेल कौन सा खेल रहे हो ,
मै भी तो था कुछ पल धरा का ,
धर धर के क्यों कुचल रहे हो ,
तोड़ के मेरे हर एक सपने को ,
दिल को दर्पण सा छोड़ रहे हो ,
बटोर नही पाउँगा अब ये सब ,
हर टुकड़े क्यों फिर जोड़ रहे हो ,.................................किसी के साथ रहना और उसका साथ छोड़ देना सबसे आसन काम है ........पर आज मुझे वह हिरन का झुण्ड याद आ रहा है जिनको दूर से देखने पर एक बड़ा समूह सा लगता है ..पर एक शेर( दुःख या समस्या ) के आने पर हिरन के अकेले होने की कलई खुल जाती है , बहुत से लोग कहेंगे की आप तो लिख कर बता लेते है पर वो  क्या करे जो सिर्फ घुट घुट कर जी रहे है ........................

जब मेरी जिंदगी थमी ,

जब मेरी जिंदगी थमी ,
सोचा छोड़ दू अब जमीं ,
न पूछो कितनी भीड़ जमी ,
शायद आज संस्कृति की ,
यही कहानी शेष बची थी,
क्या इसी खातिर भगवन ,
ने मानव और मानव ने ,
संस्कृति की बिसात रची थी ............

क्या आप औरत का मतलब जानते है ???
मैंने जब एक दिन पूछा तो उत्तर आया ये लो भला हम क्यों नहीं जानेंगे औरत को ?? क्या हमने अपने को कभी देखा नहीं है और भैया हमाम में तो सभी नंगे है | मैं उनकी बातें सुन कर  दंग था मैंने फिर कहा क्या औरत का मतलब सिर्फ शरीर तक ही है तो कहने लगे क्या यार फर्जी बात करते हो क्या तुमको लगता है की औरत कोई योग तपस्या करके आगे बढ़ती है वो तो ?? और उन्होंने एक साथ कई नाम गिना डाले कि कौन कैसे बढ़ा ? मैं आश्चर्य चकित था मैं आज के विक्रमादित्य ( अब इनका असली नाम और काम न पूछ लीजियेगा वरना मेरी तो ) से कहा हुजूर न्याय कीजिये सभा में वो सभी बैठे थे जिन्होंने एक भोले से किसान को अंगुलिमाल डाकू बनाने में पूरी ताकत लगा  दी थी पर विक्रमादित्य तो आज कलयुग में थे उन्होंने कहा कि किसी महिला ने तो शिकायत की नहीं है फिर मैं कैसे न्याय कर सकता हूँ ? मैं अवाक् था मैंने कहा इसके मतलब आपके राज्य में दो पुरुष किसी भी सभ्य महिला को कुछ भी कह सकते है पर आप तब तक कुछ नहीं करेंगे जब तक महिला ना कहे !! अब तो जान गए होंगे कि विकर्मादित्य का चिंतन महिला के लिए क्या है ? मैं क्षुब्ध हो गया मैंने महिला से जाकर कहा कि कब तक शोषण का शिकार होती रहोगी अपने अधिकार के लिए लड़ो दुनिया को बताओ कि तुम्हरे साथ क्या किया गया मेरी सारी  बात सुन कर बोली क्या फायदा सच कह कर मुझे बचपन से मरने तक मार ही खाना है तो आज ही उसका प्रतिकार क्यों करूँ आप जो चाहते है करिये मैं आप का साथ नहीं दे सकती !!!! अब बा री मेरी थी आप लोग मेरी हसी  उड़ा सकते है , मुझ पर थूक भी सकते है | खाली समय में मेरे ऊपर चुटकुले बना सकते है | अपने समय को मुझे गप्प का हिस्सा बना कर मनोरंजन कर सकते है क्योकि सब यही पूछ रहे है क्या मैं औरत को जानता हूँ ???( एक सच जो मेरी जीवन का सबसे बड़ा व्यंग्य बन गया )

मैं जिंदगी को रहा खोजता ,

मैं जिंदगी को रहा  खोजता ,
और जिंदगी मुझको ,
न मौत मिली मुझको ,
ना मिली ही उसको ,
दर दर यूँ ही भटकते रहे ,
न कभी आस जगी मन में ,
ना प्यास बुझी मेरी
और न कभी तेरी ,
कोई तो नहीं जो मिलाता,
कहा जाना है बताता ,
ना कभी पूछा मैंने
न कभी बताया उसने .
कितनी तड़प है लगती ,
हूँ उसका जो टूटा हिस्सा ,
तेरा नाम आत्मा है ,
कहा खुद को  परमात्मा उसने .....
आलोक चांटिया

वो हमें जिन्दगी जीना सीखा रहे थे

वो हमें जिन्दगी जीना सीखा रहे थे
हवाओ का रुख मुझे ही बता रहे थे
जिसने खेई नाव समुन्द्र के मझधार में
उसको ठहरे हुए पानी से डरा रहे थे|

ज़िंदगी मे जो भी मिले

जिन्दगी में जितने मिले ,
सभी वफ़ा करके ही गए ,
मैं हर पल साथ रहा सबके ,
और बेवफा सा होता गया ,
जिन्दगी को कभी कहो तो ,
क्या उसने वफ़ा की है कभी ,
मौत ही दामन के साथ रही ,
लोग उससे ही दूर रह गए ............

जब कोई फरेब करता है

हर कोई फरेब करता रहा यह खुद से ,
 मुझसे उसने कर भी लिया तो खुद से ,
 जान कर अंजान रहने की आदत उनकी ,
 मौत मैंने ही बुला ली आज क्यों खुद से ,
 उन्हें सिर्फ मुस्करा कर किसी का बनना ,
 क्या करें जब आप मरना चाहे खुद से .................................. आदमी की तलाश में आप निकालिए तो सही ...हो सकता है पूरी उम्र हाथ खली ही रह जाये

मेरे दर्द मे

मेरे दर्द में शरीक न कोई हुआ ,
सभी अपने दर्द में ही डूबे रहे ,
पूछा तो बोले क्यों मैं करूँ ,
कब आप मेरे में शरीक रहे ,
मसला कुछ ऐसा आदमी का ,
जानवर की तरह जीने लगा ,
अपनी अपनी कह कह कर वो ,
जंगल की तरह फिर रहने लगा ..............

क्यो मन इतना अशांत

क्यों इतना मन अशांत ,
शांत सागर सा तो नही है ,
क्यों थक रहे है पैर आज ,
कल सांसो का अंत तो नही है ,
चले साथ उमंग को लेकर ,
देकर उम्र कही ये भंग तो नही है ,
क्या लाये थे तो लेकर जाये ,
आये यहा जो कोई जुर्म तो नही है,
मिल कर नही चले तो क्या ,
अकेले थे आये ये जंग तो नही है ,
आलोक की चाहत अंधेरो में ,
अंधेरो में रहना कोई ढंग तो नही है ,
मैं जो छोडू निशान को अपने ,
अपनों में रहना कोई रंग तो नही है ,
अक्सर तुम आते यादो में मेरी ,
मेरी यादो में रहना कोई संग तो नही है ,
अक्सर मुझे कोई सोता मिला है ,
सपनो में आना कोई प्रसंग तो नही है ....................................कुछ अमूर्त लिखने की चाहत में आज अचानक अपनी तबियत के ख़राब होने पर मैंने यह लाइन लिखी ...................पता नही मुझे अक्सर यही लगता है की एक जानवर अपने पराये लोगो घर सबकी पहचान कर लेता है पर हम मनुष्य होकर भी क्यों ऐसे नही हो पाए एक देश तक के होकर नही हो पाते ??????????? क्या आप देश के लिए सोच पाए .........अखिल भारतीय अधिकार संगठन

जीवन तू भी क्या है

जीवन की अविरल धारा में,
बह कर कुछ निर्माण करो ,
यह धरा चाहती गंगा सी ,
निर्मलता का उत्थान करो ,
कल क्या लाये मैं क्यों देखूं ,
आज भोर को सलाम करो ,
यह जीवन है हीरे के माफिक ,
तन को माटी का कह डालो ,
अपने कर्मो की आंधी को लेकर ,
                                                  भाग्य आज फिर बदल डालो                                 
..........जीवन बार बार नही मिलता आज अगर भगवन आपको मौका दे रहा हैं कि जन्म को जीवन में बदल लो तो प्रयास करो और नए भोर हाथो में ले उसका ही आगाज़ करो .

जीवन को बस देख

जीवन को बस देख पपीहा .........
स्वाति स्वाति चिल्लाता है ........
दौड़ दौड़ के मन यही पर .............
 लौट कर क्यों आ जाता है .........
जब नश्वरता जान लिया है ..........
 अमर सा  क्यों बन जाता है ..........
जी लो बस जो दिखे सामने .........
दुनिया में लौट कौन फिर आता है

बाज़ार

बाज़ार ................
एक ऐसी जगह जहा
हर तरफ कुछ बिकने को
कुछ खरीदने को
कोई इच्छा से तो ,
कोई बेमन से ,
बिकने और बेचने में व्यस्त
मैं आज बाज़ार में
खड़ा था .......
और आप !!!!!!!!!!!!!!

किसको सुनाऊ दर्द

किस को सुनाऊ दर्द ,
सर्द है चेहरा मेरा ,
किसको कहूँ खुदगर्ज,
गर्ज पर नही सवेरा ,
मिलता नही जो चाहो ,
न चाहा साथ हो तेरा ,
मगर रास्ते कटते नही ,
नही शमशान में डेरा ,
आलोक न हो जहाँ ,
क्यों न हो वहां अँधेरा ,
जिन्दगी जब तुझको चाहा ,
मौत का पसरा बसेरा................................

क्यो लिखूँ कुछ ???????

क्यों लिखूं कुछ ऐसा जो ,
दिल की कहानी कह जाये ,
क्यों दिखाऊ कुछ ऐसा जो ,
आँखों से बह निकल जाये ,
मेरे घर में अँधेरा ही रहा ,
आंगन में उसके धूप खिली ,
अकेले जीवन पे जाने कब वो,
राह में मुझको खड़ी मिली ,
हर बात को मेरे काँटों सा माना,
रिश्ते को कब किसने मेरे जाना ,
रह गया दूर अँधेरे से आलोक ही ,
स्मृति शेष है अब उसका आना ,
बता देना पश्चिम में गया हूँ मैं ,
अब मुश्किल है लगता तुरंत पाना ,.............................कौन है  वो जानते हैं ??????????????? जी जी मेरी सांसे जिनको मैं समझ ही नही पाया और अब अपने अंत के लिए तैयार हूँ ........क्या आपको अपने बारे में पता हैं ?????????????

उम्र की ऐसी की तैसी

उम्र की ऐसी की तैसी... !👍

घर चाहे कैसा भी हो..
उसके एक कोने में..
खुलकर हंसने की जगह रखना..

सूरज कितना भी दूर हो..
उसको घर आने का रास्ता देना..

कभी कभी छत पर चढ़कर..
तारे अवश्य गिनना..
हो सके तो हाथ बढ़ा कर..
चाँद को छूने की कोशिश करना .

अगर हो लोगों से मिलना जुलना..
तो घर के पास पड़ोस ज़रूर रखना..

भीगने देना बारिश में..
उछल कूद भी करने देना..
हो सके तो बच्चों को..
एक कागज़ की किश्ती चलाने देना..

कभी हो फुरसत,आसमान भी साफ हो..
तो एक पतंग आसमान में चढ़ाना..
हो सके तो एक छोटा सा पेंच भी लड़ाना..

घर के सामने रखना एक पेड़..
उस पर बैठे पक्षियों की बातें अवश्य  सुनना..

घर चाहे कैसा भी हो..
घर के एक कोने में..
खुलकर हँसने की जगह रखना.

चाहे जिधर से गुज़रिये
मीठी सी हलचल मचा दिजिये,

उम्र का हरेक दौर मज़ेदार है
अपनी उम्र का मज़ा लिजिये.

ज़िंदा दिल रहिए जनाब,
 ये चेहरे पे उदासी कैसी
वक्त तो बीत ही रहा है,
 उम्र की एेसी की तैसी.. !😀😃

Friday, October 4, 2019

अँधेरे में क्यों रहे

क्यों इतनी है धूप, 
 छाँव की आस नही ,
 क्यों प्यासा है मन , 
 नीर क्यों पास नही ,
 बादल है चहुँ ओर, 
 खेत क्यों सूख रहे , 
 अनाज भरे मठोर, 
बच्चे क्यों भूखे रहे , 
आलोक पास में सबके , 
 फिर अँधेरे में क्यों रहे.........................
आलोक चान्टिया

Monday, September 30, 2019

माना कि मन हताश है

माना की आज मन हताश है ,
पर बंजर में भी एक आस है ,
चला कर तो एक बार देख लो ,
अपाहिज में चलने की प्यास है ,
कह कर मुझे मरा क्यों हँसते,
यह भी लीला उसकी रास है ,

लौट कर आऊंगा या नही मैं ,
क्या पता किसको एहसास है ,
लेकिन ये सच कैसे झूठ कहूँ ,
मौत के पार ही कोई प्रकाश है ,
आओ बढ़ कर उंगली थाम लो ,
हार कर भी मुझमे उजास है ,
पागल मुझको कहकर खुद ही ,
देखो आज वो किसकी लाश है ,
आज कर लो जो मन में है कही ,
जाते हुए न कहना मन निराश है ,
सभी को नही मिलता आदमी यहा,
आज जानवरों का यही परिहास है ,....................आइये कुछ देर कही यह सोच कर देखे कि हम को सोने से पहले सुबह उठने की जितनी आशा है ..क्या जीवन में असफलता और हरने के बाद भी उतनी आशा है ............क्या ऐसे किसी अधिकार को आप लड़ रहे है जो आपसे दूर है

विकास का भारत

नमन काव्योदय आज का कार्य
दिनांक -३०-०९-२०१९विषय-गरीबी
सड़क के किनारे,
भारत माँ,
चिथड़ो में लिपटी ,
इक्कीसवी सदी में ,
जा रहे देश को ,
दे रही चुनौती,
खाने को न रोटी ,
पहनने को न धोती ,
है तो उसके हाथ में ,
कटोरा वही ,
जिससे झलकती है ,
प्रगति की पोथी सभी ,
किन्तु हर वर्ष ,
होता है ब्योरों का विकास ,
हमने इतनो  को ,
बांटी रोटी ,
और कितनो को आवास ,
किन्तु ,
आज भी है उसे ,
अपने कटोरे से आस ,
जो शाम को ,
जुटाएगा एक रोटी ,
और तन को ,
चिथड़ी धोती ,
पर लाल किले से,
आएगी यही एक आवाज़ ,
हमने इस वर्ष ,
किया चहुमुखी विकास ,
हमने इस वर्ष ,
किया चहुमुखी विकास |
डॉ आलोक चान्टिया"महा-रज"

Saturday, March 9, 2019

औरत के लिए कौन बोलेगा

औरत !!!!!!!!!!!!!!!!
वो चुप रह कर
औरत का बीच चौराहे
पर चीर हरण
करवाते है ,
मारना पीटना .
गाली उत्पीड़न देख
कर भी चुप रह जाते है ,
क्योकि वो भीष्म है
शासन की कुर्सी
से आज भी बंधे है ,
सब कुछ देखते है
पर आँखों के सामने
उनके बच्चे ,
उनका वेतन
उनका भविष्य
घर परिवार की जिम्मेदारियां
हस्तिनापुर बन कर
सामने आ जाते है |
और वो सब देख कर भी
चुप रह जाते है ,
अनसुना कर जाते है |
क्योकि वो जानते भी है
और मानते भी है ,
द्रौपदी खुद ही उनके
विनाश की शपथ लेगी ,
आदमी से ज्यादा
कृष्ण से रोयेगी ,
उसकी गरिमा , अस्मिता
का अविरल युद्ध ,
खून से लेथ पथ ,
उन्ही के सामने होगा
अब बारी समाज की होगी
कलम के दावेदारों की होगी |
कोई द्रौपदी पर
कविता लिख डालेगा
कोई उसे महान
महिला कह डालेगा ,
कोई उस पर कहानी
उपन्यास , नाटक ,
की रचना करेगा
खुद को साहित्यकार
बना कर मंडन करेगा
पर चौराहे पर नग्न
इज्जत को देख चुप रहेगा
खुद की दो रोटी
और इज्जत से ज्यादा
वो क्यों कुछ भी
कभी भी खुल कर
औरत के लिए कहेगा
कल आज और कल
औरत यूँ ही खुद
को आजमाती रहेगी
और किसी मंच से
कहानी नाटक , नौटंकी
कविता चलती रहेगी ,
लेखनी के दलाल
कभी औरत के लिए
नहीं लौटायेंगे अपने
शाल ,और सम्मान
क्योकि वो भी तो
कलम की भूख में
चाहते औरत का अपमान |
द्रौपदी कितनी कातर है
देख अपना ये सिलसिला
कल भी और आज भी
घर के बाहर उसे क्या मिला !!!!!!!!!!!!!!!!!!
आइये औरत के लिए कुछ दिन कुछ पल सच के लिए जिए मैंने ये लाइन उन उच्च कोटि के साहित्यकारों को समर्पित की है जो ये जानने के बाद भी की लड़की के साथ अन्याय हुआ है वो लड़की पर ही ऊँगली उठा कर अपने को साहित्यकार बनाने में जुटे रहते है ...............डॉ आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Wednesday, January 30, 2019

मेरी जान

श्मशान में खड़ा मै,
रागिनी गा रहा हूँ ,
मौत को सुना कर ,
अभी लोरी आ रहा हूँ ,
जान कर भी बहरे ,
क्यों बने जा रहे हो ,
कोई आदमी तडपता,
नही देख पा रहे हो ,
मेरी मौत की दावत ,
हो तुम्हे ही मुबारक ,
आलोक का जनाजा ,
लिए कहा जा रहे हो ,
देख मुझको जिन्दा,
क्यों मरे जा रहे हो ,
.......................काश मानव शास्त्र में मनुष्य बनाने के तरीके भी पढाये जाते ......Dr Alok chantia AIRO

Sunday, January 20, 2019

मौत

आज लिखने को सिर्फ दर्द है ,
क्योकि उनका चेहरा सर्द है ,
खोया है उनको जो अपने है ,
आज जो है पर अब सपने है ,
कल जिनकी ऊँगली सूरज थी ,
कल जिनकी थपकी चाँद थी ,
आज वही खुद तारे बन गए ,
पुरखो से वो हमरे बन गए ,
पुकारने पर लौटेगा सन्नाटा ,
बेटा कहने कोई नहीं आता ,
कल जिसके कदमो पर सर ,
आज उसकी चिता जला रहा ,
ये दुनिया में मैं क्या पा रहा ,
अपने ही रोज खोता जा रहा ,
कोई है जो बताये आलोक कोआज ,
क्यों उनके घर अँधेरा होता जा रहा

मताधिकार

मताधिकार ......मताधिकार
प्रजातंत्र का देखो ये ,
अद्भुत सा हथियार
देश को हम बदल देंगे ,
विकास पे हम फिर चल देंगे ,
डाल के मत को बदल डालो
राजनीती इस बार
मताधिकार मताधिकार .....
आप भी आकर मत डालो
हम भी आकर मत डाले
आस पड़ोस से कह दो निकलो,
छोड़ के घर बार ,
मताधिकार ...मताधिकार .....
बूंद बूंद से घट है भरता ,
हर एक मत से समाज है बनता ,
राम राज्य का मत से कर दो
सपना फिर साकार ...
मताधिकार ..मताधिकार ....
यथा राजा तथा प्रजा ,
यथा भूमि तथा तोयम
आपका मत बना देगा
जनता की सरकार
मताधिकार मताधिकार

Friday, January 18, 2019

भरोसा

जो मर गए या ,
मरे से जी रहे है ,
दरकार वही ही चार,
कंधो की कर रहे है ,
जिन्दा है जो या ,
जिन्दा समझ रहे है ,
वही आज खुद पे ,
यकीन कर रहे है ,
रास्ते वो खोजते जो,
बनाते रास्ते नहीं,
जिन्हें भरोसा पावों पर ,
आलोक वही कर रहे है .........................................शुभ रात्रि
डॉ आलोक चांटिया
अखिल भारतीय अधिकार संगठ

जिन्दगी

जिन्दगी इस सच के कुछ भी नहीं ,
कि मौत रोटी से हारती है ,
जब रोटी भी थक जाती है ,
तब कही साँस हमें मारती है
२-
मैंने ही तो माँगा था ,
सांसो का कारवां तब ,
क्यों थक रहे हो आज ,
मानव बन कर अब
३-
कितने हताश दिखे तुम ,
आज रिश्तो के बाज़ार में ,
जो भी बिक रहा था वहा,
बस कुछ ही हज़ार में ,
कितना चाहा कोई मिले ,
बिना किसी मोल तोल का ,
पर दिखाई जो दिया कभी ,
पता नहीं किस खोल का

मन हसता है

कभी कभी मन भी हस लेता है ,
कोई ओठो में बस लेता है ,
पर कौन देखता इन आँखों में ,
जो सन्नाटो को भर लेता है ,
हर तरफ हाथो की हल चल ,
कोई पैरो में कुचल लेता है ,
ऐसे तो आलोक है अंधरे में भी ,
पर कौन पश्चिम को वर लेता है ,
चल कर जिन्होंने देखा नंगे पांव ,
वही काँटों से मोहब्बत कर लेता है ,
उनको मालूम है जीवन का मतलब ,
जो एक बार मौत को जी लेता है ,
क्या चलोगी और जिन्दगी यू ही ,
जब मन ओठो का नाम पी लेता है

Thursday, January 17, 2019

विरासत

जिन्दा तो वो भी है ,
जो अब जिन्दा नहीं है ,
अक्सर वही तो रहते है ,
हमारी आपकी बातों में ,
आप को जनता ही कौन,
अगर वो साथ में नहीं ,
एक विरासत बनाते है ,
जैसे सपने रातों में ,
कभी मत कहना कि,
तुम मर गए हो कभी ,
क्योकि जिन्दा थे कहाँ ,
बात तुम्हारी बाकी अभी

चक्र

क्यों रोता है मन ,
किसको जीता है तन ,
मैं तो अकेला आया ,
फिर ये किसको पाया ,
मैं जाऊंगा भी अकेले ,
छूटेंगे दुनिया के मेले ,
तो कौन साथ में हैं ,
आज फिर रात में हैं ,
दिख तो सन्नाटा रहा ,
दिल ने फिर क्या सहा,
धीरे से किसने कहा ,
सो जाओ सपने को ,
आज सजाने के लिए ,
मौत को पाने के लिए ,
यही सच है सबका ,
बस चक्र है जाने के लिए ...................................क्या जन्दगी को आप जानते है या फिर मौत तक पहुचने के रस्ते को जीवन कहते रहे

समय

मुझको मालूम है ,
कि मेरी जिन्दगी में ,
सुबह का सबब ,
थोडा कुछ कम है ,
लेकिन जरा उन ,
अंधेरो से पूछो ,
जो मेरे साथ है,
रौशनी उनका दम है ,
बंजर सूखी जमीन ,
रौंदी गयी पावों से,
सुबह से नहीं वो भी ,
अँधेरी राह से नम है ........................
कष्ट से भागने के बजाये उनका स्वागत कीजिये क्योकि दर्द देकर ही सृजन का अर्थ स्पष्ट किया जाता है|

डॉ आलोक चान्टिया
अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Wednesday, January 16, 2019

विकास का भारत

विकास का भारत .......राजनीति के आईने में
सड़क के किनारे ,
भारत माँ चिथड़ो में लिपटी ,
इक्कीसवी सदी में जा रहे देश को दे रही चुनौती ,
खाने को न रोटी ,
पहनने को न धोती ,
है तो उसके हाथ में कटोरा वही ,
जिससे झलकती है प्रगति की पोथी सभी ,
किन्तु
हर वर्ष होता है ब्योरो का विकास ,
हमने इतनो को बांटी रोटी ,
और कितनो को आवास ,
लेकिन
आज भी है उसे अपने कटोरे से आस ,
जो शाम को जुटाएगा ,
एक रोटी ,
और तन को चिथड़ी धोती ,
पर ,
लाल किले से आयगी यही एक आवाज़ ,
हमने इस वर्ष किया चहुमुखी विकास
हमने इस वर्ष किया चहुमुखी विकास