Monday, September 30, 2019

माना कि मन हताश है

माना की आज मन हताश है ,
पर बंजर में भी एक आस है ,
चला कर तो एक बार देख लो ,
अपाहिज में चलने की प्यास है ,
कह कर मुझे मरा क्यों हँसते,
यह भी लीला उसकी रास है ,

लौट कर आऊंगा या नही मैं ,
क्या पता किसको एहसास है ,
लेकिन ये सच कैसे झूठ कहूँ ,
मौत के पार ही कोई प्रकाश है ,
आओ बढ़ कर उंगली थाम लो ,
हार कर भी मुझमे उजास है ,
पागल मुझको कहकर खुद ही ,
देखो आज वो किसकी लाश है ,
आज कर लो जो मन में है कही ,
जाते हुए न कहना मन निराश है ,
सभी को नही मिलता आदमी यहा,
आज जानवरों का यही परिहास है ,....................आइये कुछ देर कही यह सोच कर देखे कि हम को सोने से पहले सुबह उठने की जितनी आशा है ..क्या जीवन में असफलता और हरने के बाद भी उतनी आशा है ............क्या ऐसे किसी अधिकार को आप लड़ रहे है जो आपसे दूर है

5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 01 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद

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  2. वाह बहुत शानदार सृजन।

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