हाथ
छुड़ा कर चली रात जब ...................नींद को छोड़ खुली आँख तब
...........जो देखा वो मन को भाया.................पूरब मिलने मुझसे था आया
..............अन्जाना वो भी न मुझसे ................पर लगा उसे आज ही
पाया ............भरी चपलता चाल में मेरी .............आलोक का स्पर्श कुछ
ऐसा छाया ........................प्रेम की अपनी दास्ताँ है और उसे समझना
किसी के बस में नही है पर ऐसा लगता है कि हम अपनी जरूरत के अनुसार प्रेम
करते है .कभी रात के कभी दिन के किसी एक के होकर रहना हमारी फितरत नही है
पर सोच तो सकते है ना तो चलिए कह ही देते हैं सुप्रभात
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