जिन्दगी इस सच के कुछ भी नहीं ,
कि मौत रोटी से हारती है ,
जब रोटी भी थक जाती है ,
तब कही साँस हमें मारती है
२-
मैंने ही तो माँगा था ,
सांसो का कारवां तब ,
क्यों थक रहे हो आज ,
मानव बन कर अब
३-
कितने हताश दिखे तुम ,
आज रिश्तो के बाज़ार में ,
जो भी बिक रहा था वहा,
बस कुछ ही हज़ार में ,
कितना चाहा कोई मिले ,
बिना किसी मोल तोल का ,
पर दिखाई जो दिया कभी ,
पता नहीं किस खोल का
कि मौत रोटी से हारती है ,
जब रोटी भी थक जाती है ,
तब कही साँस हमें मारती है
२-
मैंने ही तो माँगा था ,
सांसो का कारवां तब ,
क्यों थक रहे हो आज ,
मानव बन कर अब
३-
कितने हताश दिखे तुम ,
आज रिश्तो के बाज़ार में ,
जो भी बिक रहा था वहा,
बस कुछ ही हज़ार में ,
कितना चाहा कोई मिले ,
बिना किसी मोल तोल का ,
पर दिखाई जो दिया कभी ,
पता नहीं किस खोल का
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