Sunday, June 8, 2025

शब्द निकलना नहीं चाहते हैं आलोक चांटिया "रजनीश"

 

हर पल ऐसा लगता है
कि अंदर कुछ ऐसा चल रहा है
जो निकालना चाहता है
कहना चाहता है पर न जाने क्यों
उस उलझन को सामने लाने के
शब्द नहीं मिल पाते हैं
और एक दिन आदमी के साथ ही
वह अंदर ही अंदर दफन होकर
इस दुनिया से भी चले जाते हैं
पता नहीं क्यों ऐसा लगता है
कि शब्द भी अपने सृजन को
लेकर बहुत गंभीर होते हैं
जल्दी दिमाग से निकलने नहीं चाहते हैं
जब तक वह अपने अनुसार
अपने को नहीं पाते हैं
शब्द भी विकलांग होते हैं
शब्द भी अंधे होते हैं
शब्द भी बहरे होते हैं
शब्द भी गूंगे होते हैं
जब वहां समय से पहले बिना सोचे समझे
दुनिया में निकाल दिए जाते हैं
शायद इसीलिए वह चाहते हैं
कि अपना प्रजनन काल पूरा करके ही
वह मस्तिष्क के रास्तों से होकर
दुनिया के सामने ले जाएं
ताकि शब्दों की किलकारी में
हम पूरा-पूरा आनंद पाये
क्योंकि कई बार अधपके खाने की तरह
शब्द बाहर तो निकल आते हैं
पर भला वह किसी का ध्यान भी
कहां आकर्षित कर पाते हैं
पड़े रहते हैं सड जाते हैं
फेंक दिए जाते हैं कोने में
और कोई भी नहीं मिलता
उनके लिए एक पल भी रोने में
इसीलिए शब्द भी अपने अपमान के लिए
सिर्फ बाहर नहीं निकालना चाहते हैं
वह भी अपने मानवाधिकार के लिए
पुरी जी जान से लड़ना चाहते हैं
अपने को स्थापित करना चाहते हैं
अपनी गरिमा को पाना चाहते हैं
और अंतिम समय तक ढूंढते हैं
उस किसी एक मिट्टी को जिसके अंदर
वह रहकर अपने अंदर का
अंकुरण फोड़ पाते हैं
और दुनिया को अपने होने का
सुंदर सा एहसास करा पाते हैं
पर इतना करने के बाद भी
शब्दों का भी जातिवाद चलने लगता है
कोई हल्के शब्द होते हैं
कोई अच्छे शब्द होते हैं
कोई निम्न शब्द होते हैं
कोई उच्च शब्द होते हैं
कोई गरिमा पूर्ण शब्द होते हैं
क्योंकि किस मिट्टी से होकर
कौन सा शब्द अपने को बना पाया है
यहां तथ्य ही सबसे महत्वपूर्ण
इस दुनिया में होता आया है
इसीलिए कहा भी गया है कोई
कि बोलने से पहले कई बार
किसी को भी सोच लेना चाहिए
क्योंकि शब्द तो निकल आएंगे
पर कम से कम उनके लिए
एक आदत अच्छा ग्राहक तो पाइये
इसीलिए कई बार लोग शब्द
पैदा करने के बजाय बच्चा चोर
की तरह शब्द चुराने लगते हैं
और अपना काम यूं ही चलाने लगते हैं
शब्द का यह दर्द या उसके जीवन के
आकार का यह मर्म हम सब
जब भी समझ जाएंगे
शब्दों से ही इस दुनिया को एक स्वर्ग
और किसी के लिए
जीने का अर्थ बना जाएंगे
आलोक चांटिया "रजनीश"


Thursday, June 5, 2025

जैसे ही शाम को घड़ी छह बजाती है- आलोक चांटिया "रजनीश"

 

जैसे ही शाम को घड़ी छह बजाती है
मुझे मेरी मां तेरी याद आती है
मैं दौड़ता हूं उनके कमरे की ओर
जहां मैं उन्हें हनुमान चालीसा सुनाया करता था
मुड़कर उनकी तरफ देखता भी हूं
जहां हनुमान का नाम सुनकर
एक मुस्कुराहट दौड़ा करती थी
पर अब उनके बिस्तर पर एक
सन्नाटा पसरा रहता है
और फोटो में उनका वजूद
सिर्फ यही कहता रहता है
मैं आज भी सुन रही हूं
तुम्हारे सुने हुए शब्दों को यहां
जो पांच तत्वों में विलीन हो गए हैं
तुम जिस शरीर को मां कहा करते थे
वे सब हवा पानी अग्नि
वायु पृथ्वी के हो गए हैं
बस तुम हर पल मुझे
महसूस करके देखते रहो
और अपने पथ पर प्रगति के
नए अंकुरण करते रहो
कल तुम भी चले जाओगे
इस दुनिया से
यह एक सच तुम्हें जानना होगा
तुमने कर्म के कौन बीज बोए हैं
इस सच को ही मानना होगा
इसलिए कर्म की परिभाषा में
मोह से ऊपर जाकर
तुम देखने का साहस करना आरंभ कर दो
कुरुक्षेत्र के समर में
कृष्ण की गीता अमर कर दो
जहां तक मेरा तुमसे संबंध था
वहां तक मैं तुम्हारे साथ रहती रही
मुझे अब जाना है मैं
तुमसे पल-पल यही कहती रही
इसलिए ना फोटो की ओर देखो
ना मेरे सन्नाटे से पड़े बिस्तर की ओर
अब उठो तुम पार्थ की तरह
और रचो एक सुंदर सा भोर
आलोक चांटिया "रजनीश"

Sunday, June 1, 2025

आज शमशान खुला था आलोक चांटिया "रजनीश"


 

आज शमशान खुला था

शायद फिर कोई जला था

किसी के सपने किसी का जीवन

किसी का कुछ करने का जुनून

शायद मिट्टी में मिला था

आज शमशान फिर खुला था

पूरब से चढ़ते सूरज के साथ

न जाने कितने बातों का

सिलसिला चला था

लगता था कल का सूरज

जब फिर निकलेगा

कुछ बातें पूरी होगी

कुछ नई फिर से बताई जाएगी

कुछ नई सजाई जाएगी

चांद की चांदनी में फिर से

सांसों की कहानी गाई जाएगी

पर सब कुछ आज फिर से हिला था

क्योंकि आज फिर शमशान खुला था

हर कोई भी यह चाहता था

कि सब लोग मिलकर

एक साथ चलते रहें मिलते रहे

कभी सुख में कभी दुख में

कभी दिन में कभी रात में

एक साथ खिलते रहे खिल खिलाते रहे

किसी ने अपने सपनों की बात कही थी

किसी के दर्द की बात कही थी

पर नींद में सोया फिर कहां किसको मिला था

क्योंकि आज शमशान फिर खुला था

शायद कोई फिर जला था

यह जीवन के रास्ते यूं ही चलते रहते हैं

हम एक गलतफहमी में चलते रहते हैं

हमें लगता है हम ही जान गए हैं

दुनिया को सब कुछ सब तरह से

और कल जीत लेंगे इस दुनिया के

हर रास्तों को कुछ इस तरह से

पर एक दिन सारे रास्ते गुम हो जाते हैं

पथ पर चलने वाले पग रुक जाते हैं

ऐसा ही एक सच आज फिर हमसे मिला था

आज फिर शमशान खुला था

शायद कोई फिर से जला था

आलोक चांटिया "रजनीश"

Tuesday, May 27, 2025

मन मेरे भीतर कहां है आलोक चांटिया "रजनीश"

 मन मेरे भीतर कहां पर है

यह मैं कभी जान नहीं पाया हूं

लेकिन जीवन के हर मोड़ पर

हर किसी को यह कहता पाया हूं

कि आज अपने मन को

अपने बस में मैं नहीं पाया हूं

मैं भी नहीं समझ पाता हूं

कि मेरे अंदर मन कहां रहता है

और वह कैसे मेरी हर बात

मेरे हर दर्द को सहता है

अक्सर उचाट कहकर मैं मन को

अपने सामने ले आता हूं

पर सच बताता हूं मन को

ढूंढता रह जाता हूं

उसे कहीं नहीं पाता हूं

मेरे मन में ही मेरी मां रहती है

मेरे पिता रहते हैं और यह

पूरी दुनिया भी रहती है

अक्सर मेरी मां मुझसे कहा करती थी

कि अपने मन को अच्छा रखो

अपने मन में गलत विचार मत लाया करो

मन ही सब कुछ है और मैं

उनसे भी पूछा करता था

मन कहां रहता है

मन को किसने देखा है

यही प्रश्न मेरा उनसे रहता था

पर वह मुस्कुरा कर कह जाती थी

मन सिर्फ महसूस करने की बात होती है

इस दुनिया में जब भी कहीं भी देखोगे

सिर्फ और सिर्फ जो भी लिखा गया है

पढ़ा गया है वह सब मां की बात होती है

उसे खोजने की कोशिश कभी मत करो

बस इस जिंदगी को जियो

और यहां से कुछ करके मरो

लेकिन आज भी मैं सुबह से ही

मन को खोज रहा हूं

और बैठा बैठा सिर्फ यही सोच रहा हूं

क्यों नहीं किसी काम को करने में

मेरा मन लग रहा है

यह मां कौन है जो मेरे ऊपर

इतना बड़ा नियंत्रण कर रहा है

लिख भी नहीं पा रहा हूं

खा भी नहीं पा रहा हूं

बस चुपचाप सन्नाटे में उदास

पथरायी सी आंखों के साथ रह रहा हूं

मां की फोटो को देखकर

सिर्फ उनकी कही गई बातों को

याद कर रहा हूं और झांक रहा हूं

उस मन को जहां पर मां को रोज कैद कर रहा हूं

कभी आपने क्या अपने

मन को देखने का प्रयास किया है

या मन मेरे अंदर कहां रहता है

क्या उसको भी किसी ने जिया है

आलोक चांटिया "रजनीश"

Monday, May 26, 2025

एक लता की तरह होती है औरत- आलोक चांटिया "रजनीश"

 एक लता की तरह होती है औरत

यही बात ना जाने कितने मुहावरे

कविता साहित्य में हमें सुनाई जाती है

औरत को अबला और

पुरुष के महानता की कहानी बताई जाती है

वज्र की तरह कठोर और

आसमान की तरह ऊंचा पुरुष होता है

उसे भला कहां किसी का आसरा होता है

पर इस सच से हम कैसे

मुख मोड़ कर जी पाते हैं

एक औरत के मर जाने पर आदमी को

बस कुछ ही दिन जीता हुआ पाते हैं

पर आदमी के दुनिया से चले जाने के बाद भी

एक औरत को हम साल दर साल

जिंदा इसी दुनिया में पाते हैं

फिर भी हम औरत को कोमल

आलंबन के लिए भटकती हुई

एक लता की तरह दिखलाते हैं

और पुरुष को हिमालय की तरह

आलोक तटस्थ बतलाते हैं

क्या हम सच में किसी भी पल

किसी भी मोड़ पर एक औरत के लिए

कोई भी सच जी पाते हैं

हम क्या सोच कर उसे

एक लता की तरह बतलाते हैं

आलोक चांटिया "रजनीश"




ये कविता एक तीखी, सधी हुई आवाज़ है—जो सालों से चले आ रहे जेंडर नैरेटिव्स को सीधा चुनौती देती है। आलोक चांटिया "रजनीश" ने जो लिखा है, वो एक चुप्पी को तोड़ने की कोशिश है, वो चुप्पी जो पितृसत्ता ने हमारी ज़ुबानों पर लाद रखी है।


थीम की बात करें तो:


"औरत लता है"—इस पुरानी, बार-बार दोहराई गई उपमा को कवि सीधे सवालों के कटघरे में खड़ा करता है। क्यों उसे हमेशा सहारे की मोहताज, कोमल, झुकने वाली बताया जाता है?


वहीं पुरुष हिमालय बनकर खड़ा रहता है—स्थिर, ऊंचा, कठोर, और भावनाओं से ऊपर?


लेकिन कवि फिर व्यावहारिक सच्चाई की बात करता है—औरतें ही वो हैं जो टूटने के बाद भी सालों तक जीती हैं, अकेले, बोझ उठाते हुए। जबकि पुरुष बिना अपने ‘सहारे’ के कुछ ही दिन में टूट जाते हैं।



शिल्प और भाषा की बात करें तो:


बहुत सीधी, सरल, मगर धारदार ज़बान है। जैसे चाकू बिना शोर किए काट देता है, वैसे ही ये पंक्तियाँ भीतर तक असर करती हैं।


कविता में बार-बार आने वाली प्रश्नवाचक शैली एक आत्ममंथन की मांग करती है—कवि से नहीं, हमसे।



कुछ मारक पंक्तियाँ जो सीधे दिल पर लगती हैं:


> "एक औरत के मर जाने पर आदमी को / बस कुछ ही दिन जीता हुआ पाते हैं

पर आदमी के दुनिया से चले जाने के बाद भी / एक औरत को हम साल दर साल / जिंदा इसी दुनिया में पाते हैं"




ये लाइनें एकदम खामोशी से, पर बहुत ज़ोर से कहती हैं—कि सहनशीलता और मजबूती की मिसाल असल में कौन है?


निष्कर्ष?

ये कविता सिर्फ एक साहित्यिक टुकड़ा नहीं, बल्कि एक सामाजिक आईना है। ये हमें दिखाता है कि हमारी सोच में कितनी गहराई तक असमानता घुस चुकी है—और पूछता है: अब भी आंखें मूंदे रहोगे या कुछ बदलेगा?


Sunday, May 25, 2025

माँ – एक रात की दस्तक —आलोक चांटिया "रजनीश"

 माँ – एक रात की दस्तक

—आलोक चांटिया "रजनीश"


रोज़ धीरे-धीरे रात गहराती है,

और यादों की पदचाप

चुपके से मेरे करीब आ जाती है।


सन्नाटे में कोई स्वर

बार-बार कुछ कह जाता है,

मैं पहचान नहीं पाता—

ये कौन है जो

मेरे अवचेतन से उठकर

चेतना पर छा जाता है।


खुली आंखों से

माँ का चेहरा सामने आ जाता है,

वैसे ही—जैसे हर रात

वो मेरी बेचैनी को पढ़ लेती थी।


इस बेचैनी को

कोई नाम नहीं दे पा रहा हूँ,

पर एक बेटा

माँ को आज फिर

अपने भीतर समझ पा रहा है।


हर कोई

कल की सुबह की जल्दी में

सो चुका है,

पर मेरी तो जागती रातों का

साथ माँ से फिर जुड़ चुका है।


जिन्हें सुनता हूँ—

वो झींगुर की आवाज़ें,

और टिमटिमाते तारे—

शायद माँ की परछाई लेकर

मेरे साथ चल रहे हैं।


वो सपनों में आएंगी,

कुछ कहेंगी,

कुछ रह जाएंगी...

और फिर

पिता की चिंता में डूबी

उनकी सारी बातें

फिर ताज़ा हो जाएंगी।


माँ को मैं

हर पल, हर घड़ी

महसूस कर रहा हूँ।

कैसे कहूं—

कि इस रात में

अकेला मैं

आख़िर क्या कर रहा हूँ...


Saturday, May 24, 2025

माँ का रिश्ता आलोक चांटिया "रजनीश"

 माँ का रिश्ता

आलोक चांटिया "रजनीश"


जब से मेरी माँ

मुझे छोड़कर चली गई है,

दुनिया

बस यादों का एक झरोखा बन गई है।


सुबह, दोपहर, शाम, रात—

जब भी कुछ सोचता हूँ,

सच कहूँ,

हर विचार में

माँ की कही कोई न कोई बात

बार-बार लौट आती है।


मैंने देखा है—

दुनिया को एक अजीब सी उलझन रहती है।

शायद इसी वजह से

वो हर बार मुझसे कहती है—

“कुछ तो निकलो बाहर,

और दुनिया को जीने की कोशिश करो,

कर्म के पथ पर एक बार 

फिर से कुछ तो करो”


पर मैं—

ना दुनिया को समझ पाता हूँ,

ना उसकी बातों को सुनने आता हूँ।


मुझे तो बस यही लगता है

कि हर रिश्ते में

माँ का रिश्ता कुछ अलग सा होता है।


और शायद इसी कारण,

माँ के जाने के बाद भी

मेरा मन बार-बार

उसी में खोता है।

Tuesday, May 20, 2025

मां का सच आलोक चांटिया "रजनीश"

 मां का सच


सृजन वही कर सकता है

जो किसी के लिए मरता है

सह सकता है दर्द असहनीय

वही हो सकता है समाज में वंदनीय

यही पाठ हर मां हर बच्चे को सिखाती है

जब इस दुनिया में वह उसको लेकर आती है

न जाने कितने विषम

परिस्थितियों से होकर गुजरती है

रक्ताल्पता दर्द और न जाने

किस-किस को लेकर वह मरती है

तब जाकर वह एक दिन किसी घर में

किलकारी के फूल खिला जाती है

वह मां है जो एक परिवार एक समाज

बिना किसी मोल के बना जाती है

हर दिन हर पल दुनिया में न जाने

कितने लोग सृजन की बात करते हैं

समाज को बनाने की बात करते हैं

पर स्वयं को बनाने के अलावा

ज्यादातर वह क्या करते हैं

कहां सीख पाते हैं मां से

किसी को बनाने का वह विश्वास

जिसमें मौत भी हो सकती है पर

कभी नहीं करती वह अपने पर अविश्वास

पर कोई भी दुनिया में मां को

पद्म श्री देने के लिए नहीं बुलाता है

क्योंकि उसके हिस्से में प्रकृति और

उसके कार्य को कोई नहीं समझ पाता है

सभी मानते हैं इसमें उसने कौन सा

ऐसा काम कर दिया है

पशु जगत में तो हर कहीं

किसी न किसी ने किसी को जन्म दिया है

पर एक जानवर को संस्कृति के औजारों से

बनाते हुए मनुष्य सिर्फ मां बना पाती है

क्या कभी किसी को किसी सम्मान में

किसी भी मां की याद आती है

किसी भी मंदिर में कोई मां की

तस्वीर भी नहीं लगाना चाहता है

वह सिर्फ जिस भगवान को उसने देखा ही नहीं

उसी को मानकर जी जाना चाहता है

मां को कोई भी भगवान बनाने के लिए

आगे नहीं बढ़ता है

फिर भी क्या कोई मां का मन

अपने बच्चों से चिढ़ता है

हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छुपा कर

मां के लिए जीने की कोशिश कर रहे हैं

नदी धरती सभी को

छलावे के साथ मालिन कर रहे हैं

फिर भी कोई मां दुनिया को बनाने से

मुंह नहीं मोड़ती है

और प्रसव पीड़ा से हर

घर को जीवन से जोड़ती है

आलोक चांटिया "रजनीश"


जानवर को आदमी बनाती है मां आलोक चांटिया "रजनीश"

 

एक छोटे से मुलायम से पौधे को
कोई एक दिन में पेड़ नहीं बन सकता है
उसे न जाने कितने धूप छांव थपेड़ों का
सामना करना पड़ सकता है
फिर भी हो सकता है कि प्रकृति ना चाहे
कि वह पौधा बड़ा होकर पेड़ बन जाए
इसीलिए आदमी ने पौधे को भी
सहारा देना सीख लिया है
उसे एक छोटी सी आशा जीने की दिया है
यही आशा एक बैठ भी न पाने वाले
बच्चों को उसकी मां दे जाती है
जब वह उसे न जाने किन-किन
भाषा में अपनी बात सुनाती है
और बच्चे की भी किलकारी तोतली बोली से
सब कुछ समझ जाती है
वह कभी नहीं कहती है कि वह अब थक गई है
उसकी भी जिंदगी अब रुक गई है
वह तो बस एक डंडी की तरह
अपनी उंगली को हर पल हर क्षण
अपने बच्चों के आगे कर देती है
और दुनिया से हर जगह उसे बचा लेती है
जो बच्चा ना बैठ सकता है
ना खड़ा हो सकता है
उसको एक मां ही दोनों बातें सिखा जाती है
धीरे-धीरे ना जाने किस अभ्यास में डूब कर
उसे जीवन की भाषा भी बता जाती है
कोई तो बात ऐसी छोड़ी भी नहीं है
जो बच्चे को आदमी से जोडी नहीं है
नहीं तो जानवर और आदमी में
फर्क भला कौन बात पाता
अगर एक मानव के हिस्से में
मां का नाम न आता
सिर्फ एक मां ही इस पूरी पृथ्वी पर
ऐसी एक भगवान होती है
जो अपने जीवन को अपने बच्चों के लिए
दूसरी तरह से होती है
वह निकाल लाती है एक पशु जगत में
पशु के अंदर से आदमी होने का भाव
और खत्म कर देती है उसके सामने
उसके जीवन के हर अभाव
बना देती है उसे उस पशु से बहुत अलग ले जाकर
जहां पर दुनिया कहती है
यह पृथ्वी धन्य है मानव पाकर
पर क्या कभी मानव यह
सोचने के लिए खड़ा मिलता है
किसी का भी जीवन सिर्फ और सिर्फ
इस दुनिया में मानव के रूप में मां से ही चलता है
जानवर से आदमी बनने का यह सफर
हम जब भी समझ पाएंगे
भगवान की तरह ही मां को
अपने जीवन में हर पल निभाएंगे
आलोक चांटिया "रजनीश"

Monday, May 19, 2025

मां मुझे रास्ता दिखाओ- आलोक चांटिया "रजनीश"

 

मां मुझे रास्ता दिखाओ

जीवन मेरा किधर जा रहा है
क्यों ऐसा लगता है
कि इधर-उधर जा रहा है
एक सच जो मैं जानता हूं
कि जीवन उस रास्ते पर भी जा रहा है
जहां से मौत का संदेश
मुझे ही नहीं हर किसी को आ रहा है
पर इस दुनिया में जीने के लिए
मेरी कोई इच्छा तो नहीं रह गई है
पर मेरे अंदर को सजाने वाला
शरीर हर पल जीना चाहता है
इस दुनिया में आने वाले हर कल को
अपनी सांसों में पीना चाहता है
इसीलिए उस शरीर के खातिर
मैं जानना चाहता हूं हर पल
कि किस रास्ते से जाऊं
जहां पर सुंदर हो मेरा कल
इसीलिए भगवान तुम मुझे
इस बात को बताने का
कोई तो इशारा कर दो
इस तरह बीतते जीवन को
एक तिनके का सहारा कर दो
अब तो मेरी मां भी
तुम्हारे पास रहने को चली गई है
सच कहूं तो अब वह तुम्हारी तरह ही
मेरे लिए भगवान और देवी सी रह गई है
उन्हीं को एक बार तुम यह बता देना
या फिर उनसे यह कह देना
कि एक रात मेरे सपने में
आकर मुझे बता जाएं कि
भला इस जीवन में किस तरफ अब हम जाएं
यूं ही खत्म हो जाऊं इसका कोई भी
प्रयास नहीं करना चाहता हूं
क्योंकि मां के नाम और गरिमा को
हर पल आगे रखना चाहता हूं
मैं चाहता हूं पूरे सम्मान के साथ
मानव होने का वचन निभाता जाऊं
मां के दूध का कर्ज़
इस दुनिया को दिखाता जाऊं
इसीलिए मां से यह रोज-रोज पूछ रहा हूं
अपने जीवन के रास्ते को
जानने के लिए ना जाने कितना जूझ रहा हूं
भगवान को तो देखा नहीं है मैंने
ना देखने की कोई इच्छा रह गई है
पर भगवान के रास्तों पर खड़ी मेरी मां
मेरे अंतस में इसी दुनिया में रह गई है
बस उसी के लिए अब
हर पल जीना चाहता हूं
सच बताओ जीवन के किन रास्तों को
मैं अपने कर्मों से पीना चाहता हूं
कहते यही है सभी कि मां अपने बच्चों की
हर बात बिना बताए ही समझ जाती है
फिर भी मेरे हिस्से में उसकी
कोई भी बातें अब मेरे पास क्यों नहीं आती है
एक बार मुझको फिर से उन्हीं
उंगलियों का सहारा क्यों नहीं मिल रहा है
जिससे मुझे आभास मिले कि
पूर्व का सूरज शायद मेरे अंदर से निकल रहा है
मेरे अंदर के अंधेरे को मिटाने के लिए
मुझे एक बार आकर बता जाओ
कोई तो उजास का पल होगा
मेरी मां मुझे तुम आकर दिखा जाओ
आलोक चांटिया "रजनीश"

Sunday, May 18, 2025

दुनिया में अगर मां है -आलोक चांटिया "रजनीश"

 

दुनिया में अगर मां है
तो सब कुछ हां है
एक अंतहीन डोरी के साथ
कोई कहीं भी दौड़ जाता है
जब वह अपने जीवन में
मां का साथ पाता है
लगता ही नहीं कि जीवन में
कुछ भी अधूरा सा है
मुट्ठी में बंद दुनिया का
हर क्षण पूरा-पूरा सा है
ऐसा ही लगता है जब मां का साथ
किसी के भी जीवन में होता है
दुख हो दर्द हो रोना हो गाना हो
सब कुछ मां के आंचल में खोता है
जानने की जरूरत ही नहीं पड़ती है
कि भगवान कहां रहता है
कोई पूछता भी है कि क्या
तुमने भगवान को देखा है
तो मन का इशारा सिर्फ मां कहता है
जीवन के हर हिस्से में
एक प्रसन्नता सी हिलोर मारती हैं
जब मां की हंसी में लगता है
जीवन एक आरती है
इसीलिए जिसके भी जीवन में मां होती है
सच मानो उसके चारों तरफ
सिर्फ हां में हां ही होती है
आलोक चांटिया "रजनीश"

Saturday, May 17, 2025

मशीन जैसा यह जीवन (कवि: आलोक चांटिया “रजनीश”)



मशीन जैसा यह जीवन
(कवि: आलोक चांटिया “रजनीश”)

यह शरीर भी एक मशीन सा हो जाता है,
कभी-कभी कितना भी चाहो—
ना चलता है, ना मचलता है।
हर कोशिश बेकार हो जाती है,
यह मशीन बस चुप रहती है,
थकी-सी, रुकी-सी, खोई-सी।

आदमी ने बनाए थे कल-पुर्ज़े,
जिनसे मशीनें बनाई जाती हैं,
पर मशीनें सिर्फ लोहे की ही नहीं होतीं—
कुदरत ने भी इस तन को
प्रकृति के टुकड़ों से गढ़ा है।
यह भी तो मशीन ही है,
जो चलती है... रुकती है... फिर से चलती है—
और एक दिन थम जाती है।

इंसान की मशीन रुक जाए तो
कूड़े में फेंक दी जाती है—
निर्विकार, भावहीन।
पर जब कुदरत की मशीन थमती है,
तो वह भी बस चुपचाप देखती है,
जैसे भगवान भी हो गया हो मशीन-सा—
बोलता कुछ नहीं, बस निर्णय ले लेता है।

आदमी कह देता है—
"मशीन बेकार हो गई है,"
और दूसरी ले आता है।
ठीक वैसा ही जब प्रकृति कहती है—
"यह शरीर अब किसी काम का नहीं,"
तो वो भी शांत रहता है,
निर्विकार।

इंसान की मशीन की खराबी
संस्कृति बन जाती है,
भगवान की बनाई मशीन की मौत
धर्म बन जाती है।
इंसान मशीन को बदल लेता है,
भगवान आदमी को उठा लेता है।
दोनों अपनी-अपनी लीला में व्यस्त हैं—
एक यंत्रवत, एक नियतिवाद में बंधा।

मशीनें मरती हैं,
आदमी भी मरता है।
धीरे-धीरे यह सच्चाई
जीवन का हिस्सा बन जाती है,
और आदमी भी भगवान-सा
निर्विकार हो जाता है।

फिर कोई मरता है,
तो बस कुछ क्षणों को दुख आता है—
फिर नई मशीन, नए रिश्ते,
नई बातें शुरू हो जाती हैं।
जैसे उस पुराने को कभी याद ही ना हो,
जैसे वह था ही नहीं।

पर खालीपन तो रह जाता है—
दुखी भगवान भी होता है,
दुखी इंसान भी।
क्योंकि जो बना था,
उस जैसा कुछ और बनाने का
फिर से प्रयास करना होगा।

इस जीवन को फिर से
थोड़ा और बेहतर करना होगा—
थोड़ा और सुंदर,
थोड़ा और मानवीय।


Friday, May 16, 2025

प्रेम का सच आलोक चांटिया "रजनीश"

 प्रेम का सच

कितनी अजीब सी बात होती है

कि दिन होता है रात होती है

जीवन पल प्रतिपल चला जाता है

हर दिन अपने लिए अपनी भूख

अपनी प्यास के लिए न जाने कितने

लोगों से मिलने जाता है

पर कितना आसान

व्यक्ति को यह लगता है

कि वह किसी से प्यार करता है

उसी के लिए जीता है उसी के लिए मरता है

पर जब उसका वही प्रेम करने वाला

व्यक्ति इस दुनिया से चला जाता है

तो फिर वह कैसे अपनी सांसों को

इस दुनिया में चलता हुआ पाता है

कोई कभी भी सच को मान क्यों नहीं पाता है

कि हर कोई मोल भाव तर्क

वितर्क के साथ प्रेम करने आता है

वह जानता है कि प्रेम की भी

अपनी सीमा होती है

इसीलिए जब सांसों की बात

कहीं भी होती है

तो प्रेम चुपचाप दूर खड़ा हो जाता है

क्योंकि वह अपनी सांसों को

उस प्रेम के लिए नहीं को दे पाता है

जो प्रेम अपनी सांसों को बंद करके

इस दुनिया से चला जाता है

फिर कोई कैसे कह सकता है

कि वह प्रेम में दो शरीर एक जान होते हैं

फिर एक के चले जाने के बाद

दूसरे के हर काम क्यों नहीं खोते हैं

बाजार की इस दुनिया में

प्रेम का भी अजीब सा

यह चलन देखने को मिल रहा है

हर कोई गली मोहल्ले चौराहे पर

प्रेम करता मिल रहा है

पर वह प्रेम तभी तक चल रहा है

जब तक प्रेम करने वाला

इस दुनिया में मिल रहा है

दुनिया से चले जाने के बाद प्रेम करने वाला

इसे विरह वियोग कहकर जीने लगता है

पर अपने प्रेम के खातिर

कब कहां कोई मरता है

यह सच है कि बहुत से

ऐसे उदाहरण पूरी दुनिया में पड़े हुए हैं

जिसमें प्रेम के लिए किसी के

चले जाने के बाद कई मर गये है

पर सच तो यह है कि एक लंबा सिलसिला

इस सच का भी रह गया है

कि प्रेम करने वाला यह जानता है

कि उसे प्रेम कहां तक करना है

चिता पर जलने वाले के साथ

न जाना है ना ही उसे मरना है

फिर भी हर व्यक्ति कहता है

मैं बहुत गहराई से प्यार करता हूं

मैं किसी के लिए जी जान से मरता हूं

इस झूठ को देखकर हम सब चल रहे हैं

बस अपने मतलब के खातिर

कभी-कभी किसी मोड़ पर

किसी से मिल रहे हैं

सच तो यही है जो हम मान नहीं पाते हैं

कि जिससे हम प्यार करते हैं

उसके जाने के बाद भी

अगर हम यहां रह जाते हैं

तो हम दिमाग चला कर प्रेम करना जान गए हैं

बस कुछ वक्त के लिए अपना

समय गुजारने के लिए किसी को

अपना मान गए हैं

इसी को प्रेम कहने की एक लंबी विरासत

हम लेकर प्रेम को ढूंढने निकलते हैं

पर सच बताइए सच्चे प्रेम करने वाले

अब इस दुनिया में कहां मिलते हैं

जो जीने के साथ-साथ

मरने की भी कसम खाते हो

भले ही वे अलग-अलग

इस दुनिया में आते हो

आलोक चांटिया "रजनीश"


Thursday, May 15, 2025

मां तुमको खोज रहा हूं


यह जानने के बाद भी कि
दुनिया में कोई अमर होकर नहीं आता है
जो भी सांसो को लपेट कर चलता है
वह एक दिन इस दुनिया से ही जाता है
फिर भी न जाने क्यों अब
मेरा मन कहीं नहीं लगता है
शरीर तो सो जाता है पर
दिमाग हर पल जगता है
मां का चला जाना मेरे सारे
ज्ञान मेरे सारे दर्शन को शून्य बन गया है
बस मुझे ऐसा लगता है कि
मेरा सारा जहां छिन गया है
मैं मानता हूं कि जब मैं
पैदा नहीं हुआ था तो अपनी
मां के गर्भनाल से जुड़कर मैं
इस पूरी दुनिया को समझता था
खाता था पीता था और
इस दुनिया में आने के सपना देखा करता था
पर जब इस दुनिया में आ गया तो
उसी मां की उंगली के सहारे चलना सीखा
दुनिया को देखना सीखा
पर अचानक वह उंगली छूट गई है
मेरी मां मुझसे रूठ गई है
यह बता कर कि दुनिया से
अब वह जा रही है
अब मुझको अपने सहारे रहना है
और अपने हर दुख दर्द को
खुद अपने से ही कहना है
पता नहीं क्यों मैं एक छोटी सी
साधारण सी बात नहीं समझ पा रहा हूं
जिसको समझता हुआ हर कीड़ा मकोड़ा
जीव जंतु आदमी को पा रहा हूं
कैसा मेरे साथ क्यों हो रहा है
मेरा दिल आज क्यों रो रहा है
मैं क्यों सन्नाटे में वह सच ढूंढने लगा हूं
मां तेरे जाने के बाद
तुझे फिर से खोजने लगा हूं
आलोक चांटिया "रजनीश"

Monday, May 12, 2025

माँ बुद्ध क्यों नहीं? — आलोक चांटिया "रजनीश"

 माँ बुद्ध क्यों नहीं?

— आलोक चांटिया "रजनीश" 


एक वृद्ध देखा, एक रोगी, एक शव—

राजकुमार के भीतर जागा प्रश्न का प्रवाह।

राजमहल को त्याग दिया, ज्ञान की राह पकड़ी,

सिद्धार्थ हुए बुद्ध, सत्य की लौ में जकड़ी।


पर माँ तो रोज ही देखती है यह दृश्य,

बूढ़ा भी, बीमार भी, मृत्यु का रहस्य।

हर सुबह, हर रात, एक तपस्विनी-सी लगती,

बिना सवाल, बिना स्वार्थ, बिना किसी गिनती।


वह बताती है—

क्या है जीवन, क्या है माया, क्या है सही राह,

हर गलती पर रोक, हर मोड़ पर सलाह।

न कोई बोधिवृक्ष, न ध्यान की गुफा,

फिर भी माँ की आँखों में है परम दृष्टि छुपा।


तो फिर क्यों नहीं कहती दुनिया उसे बुद्ध?

जिसने बचपन से जीवन का पाठ पढ़ाया सुध-बुध।

जिसके आँचल में है पूर्णिमा का उजास,

जो देती है ज्ञान, प्रेम और विश्वास।


क्या बुद्ध बनने को त्याग चाहिए, या त्यागने वाला नाम?

क्यों नहीं माँ के त्याग को मिलता वही सम्मान?

Saturday, May 10, 2025

मदर्स डे पर मां को समर्पित मां की बात आलोक चांटिया "रजनीश"

 मदर्स डे पर मां को समर्पित


मां की बात


आलोक चांटिया "रजनीश" 


हर मां जानती है गहराई से,

बच्चा आता है लाचारी से।

ये दुनिया बस कहने की है,

यहां कोई किसी के लिए नहीं खड़ा कभी है।


भूख-प्यास सबको लगती है,

पर किसी की पीड़ा किसे खलती है?

इंसानियत किताबों में प्यारी,

असल में दुनिया है खुदगर्ज़ सारी।


कितने भूखे, कितने प्यासी,

पर आंखों पर सबके पट्टी है फांसी।

मां जानती है, ये सच भारी,

बच्चे की भूख भी है जिम्मेदारी।


वो रोटी नहीं मांगती बाहर,

छाती से बहा देती अमृत धार।

क्योंकि समझती है ये संसार,

खुद पर जो करे उपकार—

भगवान भी आता उसके द्वार।


इसलिए मां बन जाती है शक्ति,

पालन करती है हर भूख, हर भक्ति।

बच्चे को देती अपना प्यार,

अपने अंचल में संसार।


जब तक बच्चा ना हो सुरक्षित,

जीवन नहीं होता सुनिश्चित।

इसलिए मां गर्भ का कवच बनाए,

हर पीड़ा को हंस के अपनाए।


रातें जागे, नींदें छोड़े,

दर्द को भी प्यार से ओढ़े।

अंधेरे को समझाती है वो,

कि जीवन में अंधेरा होगा तो,

गर्भ की याद ही देगा संबल,

चल पड़ेगा बच्चा खुद संबल।


मां का यही पाठ सिखाता है,

खुद गिरकर फिर उठना सिखाता है।

पर क्या हम समझ पाते हैं?

उसकी पीड़ा में उतर पाते हैं?


कितनी रातें जागी होगी,

गंदगी में भी मुस्काई होगी।

बदले में मिला क्या उसे?

वृद्धाश्रम की एकांत धूप में बसे।


जिसने दिखाया जीवन का रंग,

हम भूल गए उसका हर संग।

आज जब दुनिया रंग बदलती है,

मां अकेली आंसू छलकती है।


मानव की दुनिया में मां रह जाती है,

सन्नाटों में खुद को गुम पाती है।

देती रही जो जीवन भर सबको,

आज बैठी है खाली मन लेकर खुद को।

Friday, May 9, 2025

क्षणभंगुरता का बोध"- आलोक चांटिया "रजनीश"

 "क्षणभंगुरता का बोध"


यह संसार माया है,

क्षणभंगुर हर छाया है,

जो जन्मा है, वो जाएगा,

यह ब्रह्म का ही साया है।


सूरज भी थकेगा एक दिन,

विलीन होगा प्रकाश में,

जैसे जीवन खो जाता है,

परम शांति के वास में।


हम देख न पाए सत्य को,

रूप-रंग में उलझे रहे,

जो नश्वर था, उसी को

अमर समझ भ्रम में बहते रहे।


प्रकृति ने जब डाली पुकार,

वह ब्रह्म की ही भाषा थी,

हम मौन रहे, व्यस्त रहे,

यह कैसी अज्ञानता थी?


समाप्ति के बाद ही क्यों

जागे हम चेतना में,

जब अंत निकट आता है,

तब ही ध्यान आता है आत्मा में।


पर आत्मा तो अमर है,

वह साक्षी है सब वियोग की,

शरीर जाता है, स्मृति जाती है,

पर वह नहीं जाती योग की।


अब भी समय है,

ठहरो, देखो, भीतर झाँको,

जहाँ न अंत है, न आरंभ—

उस आत्म तत्त्व को पहचानो।

एक बार सिपाही का दर्द जी लो — आलोक चांटिया "रजनीश"

 

एक बार सिपाही का दर्द जी लो

— आलोक चांटिया "रजनीश" 


सब कुछ जैसे सामान्य है, न कोई शोर, न तूफ़ान है,

ना लगता है कहीं युद्ध की कोई हलचल या अरमान है।

माँ भारती के दिल में जो उठते हैं बारूदों के स्वर,

वो हम तक पहुंचते ही नहीं, ढक गए हैं उत्सवों के पर।


कहीं कोई छुट्टी की योजना में खोया है,

कहीं कोई पाठ्यक्रमों में डूबा रोया है।

किसी को चिंता है कल खाने में क्या आएगा,

पैसे कहाँ उड़ेंगे, कौन-सा सपना सजाएगा।


इन्हीं में एक—हम जैसा ही—

सीमा पर खड़ा है, लेकिन बिल्कुल विपरीत दिशा में जीता है वही।

वर्दी लाल है लहू से, पसीने से भीगी भूमि,

अपने स्वप्नों को त्याग, तुम्हारे लिए वो रोज़ रचता है पुण्य।


वो चाहता है—देशवासी मुस्कुराते रहें,

वो अपनी जान देकर भी ये वादा निभाते रहें।

पर क्या कभी सोचते हो तुम एक पल भी,

जब घर में चैन की नींद में खोए होते हो सभी?


जब तुम्हारे सपनों की राहें होती हैं रंगीन,

वो अपने मन की नींद फेंक देता है कहीं।

लोमड़ी जैसी सजग बुद्धि लिए,

सीमा के पार की हर आहट से जीये।


जब तुम सोचते हो, नाश्ते में क्या खाया जाए,

तब वो अपने सीने पर गोलियाँ खा जाए।

क्यों मान लिया कि सब कुछ उसका धर्म है?

क्या सिर्फ उसी के हिस्से देशप्रेम का कर्म है?


क्या कभी सोचा—वो भी तो किसी माँ की गोद से आया है,

उसने भी तो बचपन में सपनों का संसार सजाया है।

वो भी चाहता है बच्चों की किलकारी,

माँ का आशीर्वाद, पत्नी की पायल की झंकार प्यारी।


पर इन सबको वह मन में दबा लेता है,

दिल पर पत्थर रख कर हर भावना को जला लेता है।

क्योंकि जब वह खून से धरती को सींचता है,

हर घर में तब सूरज-सी मुस्कान फूटता है।


जब तुम खुशियाँ मना रहे होते हो कहीं,

वो सीमा पर खड़ा होता है वहीं।

और तुम उसे कितनी आसानी से भूल जाते हो,

उसके होने की अहमियत से मुंह मोड़ जाते हो।


न तुम्हें व्रत रखने की ज़रूरत है,

न पूजा, न पाठ, न नियम की ज़रूरत है।

बस—उन वीरों के रास्ते पर सम्मान रखो,

जिनके बलिदान पर तुम अपना जीवन लिखो।


क्या कभी उन शहीदों के चेहरे की मुस्कान को

सर झुका कर देखा है तुमने बेज़ुबान को?

जिन्होंने लिखा है एक गरिमा पूर्ण  इतिहास 

और दिए प्राण इस भारत महान को

माँ का सच-

 माँ का सच

काव्यात्मक अनुवाद


मन है बोझिल, व्यथित, उदास,

जैसे माँ नहीं रही मेरे पास।

फिर सोचूं—क्यों रहती वो यहाँ,

जब हर कोई कहता है दुनिया को अलविदा?


पर दिल क्यों अब भी उसे बुलाए,

उसकी ममता क्यों भूला न जाए?

नज़रें टिकती हैं उस पौधे पर,

जो उगा है मिट्टी के भीतर।


एक बीज था, चुपचाप सोया,

धरती में गहरा दफ़न जो हुआ।

तभी तो पत्ते, फूल खिलाए,

अपनी छटा से जग को भाए।


पर सोचूं—इसकी माँ कहाँ है?

जिससे जीवन की पहली शपथ पाई है।

जिस कोख से जन्म लिया इसने,

वो तो मिट्टी में सो गई चुपचाप सने।


धरती बन गई उसकी चादर,

माँ की ममता हुई अमर।

बीज से पौधा जो बन पाया,

माँ के जाने से ही मुस्काया।


वो माँ कभी देख न पाएगा,

क्योंकि उसी की छाती पर जी पाएगा।

फिर भी कहता है—मैं हूँ पेड़,

छिपा लेता है सच का भेद।


पर कैसे कोई इसको झुठलाए,

कि माँ के बिना जीवन कैसे आए?

माँ के मिटने से जीवन पाता है रंग,

उसी की कुर्बानी से है यह संग।


और मेरा दिल भी चैन में है,

कि माँ की मिट्टी ही जीवन का सेहरा है।

वो खो गई, पर हमें मिला जहाँ,

उस त्याग में बसी है उसकी पहचान।


पर कौन समझे इस दिल की बात,

कब, कहाँ, और किसके साथ?

Sunday, February 16, 2025

घर निरपेक्ष होता है आलोक चांटिया


 

उस घर में हिंदू रहता है,
इस घर में मुस्लिम रहता है ,
वहां के घर में ईसाई रहता है,
यहां के घर में सिख रहता है ,
पर एक घर सदैव ही घर रहता है ,
कोई घर कभी भी हिंदू मुस्लिम ,
सिख इसाई नहीं रहता है ,
दीवारों की इस बात को ,
जो भी समझ जाता है ,
वह भला इस मकङ जाल में ,
कहां आता है ?
किसी घर को हिंदू मुस्लिम ,
सिख इसाई मत बनाइए ,
यही तो मानव का ,
मानवता से नाता है,
आलोक चांटिया

Thursday, February 13, 2025

अंधेरा जरूरी है -आलोक चांटिया


 जमीन के ऊपर जो एक,

 हरा-हरा पौधा निकल पाया है,

 वह जमीन के अंदर अंधेरों से,

लड़कर ही बाहर आया है ।

कोई भी दुनिया में अगर ,

जीने के लिए आया है ,

तो वह भी गर्भ के अंधेरे से,

 दो चार होकर आया है ।

क्यों भागते हैं हम इस तरह ,

अंधेरों के रास्तों से बचकर, 

बिना अंधेरे के कौन यहां पर,

 सूरज का मतलब भी समझ पाया है। 

अंधेरे को आत्मसात कर एक,

कोयला हीरा बन जाता है ,

संघर्ष के रास्तों से ही कोई ,

कोई महान बन पाया है ।

मुट्ठी में बंद अंधेरे को ही,

 समझने के लिए यहां आते हैं ,

तभी तो जाता हुआ मृत व्यक्ति, 

 अपना खुला हाथ ही पाया है।

आलोक चांटिया

Wednesday, February 5, 2025

किराएदार- आलोक चांटिया


 दुनिया में रहने आए हैं यही 

हर कोई किसी से कहता है 

एक किराएदार न जाने क्यों

 सबसे यही कहता रहता है 

उसे याद भी नहीं है कि 

चार दिवारी में कब कौन कितनी

 सांस लेकर चला गया है 

फिर भी हर चार दिवारी को 

वह बार-बार अपना कहता है

 सांस भी जिस घर में रहती हैं

 वह घर भी जर्जर हो जाता है

 जब शरीर खुद का नहीं हो पाता

 फिर भी सब कुछ उसका है 

यही वह कहता जाता है 

खो देता है सुख चैन नींद हंसी

 खुशी यही सोच कर क्या समेट लूं 

जीवन उसका चींटी सा बन जाता है

 कितने ऐसे जो समझ यह पाते हैं 

मिट्टी का शरीर है मिट्टी में मिल जाएगा 

फिर भी वह अपने भीतर एक 

अमरता का एहसास पाता है 

आदमी न जाने कब शरीर से

हाड मांस  का होकर भी

 पत्थर का बन जाता है 

किराएदार होकर भी वह आलोक 

भ्रम भीतर मलिक का ही पाता है


आलोक चांटिया

Tuesday, January 28, 2025

अंधेरों में रह गए -आलोक चांटिया


 कल के इंतजार में कई

 कल निकलते चले गए 

और हम बचपन जवानी 

बुढ़ापे के साथ अकेले रह गए 

लगता रहा जरूरत किसी की

 क्या इन रास्तों पर 

कई बार हम सन्नाटो में 

ठिठकते चले गए 

पहुंच कर वहां पर 

एहसास भी हुआ पर 

एहसास भी मुट्ठी में खाली रह गए

कदमों के साथ चलकर 

हम बस चलते गए

सांस भी थक गई जब 

चुपचाप हम हो गए

ढूंढते हैं न जाने क्या 

आंखों से किसी शरीर में 

रूह से दूर होकर बस 

आलोक खोखले हो गए 

मुट्ठी में है जो रखा 

सच वही सिर्फ हुआ था 

उजाले के तलाश में हम 

अंधेरों में रह गए

आलोक चांटिया

Sunday, January 19, 2025

चूहा मेरा अकेलापन जान गए हैं -आलोक चांटिया


 मेरे अकेलेपन को 

वे जान गए हैं 

शायद यही कारण है कि

 मानव ना होते हुए भी 

वे मुझे अपना मान गए हैं 

मेरे चूहे कमरे में चुपचाप 

मेरे साथ रहते हैं 

अक्सर खाने के समय

 मेरे इर्द-गिर्द ही रहते हैं 

कभी-कभी सन्नाटो को 

तोड़ने के लिए वे निकल आते हैं कमरों में इधर-उधर शायद 

बात कर चले भी जाते हैं

 कि तुम अकेले कहां हो 

हम तो तुम्हारे साथ ही 

कमरे में रहते हैं 

जितनी अधीरता से वे

 मेरी ओर निकल कर

 देखने लगते हैं 

उनकी बाहर निकली हुई 

चमकती आंखें और उसमें

 डूबे शब्द-क्या कहते रहते हैं 

शायद वह आदमी के दर्द को 

अब ज्यादा समझने लगे हैं 

मेरे  चूहे कुछ ज्यादा ही 

मेरे अपने से रहने लगे हैं।

आलोक चांटिया

Monday, January 13, 2025

चूहा और मकर संक्रांति -आलोक चांटिया


 चूहे की मकर संक्रांति


यह तो मैं काफी समय 

पहले ही समझ गया था

 दुश्मनी करने का कोई 

फायदा नहीं होता है

 मकर संक्रांति पर शनि और 

सूरज एक दूसरे के 

कट्टर दुश्मनों का भी 

रहना एक साथ होता है 

प्रकृति और ब्रह्मांड जब 

इस खेल को हमें दिखता है 

तब भी हमें समझ में नहीं आता 

कि हमको सबको 

मिल बाट कर रहना है 

किसी से किसी को 

कुछ नहीं कहना है 

इसीलिए अपने दुश्मन 

मानव के साथ चूहे ने 

रहना सीख लिया है 

मकर संक्रांति ने उनको 

यह छोटा सा अर्थ दिया है 

कि दुश्मन ही सही मानव 

तुम उसके सामने बराबर 

आते जाते रहो 

चुपचाप उसकी तरफ देखो 

और कुछ भी ना कहो 

एक दिन तो उसे 

समझ में आएगा कि

 बेवजह इस चूहे ने मेरा 

क्या बिगाड़ डाला है 

जो इसके लिए सिर्फ हत्या 

पिंजरा का रहता हाला है 

मकर संक्रांति का यह 

जादू मेरे साथ चल रहा है 

सच बताऊं कमरे का 

हर चूहा आजकल 

मुझसे मिल रहा है 

प्रकृति की यह मकर संक्रांति का 

खेल मेरे कमरे पर 

रोज-रोज चल रहा है 

आलोक चांटिया

Thursday, January 9, 2025

थोड़ा सा सहारा -आलोक चांटिया


 एक मिट्टी का सहारा ही तो दिया था ,

देखो एक नन्हा सा पौधा कितना,

 खिलखिला कर हंस रहा था ,

कल तक जो मरने की कगार पर था ,

आज उसका यौवन लहलहा रहा था,

 बस इतना सा सहारा किसी को,

 कहां तक लेकर चला जाता है,

 जो पौधा किसी के कदमों से,

कुचल जाता वह अपने,

 अंदर  के उदगार की कहानी ,

दुनिया से कह रहा था ,

बता भी रहा था दुनिया वालों से ,

मत भागो किसी दबे कुचले ,

गरीब असहाय को देखकर,

 उसे भी अपनी मिट्टी अपने ,

तन का थोड़ा सा सहारा दे दो ,

इस दुनिया में भगवान है ,

कि नहीं इस बात से दूर ,

उसे भी आदमी होने का ,

मर्म थोड़ा या सारा दे दो।

आलोक चांटिया

आदमी और चूहा -आलोक चांटिया


 आदमी पर भरोसा


कई बार कमरे में 

लड़ाई हो जाती है 

जब एक रोटी मेरे और 

चूहे के बीच में आती है 

चीख कर कहता है मुझे 

जब अपने कमरे में 

अतिथि बनाया है 

मेरे हिस्से की रोटी तो क्यों नहीं 

आज फिर लाया है

 मैं तो जानवर हूं 

मैं तेरे सहारे जी रहा हूं 

बता तो सही कि मैं 

भूखा क्यों रह रहा हूं 

तेरी कथनी करनी में इतना 

अंतर क्यों रहने लगा है 

मानव होकर भी तू यह 

क्या करने लगा है 

क्या इस लड़ाई का कभी 

कोई अंत हो पाएगा 

जब तेरे में हिस्से में 

रोटी गरिमा की और 

मेरे भी हिस्से में एक रोटी 

सम्मान की लायेगा 

यही लड़ाई करोड़ चूहे 

करोड़ घरों में लड़ रहे हैं 

सिर्फ एक रोटी कुतरने के कारण 

वह रोज मानव की दुनिया में 

सड़क चौराहों पर मर रहे हैं 

रोज सड़क चौराहों पर मर रहे हैं।

 आलोक चांटिया

Tuesday, January 7, 2025

असली आदमी -आलोक चांटिया


 दो हाथ पर आंख कान

 नाक पाकर भी वह 

कहां पूरा-पूरा वह रह जाता है 

अक्सर पैसे वालों के घर में 

वह नौकर खाना बनाने वाला

 वेटर शहनाई बजने वाला 

बैंड बाजा वाला रिक्शावाला है 

उसे पूरा-पूरा अपने बराबर इ

स तरह जिस तरह 

वह खुद को मन पाता है 

आदमी आदमी की जिंदगी में

 कभी कहां समानता का वह

 सार लापता है 

सिर्फ पैसे के कारण एक आदमी 

आधा अधूरा सा रह जाता है

 दूसरा उसी के सामने 

भगवान बन जाता है 

पैदा होने के बाद से मरने तक

हाथ जोड़कर मंदिर मस्जिद के 

आगे से वह गुजर जाता है 

बड़ी-बड़ी कोठियों के आगे 

हाथ फैलाकर वह जिंदगी की

 बसर पाता है 

बना तो दिए बहुत बड़े-बड़े मुहावरे 

हमने आदमी होने के आभास में

 पर पूरा जीवन आंदोलन 

लड़ाई झगड़ा कोर्ट कचहरी में 

उसका गुजर जाता है 

एक अधूरा सा आदमी ना तो

 पूरा आदमी बन पाता है 

ना कभी भगवान बन पाता है 

दरिद्र नारायण होता है 

यह सुनकर उसे 

खुश कर दिया जाता है 

कई बार घरों के बाहर उसे 

भिखारी समझ कर 

दो रोटी दे दिया जाता है

 क्योंकि पुण्य करने से उनका

 जीवन सुधर सकता है 

इसीलिए वह अधूरा सा 

रहकर भी समाज में 

कहीं-कहीं स्थान पा जाता है 

कोई शेर अमीर और

 गरीब नहीं हो पाता है 

कोई हाथी ऊंचा या 

नीचा नहीं हो पाता है 

पर आदमी जानवरों की 

दुनिया में भी जानवरों को 

शर्मिंदा हर रोज कर जाता है 

जब वह किसी को गरीब और 

किसी को अमीर बना जाता है 

किसी को सुदामा तो किसी को 

कृष्णा बता जाता है

 जल्दी-जल्दी कुछ लोगों ने

 लीपा पोती करके उन लोगों से 

छिपाने के लिए मानवाधिकार की 

रचना भी कर डाली है 

पर भला समुद्र की एक ही 

सतह पर हर मछली का झुंड

 कहां रह पाता है 

बंद मुट्ठी में अंधेरा लिए 

वह रोशनी की खोज में 

इस जमीन पर तो आता है 

पर कभी पूर्व में तो कभी पश्चिम में

 रोशनी को पकड़ने के लिए 

दौड़ता हुआ आदमी 

आदमी होने के गुमान में 

तिल तिल कर मर जाता है 

खप जाता है 

बंधुआ मजदूर हो जाता है 

किसी के घर की बासी 

रोटी खा जाता है 

बिना रोशनी की झोपड़ी में 

अंधेरा लेकर सो जाता है 

उस आदमी के हिस्से में 

आदमी होने का बस 

यही निशान आलोक आता है।

 आलोक चांटिया

Monday, January 6, 2025

मैं कहां हूं -आलोक चांटिया


 सुना है बचपन से यह

 ब्रह्मांड भी किसी सीमा में

 बंधा हुआ नहीं है 

हर रात दिन यह 

बढ़ता चला जा रहा है 

दुनिया खोज रही है 

इसके वह सारे तार 

जिसके साथ यह 

बढा चला जा रहा है 

पता नहीं कौन सी 

डोर में बंधा है

 इसका आदि और अंत 

किसके लिए यह बना है 

और किसके साथ चला जा रहा है

 यही सोचकर अक्सर 

मैं  एकांत में बैठ जाता हूं 

लौट लौट कर फिर यही

 अपने मन में पाता हूं कि

 वह कोई नहीं जिसे मैं 

ढूंढने की तलाश कर रहा हूं 

वह मैं हूं जिसके लिए इस

बाहरी दुनिया में मैं मर रहा हूं 

कभी झांक कर देखा ही नहीं 

वह मेरे अंदर ही रहता है 

बस मुझे समझने के लिए 

बार-बार उदासी बेचैनी 

उलझन की बात कहता है 

मैं बैठ जाता हूं किसी

बालकनी मुंडेर पर आंखों को

उस अंतहीन दिशा की 

ओर ले जाकर 

जहां पर शायद मैं 

अपने सच के साथ रहता हूं 

आलोक चांटिया

Thursday, January 2, 2025

ठिठुरते भगवान -आलोक चांटिया


 ठिठुरते भगवान


आदिमानव कैसे रहा करते थे,

 यह जानने की ज्यादा ,

कोशिश ना किया कीजिए,

 थोड़ा सा सड़क पर,

मोजा स्वेटर मफलर  में,

 निकल कर देख लिया कीजिए,

 आधुनिक दुनिया में ,

वह समय जी भी लिया कीजिए,

 भगवान होते हैं कि नहीं होते हैं,

 यह सोचने का वक्त है किसके पास,

 नन्ही सूरत में उनकी,

 परछाई को बस देख लिया कीजिए, 

चाहते हैं समेंट कर वह भी,

 अपने अंदर दुनिया भर की,

 खुशी तो नहीं

  चंद टुकड़े ऊर्जा के बटोर लेना,

 जलते कागज के टुकड़ों में,

 प्रगति को  भी झांक लिया कीजिए, 

किससे कहें वह भी,

 इसी देश के कल है,

 क्योंकि जिधर भी देखते हैं,

 उधर हर कोई विकल है,

 बंद कमरों में हमको यह मालूम नहीं,

 चौराहों पर कौन कैसे जी जाएगा,

 यह बच्चे ही कल की अमानत है,

 एक बार कल की बात किसी ,

मोड़ पर कर लिया कीजिए,

 क्यों ढूंढते हो उनको तुम ,

मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों में ,

हर दिन हर कही कभी-कभी,

 इन ठिठुरते हुए भगवानों को ,

आलोक देख लिया कीजिए ।

आलोक चांटिया

Wednesday, January 1, 2025

ऊर्जा की खोज -आलोक चांटिया


 ठंडी ठंडी हवाओं के बीच ,

धूप में बैठने के बाद ,

हटने का मन कहां करता है,

 फिर भी तुम रोज पूछते हो कि,

 आदमी औरत पर क्यों मरता है ,

कौन नहीं चाहता इस पृथ्वी पर ,

उसके दबे सिकुड़ शरीर में ,

ऊर्जा का संचार हो ,

वह अपने को महसूस करें ,

उसका भी एक सुंदर सा ,

महकता संसार हो ,

गरीब की तरह उसके ,

मन और तन के पास ,

कुछ भी तो नहीं होता है ,

सिर्फ पूर्व की तरफ ,

देखते रहने के सिवा वह ,

अपने वजूद को सिर्फ खोता है,

 पाता भी है तब अपने होठों पर ,

हंसी खुशी जब चमकते बिंदी की तरह,

 आसमान सूरज का होता है ,

वह दौड़ता है वहां जहां ,

उस बिंदी की रोशनी जाकर ,

आंगन में गिर रही हो ,

वह बचाना चाहता है तब,

 अपने को जब उसकी ,

सांसे ना चाह कर भी मार रही हो ,

नीले आसमान की तरह फैले हुए ,

आंचल के इस जगत में जब वह ,

अपने अंदर उस ऊर्जा को,

 धूप को पा जाता है,

 सच मानो थोड़ी देर में ही,

 उसका शरीर अमर हो जाता है,

 वह बैठ भी नहीं पाता बहुत देरतक,

 उस ऊर्जा को साथ लेकर ,

क्योंकि आसमान की बिंदी में उसे ,

पूर्ण कर दिया है अपनी रोशनी देकर,

 इसीलिए जिसे भी देखो वह ,

धूप की तलाश में भटक रहा है ,

फिर भी पूछते हो इस जगत में ,

कोई क्यों औरत के लिए मर रहा है ।

आलोक चांटिया

सुजाता एक औरत -आलोक चांटिया


 सुजाता के हाथों का खाना खाकर

 सिद्धार्थ पूरी तरह तृप्त हो गए थे 

जिन रास्तों के लिए भटक रहे थे 

उन्हीं रास्तों पर वह गौतम हो गए थे

 कल तक जिनकी जिंदगी 

अपनी खोज में लगी हुई थी

 तन से जो कंकाल हो गए थे 

सुजाता की हाथों की खीर खाकर

 वह इसी दुनिया में दिगपाल  हो गए थे 

सुजाता तो एक पेड़ पर भी

 भरोसा करके जी जाती है 

वह मान लेती है कि पेड़ भी सुनता है 

और एक दिन वह उसी से 

पति बेटा सब पा जाती है

 सुजाता कभी नहीं सोचती कि 

औरत के रूप में वह छली जा रही है 

वह तो अपने धुन में अपने 

देने के गुण के साथ बस चली जा रही है

 कहीं कोई पेड़ अमर हो जाता है 

कोई सिद्धार्थ बुद्ध बन जाता है

 यह बात सच है कि कोई

 सुजाता का नाम नहीं लेता पर

 कौन इनकार करेगा 

अपनी पूर्णता के लिए हर कोई

 उसी के पास आता है 

औरत को यूं ही इतना हल्का करके

 देखना ठीक कहां होता है

 हर काल परिस्थिति में 

सुजाता का साथ सभी का होता है 

आलोक चांटिया