Tuesday, January 7, 2025

असली आदमी -आलोक चांटिया


 दो हाथ पर आंख कान

 नाक पाकर भी वह 

कहां पूरा-पूरा वह रह जाता है 

अक्सर पैसे वालों के घर में 

वह नौकर खाना बनाने वाला

 वेटर शहनाई बजने वाला 

बैंड बाजा वाला रिक्शावाला है 

उसे पूरा-पूरा अपने बराबर इ

स तरह जिस तरह 

वह खुद को मन पाता है 

आदमी आदमी की जिंदगी में

 कभी कहां समानता का वह

 सार लापता है 

सिर्फ पैसे के कारण एक आदमी 

आधा अधूरा सा रह जाता है

 दूसरा उसी के सामने 

भगवान बन जाता है 

पैदा होने के बाद से मरने तक

हाथ जोड़कर मंदिर मस्जिद के 

आगे से वह गुजर जाता है 

बड़ी-बड़ी कोठियों के आगे 

हाथ फैलाकर वह जिंदगी की

 बसर पाता है 

बना तो दिए बहुत बड़े-बड़े मुहावरे 

हमने आदमी होने के आभास में

 पर पूरा जीवन आंदोलन 

लड़ाई झगड़ा कोर्ट कचहरी में 

उसका गुजर जाता है 

एक अधूरा सा आदमी ना तो

 पूरा आदमी बन पाता है 

ना कभी भगवान बन पाता है 

दरिद्र नारायण होता है 

यह सुनकर उसे 

खुश कर दिया जाता है 

कई बार घरों के बाहर उसे 

भिखारी समझ कर 

दो रोटी दे दिया जाता है

 क्योंकि पुण्य करने से उनका

 जीवन सुधर सकता है 

इसीलिए वह अधूरा सा 

रहकर भी समाज में 

कहीं-कहीं स्थान पा जाता है 

कोई शेर अमीर और

 गरीब नहीं हो पाता है 

कोई हाथी ऊंचा या 

नीचा नहीं हो पाता है 

पर आदमी जानवरों की 

दुनिया में भी जानवरों को 

शर्मिंदा हर रोज कर जाता है 

जब वह किसी को गरीब और 

किसी को अमीर बना जाता है 

किसी को सुदामा तो किसी को 

कृष्णा बता जाता है

 जल्दी-जल्दी कुछ लोगों ने

 लीपा पोती करके उन लोगों से 

छिपाने के लिए मानवाधिकार की 

रचना भी कर डाली है 

पर भला समुद्र की एक ही 

सतह पर हर मछली का झुंड

 कहां रह पाता है 

बंद मुट्ठी में अंधेरा लिए 

वह रोशनी की खोज में 

इस जमीन पर तो आता है 

पर कभी पूर्व में तो कभी पश्चिम में

 रोशनी को पकड़ने के लिए 

दौड़ता हुआ आदमी 

आदमी होने के गुमान में 

तिल तिल कर मर जाता है 

खप जाता है 

बंधुआ मजदूर हो जाता है 

किसी के घर की बासी 

रोटी खा जाता है 

बिना रोशनी की झोपड़ी में 

अंधेरा लेकर सो जाता है 

उस आदमी के हिस्से में 

आदमी होने का बस 

यही निशान आलोक आता है।

 आलोक चांटिया

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