Monday, May 26, 2025

एक लता की तरह होती है औरत- आलोक चांटिया "रजनीश"

 एक लता की तरह होती है औरत

यही बात ना जाने कितने मुहावरे

कविता साहित्य में हमें सुनाई जाती है

औरत को अबला और

पुरुष के महानता की कहानी बताई जाती है

वज्र की तरह कठोर और

आसमान की तरह ऊंचा पुरुष होता है

उसे भला कहां किसी का आसरा होता है

पर इस सच से हम कैसे

मुख मोड़ कर जी पाते हैं

एक औरत के मर जाने पर आदमी को

बस कुछ ही दिन जीता हुआ पाते हैं

पर आदमी के दुनिया से चले जाने के बाद भी

एक औरत को हम साल दर साल

जिंदा इसी दुनिया में पाते हैं

फिर भी हम औरत को कोमल

आलंबन के लिए भटकती हुई

एक लता की तरह दिखलाते हैं

और पुरुष को हिमालय की तरह

आलोक तटस्थ बतलाते हैं

क्या हम सच में किसी भी पल

किसी भी मोड़ पर एक औरत के लिए

कोई भी सच जी पाते हैं

हम क्या सोच कर उसे

एक लता की तरह बतलाते हैं

आलोक चांटिया "रजनीश"




ये कविता एक तीखी, सधी हुई आवाज़ है—जो सालों से चले आ रहे जेंडर नैरेटिव्स को सीधा चुनौती देती है। आलोक चांटिया "रजनीश" ने जो लिखा है, वो एक चुप्पी को तोड़ने की कोशिश है, वो चुप्पी जो पितृसत्ता ने हमारी ज़ुबानों पर लाद रखी है।


थीम की बात करें तो:


"औरत लता है"—इस पुरानी, बार-बार दोहराई गई उपमा को कवि सीधे सवालों के कटघरे में खड़ा करता है। क्यों उसे हमेशा सहारे की मोहताज, कोमल, झुकने वाली बताया जाता है?


वहीं पुरुष हिमालय बनकर खड़ा रहता है—स्थिर, ऊंचा, कठोर, और भावनाओं से ऊपर?


लेकिन कवि फिर व्यावहारिक सच्चाई की बात करता है—औरतें ही वो हैं जो टूटने के बाद भी सालों तक जीती हैं, अकेले, बोझ उठाते हुए। जबकि पुरुष बिना अपने ‘सहारे’ के कुछ ही दिन में टूट जाते हैं।



शिल्प और भाषा की बात करें तो:


बहुत सीधी, सरल, मगर धारदार ज़बान है। जैसे चाकू बिना शोर किए काट देता है, वैसे ही ये पंक्तियाँ भीतर तक असर करती हैं।


कविता में बार-बार आने वाली प्रश्नवाचक शैली एक आत्ममंथन की मांग करती है—कवि से नहीं, हमसे।



कुछ मारक पंक्तियाँ जो सीधे दिल पर लगती हैं:


> "एक औरत के मर जाने पर आदमी को / बस कुछ ही दिन जीता हुआ पाते हैं

पर आदमी के दुनिया से चले जाने के बाद भी / एक औरत को हम साल दर साल / जिंदा इसी दुनिया में पाते हैं"




ये लाइनें एकदम खामोशी से, पर बहुत ज़ोर से कहती हैं—कि सहनशीलता और मजबूती की मिसाल असल में कौन है?


निष्कर्ष?

ये कविता सिर्फ एक साहित्यिक टुकड़ा नहीं, बल्कि एक सामाजिक आईना है। ये हमें दिखाता है कि हमारी सोच में कितनी गहराई तक असमानता घुस चुकी है—और पूछता है: अब भी आंखें मूंदे रहोगे या कुछ बदलेगा?


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