Thursday, June 5, 2025

जैसे ही शाम को घड़ी छह बजाती है- आलोक चांटिया "रजनीश"

 

जैसे ही शाम को घड़ी छह बजाती है
मुझे मेरी मां तेरी याद आती है
मैं दौड़ता हूं उनके कमरे की ओर
जहां मैं उन्हें हनुमान चालीसा सुनाया करता था
मुड़कर उनकी तरफ देखता भी हूं
जहां हनुमान का नाम सुनकर
एक मुस्कुराहट दौड़ा करती थी
पर अब उनके बिस्तर पर एक
सन्नाटा पसरा रहता है
और फोटो में उनका वजूद
सिर्फ यही कहता रहता है
मैं आज भी सुन रही हूं
तुम्हारे सुने हुए शब्दों को यहां
जो पांच तत्वों में विलीन हो गए हैं
तुम जिस शरीर को मां कहा करते थे
वे सब हवा पानी अग्नि
वायु पृथ्वी के हो गए हैं
बस तुम हर पल मुझे
महसूस करके देखते रहो
और अपने पथ पर प्रगति के
नए अंकुरण करते रहो
कल तुम भी चले जाओगे
इस दुनिया से
यह एक सच तुम्हें जानना होगा
तुमने कर्म के कौन बीज बोए हैं
इस सच को ही मानना होगा
इसलिए कर्म की परिभाषा में
मोह से ऊपर जाकर
तुम देखने का साहस करना आरंभ कर दो
कुरुक्षेत्र के समर में
कृष्ण की गीता अमर कर दो
जहां तक मेरा तुमसे संबंध था
वहां तक मैं तुम्हारे साथ रहती रही
मुझे अब जाना है मैं
तुमसे पल-पल यही कहती रही
इसलिए ना फोटो की ओर देखो
ना मेरे सन्नाटे से पड़े बिस्तर की ओर
अब उठो तुम पार्थ की तरह
और रचो एक सुंदर सा भोर
आलोक चांटिया "रजनीश"

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