Sunday, May 25, 2025

माँ – एक रात की दस्तक —आलोक चांटिया "रजनीश"

 माँ – एक रात की दस्तक

—आलोक चांटिया "रजनीश"


रोज़ धीरे-धीरे रात गहराती है,

और यादों की पदचाप

चुपके से मेरे करीब आ जाती है।


सन्नाटे में कोई स्वर

बार-बार कुछ कह जाता है,

मैं पहचान नहीं पाता—

ये कौन है जो

मेरे अवचेतन से उठकर

चेतना पर छा जाता है।


खुली आंखों से

माँ का चेहरा सामने आ जाता है,

वैसे ही—जैसे हर रात

वो मेरी बेचैनी को पढ़ लेती थी।


इस बेचैनी को

कोई नाम नहीं दे पा रहा हूँ,

पर एक बेटा

माँ को आज फिर

अपने भीतर समझ पा रहा है।


हर कोई

कल की सुबह की जल्दी में

सो चुका है,

पर मेरी तो जागती रातों का

साथ माँ से फिर जुड़ चुका है।


जिन्हें सुनता हूँ—

वो झींगुर की आवाज़ें,

और टिमटिमाते तारे—

शायद माँ की परछाई लेकर

मेरे साथ चल रहे हैं।


वो सपनों में आएंगी,

कुछ कहेंगी,

कुछ रह जाएंगी...

और फिर

पिता की चिंता में डूबी

उनकी सारी बातें

फिर ताज़ा हो जाएंगी।


माँ को मैं

हर पल, हर घड़ी

महसूस कर रहा हूँ।

कैसे कहूं—

कि इस रात में

अकेला मैं

आख़िर क्या कर रहा हूँ...


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