Wednesday, February 5, 2025

किराएदार- आलोक चांटिया


 दुनिया में रहने आए हैं यही 

हर कोई किसी से कहता है 

एक किराएदार न जाने क्यों

 सबसे यही कहता रहता है 

उसे याद भी नहीं है कि 

चार दिवारी में कब कौन कितनी

 सांस लेकर चला गया है 

फिर भी हर चार दिवारी को 

वह बार-बार अपना कहता है

 सांस भी जिस घर में रहती हैं

 वह घर भी जर्जर हो जाता है

 जब शरीर खुद का नहीं हो पाता

 फिर भी सब कुछ उसका है 

यही वह कहता जाता है 

खो देता है सुख चैन नींद हंसी

 खुशी यही सोच कर क्या समेट लूं 

जीवन उसका चींटी सा बन जाता है

 कितने ऐसे जो समझ यह पाते हैं 

मिट्टी का शरीर है मिट्टी में मिल जाएगा 

फिर भी वह अपने भीतर एक 

अमरता का एहसास पाता है 

आदमी न जाने कब शरीर से

हाड मांस  का होकर भी

 पत्थर का बन जाता है 

किराएदार होकर भी वह आलोक 

भ्रम भीतर मलिक का ही पाता है


आलोक चांटिया

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