मशीन जैसा यह जीवन
(कवि: आलोक चांटिया “रजनीश”)
यह शरीर भी एक मशीन सा हो जाता है,
कभी-कभी कितना भी चाहो—
ना चलता है, ना मचलता है।
हर कोशिश बेकार हो जाती है,
यह मशीन बस चुप रहती है,
थकी-सी, रुकी-सी, खोई-सी।
आदमी ने बनाए थे कल-पुर्ज़े,
जिनसे मशीनें बनाई जाती हैं,
पर मशीनें सिर्फ लोहे की ही नहीं होतीं—
कुदरत ने भी इस तन को
प्रकृति के टुकड़ों से गढ़ा है।
यह भी तो मशीन ही है,
जो चलती है... रुकती है... फिर से चलती है—
और एक दिन थम जाती है।
इंसान की मशीन रुक जाए तो
कूड़े में फेंक दी जाती है—
निर्विकार, भावहीन।
पर जब कुदरत की मशीन थमती है,
तो वह भी बस चुपचाप देखती है,
जैसे भगवान भी हो गया हो मशीन-सा—
बोलता कुछ नहीं, बस निर्णय ले लेता है।
आदमी कह देता है—
"मशीन बेकार हो गई है,"
और दूसरी ले आता है।
ठीक वैसा ही जब प्रकृति कहती है—
"यह शरीर अब किसी काम का नहीं,"
तो वो भी शांत रहता है,
निर्विकार।
इंसान की मशीन की खराबी
संस्कृति बन जाती है,
भगवान की बनाई मशीन की मौत
धर्म बन जाती है।
इंसान मशीन को बदल लेता है,
भगवान आदमी को उठा लेता है।
दोनों अपनी-अपनी लीला में व्यस्त हैं—
एक यंत्रवत, एक नियतिवाद में बंधा।
मशीनें मरती हैं,
आदमी भी मरता है।
धीरे-धीरे यह सच्चाई
जीवन का हिस्सा बन जाती है,
और आदमी भी भगवान-सा
निर्विकार हो जाता है।
फिर कोई मरता है,
तो बस कुछ क्षणों को दुख आता है—
फिर नई मशीन, नए रिश्ते,
नई बातें शुरू हो जाती हैं।
जैसे उस पुराने को कभी याद ही ना हो,
जैसे वह था ही नहीं।
पर खालीपन तो रह जाता है—
दुखी भगवान भी होता है,
दुखी इंसान भी।
क्योंकि जो बना था,
उस जैसा कुछ और बनाने का
फिर से प्रयास करना होगा।
इस जीवन को फिर से
थोड़ा और बेहतर करना होगा—
थोड़ा और सुंदर,
थोड़ा और मानवीय।
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