मदर्स डे पर मां को समर्पित
मां की बात
आलोक चांटिया "रजनीश"
हर मां जानती है गहराई से,
बच्चा आता है लाचारी से।
ये दुनिया बस कहने की है,
यहां कोई किसी के लिए नहीं खड़ा कभी है।
भूख-प्यास सबको लगती है,
पर किसी की पीड़ा किसे खलती है?
इंसानियत किताबों में प्यारी,
असल में दुनिया है खुदगर्ज़ सारी।
कितने भूखे, कितने प्यासी,
पर आंखों पर सबके पट्टी है फांसी।
मां जानती है, ये सच भारी,
बच्चे की भूख भी है जिम्मेदारी।
वो रोटी नहीं मांगती बाहर,
छाती से बहा देती अमृत धार।
क्योंकि समझती है ये संसार,
खुद पर जो करे उपकार—
भगवान भी आता उसके द्वार।
इसलिए मां बन जाती है शक्ति,
पालन करती है हर भूख, हर भक्ति।
बच्चे को देती अपना प्यार,
अपने अंचल में संसार।
जब तक बच्चा ना हो सुरक्षित,
जीवन नहीं होता सुनिश्चित।
इसलिए मां गर्भ का कवच बनाए,
हर पीड़ा को हंस के अपनाए।
रातें जागे, नींदें छोड़े,
दर्द को भी प्यार से ओढ़े।
अंधेरे को समझाती है वो,
कि जीवन में अंधेरा होगा तो,
गर्भ की याद ही देगा संबल,
चल पड़ेगा बच्चा खुद संबल।
मां का यही पाठ सिखाता है,
खुद गिरकर फिर उठना सिखाता है।
पर क्या हम समझ पाते हैं?
उसकी पीड़ा में उतर पाते हैं?
कितनी रातें जागी होगी,
गंदगी में भी मुस्काई होगी।
बदले में मिला क्या उसे?
वृद्धाश्रम की एकांत धूप में बसे।
जिसने दिखाया जीवन का रंग,
हम भूल गए उसका हर संग।
आज जब दुनिया रंग बदलती है,
मां अकेली आंसू छलकती है।
मानव की दुनिया में मां रह जाती है,
सन्नाटों में खुद को गुम पाती है।
देती रही जो जीवन भर सबको,
आज बैठी है खाली मन लेकर खुद को।
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