माँ बुद्ध क्यों नहीं?
— आलोक चांटिया "रजनीश"
एक वृद्ध देखा, एक रोगी, एक शव—
राजकुमार के भीतर जागा प्रश्न का प्रवाह।
राजमहल को त्याग दिया, ज्ञान की राह पकड़ी,
सिद्धार्थ हुए बुद्ध, सत्य की लौ में जकड़ी।
पर माँ तो रोज ही देखती है यह दृश्य,
बूढ़ा भी, बीमार भी, मृत्यु का रहस्य।
हर सुबह, हर रात, एक तपस्विनी-सी लगती,
बिना सवाल, बिना स्वार्थ, बिना किसी गिनती।
वह बताती है—
क्या है जीवन, क्या है माया, क्या है सही राह,
हर गलती पर रोक, हर मोड़ पर सलाह।
न कोई बोधिवृक्ष, न ध्यान की गुफा,
फिर भी माँ की आँखों में है परम दृष्टि छुपा।
तो फिर क्यों नहीं कहती दुनिया उसे बुद्ध?
जिसने बचपन से जीवन का पाठ पढ़ाया सुध-बुध।
जिसके आँचल में है पूर्णिमा का उजास,
जो देती है ज्ञान, प्रेम और विश्वास।
क्या बुद्ध बनने को त्याग चाहिए, या त्यागने वाला नाम?
क्यों नहीं माँ के त्याग को मिलता वही सम्मान?
No comments:
Post a Comment