Tuesday, January 28, 2025

अंधेरों में रह गए -आलोक चांटिया


 कल के इंतजार में कई

 कल निकलते चले गए 

और हम बचपन जवानी 

बुढ़ापे के साथ अकेले रह गए 

लगता रहा जरूरत किसी की

 क्या इन रास्तों पर 

कई बार हम सन्नाटो में 

ठिठकते चले गए 

पहुंच कर वहां पर 

एहसास भी हुआ पर 

एहसास भी मुट्ठी में खाली रह गए

कदमों के साथ चलकर 

हम बस चलते गए

सांस भी थक गई जब 

चुपचाप हम हो गए

ढूंढते हैं न जाने क्या 

आंखों से किसी शरीर में 

रूह से दूर होकर बस 

आलोक खोखले हो गए 

मुट्ठी में है जो रखा 

सच वही सिर्फ हुआ था 

उजाले के तलाश में हम 

अंधेरों में रह गए

आलोक चांटिया

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