एक छोटे से मुलायम से पौधे को
कोई एक दिन में पेड़ नहीं बन सकता है
उसे न जाने कितने धूप छांव थपेड़ों का
सामना करना पड़ सकता है
फिर भी हो सकता है कि प्रकृति ना चाहे
कि वह पौधा बड़ा होकर पेड़ बन जाए
इसीलिए आदमी ने पौधे को भी
सहारा देना सीख लिया है
उसे एक छोटी सी आशा जीने की दिया है
यही आशा एक बैठ भी न पाने वाले
बच्चों को उसकी मां दे जाती है
जब वह उसे न जाने किन-किन
भाषा में अपनी बात सुनाती है
और बच्चे की भी किलकारी तोतली बोली से
सब कुछ समझ जाती है
वह कभी नहीं कहती है कि वह अब थक गई है
उसकी भी जिंदगी अब रुक गई है
वह तो बस एक डंडी की तरह
अपनी उंगली को हर पल हर क्षण
अपने बच्चों के आगे कर देती है
और दुनिया से हर जगह उसे बचा लेती है
जो बच्चा ना बैठ सकता है
ना खड़ा हो सकता है
उसको एक मां ही दोनों बातें सिखा जाती है
धीरे-धीरे ना जाने किस अभ्यास में डूब कर
उसे जीवन की भाषा भी बता जाती है
कोई तो बात ऐसी छोड़ी भी नहीं है
जो बच्चे को आदमी से जोडी नहीं है
नहीं तो जानवर और आदमी में
फर्क भला कौन बात पाता
अगर एक मानव के हिस्से में
मां का नाम न आता
सिर्फ एक मां ही इस पूरी पृथ्वी पर
ऐसी एक भगवान होती है
जो अपने जीवन को अपने बच्चों के लिए
दूसरी तरह से होती है
वह निकाल लाती है एक पशु जगत में
पशु के अंदर से आदमी होने का भाव
और खत्म कर देती है उसके सामने
उसके जीवन के हर अभाव
बना देती है उसे उस पशु से बहुत अलग ले जाकर
जहां पर दुनिया कहती है
यह पृथ्वी धन्य है मानव पाकर
पर क्या कभी मानव यह
सोचने के लिए खड़ा मिलता है
किसी का भी जीवन सिर्फ और सिर्फ
इस दुनिया में मानव के रूप में मां से ही चलता है
जानवर से आदमी बनने का यह सफर
हम जब भी समझ पाएंगे
भगवान की तरह ही मां को
अपने जीवन में हर पल निभाएंगे
आलोक चांटिया "रजनीश"
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