Friday, May 9, 2025

क्षणभंगुरता का बोध"- आलोक चांटिया "रजनीश"

 "क्षणभंगुरता का बोध"


यह संसार माया है,

क्षणभंगुर हर छाया है,

जो जन्मा है, वो जाएगा,

यह ब्रह्म का ही साया है।


सूरज भी थकेगा एक दिन,

विलीन होगा प्रकाश में,

जैसे जीवन खो जाता है,

परम शांति के वास में।


हम देख न पाए सत्य को,

रूप-रंग में उलझे रहे,

जो नश्वर था, उसी को

अमर समझ भ्रम में बहते रहे।


प्रकृति ने जब डाली पुकार,

वह ब्रह्म की ही भाषा थी,

हम मौन रहे, व्यस्त रहे,

यह कैसी अज्ञानता थी?


समाप्ति के बाद ही क्यों

जागे हम चेतना में,

जब अंत निकट आता है,

तब ही ध्यान आता है आत्मा में।


पर आत्मा तो अमर है,

वह साक्षी है सब वियोग की,

शरीर जाता है, स्मृति जाती है,

पर वह नहीं जाती योग की।


अब भी समय है,

ठहरो, देखो, भीतर झाँको,

जहाँ न अंत है, न आरंभ—

उस आत्म तत्त्व को पहचानो।

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