ठंडी ठंडी हवाओं के बीच ,
धूप में बैठने के बाद ,
हटने का मन कहां करता है,
फिर भी तुम रोज पूछते हो कि,
आदमी औरत पर क्यों मरता है ,
कौन नहीं चाहता इस पृथ्वी पर ,
उसके दबे सिकुड़ शरीर में ,
ऊर्जा का संचार हो ,
वह अपने को महसूस करें ,
उसका भी एक सुंदर सा ,
महकता संसार हो ,
गरीब की तरह उसके ,
मन और तन के पास ,
कुछ भी तो नहीं होता है ,
सिर्फ पूर्व की तरफ ,
देखते रहने के सिवा वह ,
अपने वजूद को सिर्फ खोता है,
पाता भी है तब अपने होठों पर ,
हंसी खुशी जब चमकते बिंदी की तरह,
आसमान सूरज का होता है ,
वह दौड़ता है वहां जहां ,
उस बिंदी की रोशनी जाकर ,
आंगन में गिर रही हो ,
वह बचाना चाहता है तब,
अपने को जब उसकी ,
सांसे ना चाह कर भी मार रही हो ,
नीले आसमान की तरह फैले हुए ,
आंचल के इस जगत में जब वह ,
अपने अंदर उस ऊर्जा को,
धूप को पा जाता है,
सच मानो थोड़ी देर में ही,
उसका शरीर अमर हो जाता है,
वह बैठ भी नहीं पाता बहुत देरतक,
उस ऊर्जा को साथ लेकर ,
क्योंकि आसमान की बिंदी में उसे ,
पूर्ण कर दिया है अपनी रोशनी देकर,
इसीलिए जिसे भी देखो वह ,
धूप की तलाश में भटक रहा है ,
फिर भी पूछते हो इस जगत में ,
कोई क्यों औरत के लिए मर रहा है ।
आलोक चांटिया
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