मन मेरे भीतर कहां पर है
यह मैं कभी जान नहीं पाया हूं
लेकिन जीवन के हर मोड़ पर
हर किसी को यह कहता पाया हूं
कि आज अपने मन को
अपने बस में मैं नहीं पाया हूं
मैं भी नहीं समझ पाता हूं
कि मेरे अंदर मन कहां रहता है
और वह कैसे मेरी हर बात
मेरे हर दर्द को सहता है
अक्सर उचाट कहकर मैं मन को
अपने सामने ले आता हूं
पर सच बताता हूं मन को
ढूंढता रह जाता हूं
उसे कहीं नहीं पाता हूं
मेरे मन में ही मेरी मां रहती है
मेरे पिता रहते हैं और यह
पूरी दुनिया भी रहती है
अक्सर मेरी मां मुझसे कहा करती थी
कि अपने मन को अच्छा रखो
अपने मन में गलत विचार मत लाया करो
मन ही सब कुछ है और मैं
उनसे भी पूछा करता था
मन कहां रहता है
मन को किसने देखा है
यही प्रश्न मेरा उनसे रहता था
पर वह मुस्कुरा कर कह जाती थी
मन सिर्फ महसूस करने की बात होती है
इस दुनिया में जब भी कहीं भी देखोगे
सिर्फ और सिर्फ जो भी लिखा गया है
पढ़ा गया है वह सब मां की बात होती है
उसे खोजने की कोशिश कभी मत करो
बस इस जिंदगी को जियो
और यहां से कुछ करके मरो
लेकिन आज भी मैं सुबह से ही
मन को खोज रहा हूं
और बैठा बैठा सिर्फ यही सोच रहा हूं
क्यों नहीं किसी काम को करने में
मेरा मन लग रहा है
यह मां कौन है जो मेरे ऊपर
इतना बड़ा नियंत्रण कर रहा है
लिख भी नहीं पा रहा हूं
खा भी नहीं पा रहा हूं
बस चुपचाप सन्नाटे में उदास
पथरायी सी आंखों के साथ रह रहा हूं
मां की फोटो को देखकर
सिर्फ उनकी कही गई बातों को
याद कर रहा हूं और झांक रहा हूं
उस मन को जहां पर मां को रोज कैद कर रहा हूं
कभी आपने क्या अपने
मन को देखने का प्रयास किया है
या मन मेरे अंदर कहां रहता है
क्या उसको भी किसी ने जिया है
आलोक चांटिया "रजनीश"
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