सुना है बचपन से यह
ब्रह्मांड भी किसी सीमा में
बंधा हुआ नहीं है
हर रात दिन यह
बढ़ता चला जा रहा है
दुनिया खोज रही है
इसके वह सारे तार
जिसके साथ यह
बढा चला जा रहा है
पता नहीं कौन सी
डोर में बंधा है
इसका आदि और अंत
किसके लिए यह बना है
और किसके साथ चला जा रहा है
यही सोचकर अक्सर
मैं एकांत में बैठ जाता हूं
लौट लौट कर फिर यही
अपने मन में पाता हूं कि
वह कोई नहीं जिसे मैं
ढूंढने की तलाश कर रहा हूं
वह मैं हूं जिसके लिए इस
बाहरी दुनिया में मैं मर रहा हूं
कभी झांक कर देखा ही नहीं
वह मेरे अंदर ही रहता है
बस मुझे समझने के लिए
बार-बार उदासी बेचैनी
उलझन की बात कहता है
मैं बैठ जाता हूं किसी
बालकनी मुंडेर पर आंखों को
उस अंतहीन दिशा की
ओर ले जाकर
जहां पर शायद मैं
अपने सच के साथ रहता हूं
आलोक चांटिया
No comments:
Post a Comment