एक मिट्टी का सहारा ही तो दिया था ,
देखो एक नन्हा सा पौधा कितना,
खिलखिला कर हंस रहा था ,
कल तक जो मरने की कगार पर था ,
आज उसका यौवन लहलहा रहा था,
बस इतना सा सहारा किसी को,
कहां तक लेकर चला जाता है,
जो पौधा किसी के कदमों से,
कुचल जाता वह अपने,
अंदर के उदगार की कहानी ,
दुनिया से कह रहा था ,
बता भी रहा था दुनिया वालों से ,
मत भागो किसी दबे कुचले ,
गरीब असहाय को देखकर,
उसे भी अपनी मिट्टी अपने ,
तन का थोड़ा सा सहारा दे दो ,
इस दुनिया में भगवान है ,
कि नहीं इस बात से दूर ,
उसे भी आदमी होने का ,
मर्म थोड़ा या सारा दे दो।
आलोक चांटिया
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