पत्थरों के पास भी एहसास जिंदा है
हर दर्द सहकर किसी की मूर्ति को भी
अपने भीतर सजा लेते हैं
दुनिया उसे देखकर खुश होती है
किसी खुशी को वह अपना मान लेते हैं
कोई नाता न होते हुए भी
पानी के साथ ऐसे घुल मिल जाते हैं
कभी-कभी यही कठोर पत्थर
चिकने से स्फटिक बन जाते हैं
और इतना अवसर दे देते हैं
उस समय के प्रवाह में बहते पानी को
कि अपने को हरी हरी
कई से लिपटा हुआ कर जाते हैं
पत्थर कभी भी किसी का साथ देने में
अपने को इस कदर तोड़ लेते हैं
कि रेगिस्तान की बालू बनकर
किसी घर की बनती हुई दीवार से
खुद को जोड़ लेते हैं
शायद आदमी अपने को झूठ ही
पत्थर दिल कह कर समझाता है
भला उसे पत्थर का धड़कता दिल
रेत में बदलते जीवन
पानी के साथ अठखेलिया का अर्थ
कहां समझ में आता है
आलोक चांटिया रजनीश
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