Wednesday, July 23, 2025

दर्द को समझना होगा- आलोक चांटिया "रजनीश"

 

दर्द हर किसी के अंदर बस ठीक
उसी तरह से बहता रहता है
जैसे धरा के भीतर धधकता
आग का गोला चलता रहता है
भला कौन कहां जान पाता है
कि पृथ्वी अंदर न जाने कब से
इतनी ज्यादा झुलस रही है
बस हरियाली देखकर ही हम
यह मान लेते हैं कि वह
जीवन के अर्थ में मगन रही है
पर सच तो यही है
कि पृथ्वी के अंदर भी आग है
कंकड़ है पत्थर है
हम सिर्फ सतह पर हरियाली देखकर ही पृथ्वी के सच को समझने की
कोशिश करने लगते हैं
क्या कभी पृथ्वी के साथ
कुछ पल देकर उसके अंदर
झांकने की भी कोशिश करते हैं
शायद हमारी आंखों को सिर्फ
अपने सुख का अर्थ ढूंढने की
एक ऐसी आदत सी हो गई है
कि अंदर की सारी संवेदना
ना जाने कहां सो गई है
इसीलिए तो पृथ्वी के संवेदनाओं से दूर
हम सिर्फ उसकी सतह पर फैली
हरियाली उस पर बहती
नदियों के तरंगों के साथ अपने
जीवन की खुशी के लिए जीना चाहते हैं भला कहां एक पल उस
पृथ्वी के लिए जिसने हमें
जीवन का अर्थ दिया उसके साथ
कुछ पल भी रहना चाहते हैं
इसीलिए कोई नहीं जान पाता है
कि दर्द किसके अंदर बह रहा है
और चुपचाप वह हमारे सामने
क्या कह रहा है
हम तो सिर्फ आदमी का चेहरा देखकर उसको थोड़ी देर जी लेते हैं
भला उसके अंदर झांकने के लिए
कोई भी समय कहां देते हैं
दर्द की यह कहानी हर कहीं
हर समय से चल रही है
कहीं धरती अपने अंदर जल रही है
कहीं मानवता कुचल रही है
दर्द का यह पथ कोई आज
पहला नहीं सुन रहा हूं
मैं हर कहीं आलोक के भीतर
पग पग पर अंधेरा पा रहा हूं
दर्द को समझने के लिए हर कोई
समय निकालने की अगर
आदत डाल नहीं पाएगा
तो एक दिन धरती की तरह
हर किसी के अंदर ज्वालामुखी
हर पल फटता पाएगा
आलोक चांटिया "रजनीश"

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