मेरे टूटे-फूटे घर में अब
कोई नहीं आना चाहता है
कुछ देर बैठकर ना सुस्ताना चाहता है
ना कुछ बताना चाहता है
उसे लगता है टूटा फूटा
घर लेकर जो बैठा है
उसके जीवन में जीने का आधार कैसा है
वह क्या जान पाएगा मेरा दर्द क्या है
मेरे जीवन की आवश्यकता है क्या है
इसीलिए शहर में फैले हुए कूड़े की तरह
हर कोई बचकर निकलना चाहता है
मेरे उस टूटी हुई दीवार के अंदर
भला कौन आना चाहता है
ऐसा नहीं है आते भी बहुत लोग हैं
हो सकता है वह भी अंदर से
दीवार की तरह टूटे-फूटे हुए हो
इसलिए वह दीवारों के बजाये
मुझे देखकर चले आते हो
अपनी टूटी-फूटी जिंदगी में शायद
कोई छोटा सा सुकून भी पाते हो
पर बहुत से ऐसे भी आकर गुजर जाते हैं
जो कभी किचन की दीवार तो कभी कमरे की
दीवार पर ही अपनी सारी बात समेट जाते हैं
देखते हैं उखड़े हुए प्लास्टर और सालों पहले
किए गए रंग रोगन को जो अब
अपनी जवानी को नहीं बुढ़ापे को दर्शाते हैं
शायद कमरे भी बूढ़े हो जाते हैं
यह मुझे नहीं मालूम कि कमरा भी
कभी शैशव अवस्था से जवानी और
बुढ़ापे की तरफ भी जाता है
पर जब सबकी बातें सुनता हूं
तो ऐसा सोचना मेरे भी दिमाग में आता है
कि क्या मेरा कमरा वास्तव में बूढ़ा हो गया है
या फिर मेरा कमरा गरीब हो गया है
क्योंकि कोई मुझे गरीब कहने से परहेज कर रहा है
शायद वह सीधे-सीधे मुझे अभी भी जिंदा कह रहा है इसीलिए वह मेरे टूटे-फूटे जीवन पर
प्रहार नहीं करना चाहता है
लेकिन मुझे सुनने के लिए मेरे टूटे-फूटे कमरे पर
अपना पूरा समय दे जाना चाहता है
एक पल भी यह बात नहीं करता
कि भूखे हो या कोई काम है
तुम्हारे जीवन का शेष
जिसमें मैं बन सकता हूं तुम्हारे लिए अशेष
वह तो बस जुटा रहता है किसी तरह
मन की भड़ास निकाल कर इस बात को बताने में
कि तुम कितने बर्बाद हो गए हो
क्योंकि कदाचित इस देश में
तुम हरिश्चंद्र का एहसास हो गए हो
तुम नहीं झुकना चाहते हो भगत सिंह
चंद्रशेखर राजगुरु की तरह
तुम लटक जाना चाहते हो फांसी के फंदे पर
अपने जीवन के मूल्यों के लिए
अपने कर्म पथ के सिद्धांतों के लिए
पर जिन्हें सिर्फ अपना जीवन
कीड़े मकोड़े की तरह की जीना है
उनको तो कोई ना कोई बहाना करके
मुझे मेरी बेबसी का एहसास कराना है
इसीलिए अक्सर या कहूं ज्यादातर
जो भी टूटे-फूटे अंतिम सांसों को लेते हुए
उस कमरे तक चला आता है
जहां पर उसे एहसास है कि
मेरे किसी भी काम के लिए
आलोक का उस बूढ़े कमरे से नाता है
वह जाकर अंतिम सांस लेती हुई
दीवारों के पीछे आकर बैठ जाता है
और बस पैसा क्या होता है
उसका मुझे एहसास करा जाता है
हर बैठने वालों को ना मैं चाय पिलाता हूं
ना नाश्ता कराता हूं ना ही जानना चाहता हूं
कि उनके स्वागत के लिए मैं क्या दे सकता हूं
मैं उनके दर्प को और अधिक मजबूत बना जाता हूं
जब उन्हें ऐसा लगता है कि
मैं उन्हें एक बिस्किट एक चाय नहीं पिला सकता हूं
तो उनके चेहरों की खुशी को
मैं अमीरी गरीबी के रेखांकन में पढ़ सकता हूं
ऐसा नहीं है कुछ को दुख भी होता है
वह चाहते हैं कि मैं अपने सिद्धांत
रास्ते तरीकों को बदल डालूं
और कुछ पल ही सही उस भौतिक दुनिया का
आदमी अपने को बना डालूं
आदमी होने की पहचान अगर भौतिक सुख ही है
तो फिर आदमी के जीवन में यह दुख ही क्यों है
मैं इस दर्शन के पीछे कभी भी किसी को
फूलती सांसों से चलने वाले कमरे पर
परेशान नहीं करता हूं
क्योंकि मैं जानता हूं
कि मेरे जीवन में इन्हीं दीवारों ने
हर पल मुझे एक आवरण से सजाया है
और इन्हीं के भीतर मैंने जीवन का वह अर्थ पाया है
जिसमें बाहर की दुनिया में
आज भी मेहमान बनकर खड़ा हूं
इसीलिए टूटी दीवारों उखड़ते प्लास्टर
और दम तोड़ते घर में मैं मुस्कुराता हुआ पड़ा हूं
मालूम सभी को है कि एक दिन उन्हें भी
दीवारों से बिस्तर से उठकर
दिशाओं का आवरण पहन कर
चिता पर लेटा दिया जाएगा
उनका सारा घमंड जलती हुई
चिता की अग्नि से भस्म होता जाएगा
पर आंख बंद करके आने वाले
उस सच को खुली आंखों से
महसूस कहां करना चाहते हैं
वह तो आज सिर्फ अपनी मुट्ठी में
बंद पैसों से ही आदमी को तौलना चाहते हैं
इसीलिए जानवर और आदमी की लड़ाई में
जानवर आज भी अपने मूल स्वरूप में
जानवर ही बनकर रह रहा है
पर आदमी तो यही नहीं जान पा रहा है
कि वह कब किस मोड़ पर कहां रह गया
अब वह अपने को खोजने का भी
कोई समय नहीं पा रहा है
आधुनिकता भौतिकता की दौड़ में भागता हुआ
वह सिर्फ अपनी मुट्ठी के चारों तरफ
पागल हुआ जा रहा है
किसी को गरीब किसी को बेबस कहकर
वह किसी तरह से रात में
अपनी नींद को बुला पा रहा है
क्योंकि उसका दाम भी उसको
सिर्फ मानव बनने के हिसाब में अब जिंदा रह गया है
वरना मानवता परोपकार दूसरों के लिए
जीने वाला मानव तो न जाने कहां रह गया है
आलोक चांटिया "रजनीश"
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