खुद की भूख के लिए
दूसरे की भूख मिटाना पड़ता है
एक रोटी के लिए
दूसरे को रोटी पहुंचाना पड़ता है
बस इसी को दुनिया समझ कर
हर कोई जिए चला जा रहा है
सुबह जो उठा था आदमी
शाम तक बस मरा जा रहा है
एक अदद रोटी उसके जीवन में
अगर आ जाएगी तो उसे लगता है
जिंदगी थोड़ी बेहतर हो जाएगी इ
सीलिए उसने रोटी को
रोटी के साथ जीना सीख लिया है
अपने समय को रोटी के लिए दे दिया है
अब वह भूखे सारा सारा दिन
उस आदमी के लिए काम करता है
जिसने दूसरों की भूख के लिए
रोटी की दुकान खोल लिया है
और एक भूखे को रोटी पहुंचाने के लिए
किसी दूसरे भूखे को
अपने यहां काम दे दिया है
बस रोटी का यही मायाजाल
हर तरफ फैला हुआ है
कोई रोटी मंगा कर अमीर बन रहा है
कोई रोटी बेचकर जमीर रच रहा है
इन सब के बीच खड़ा एक आदमी
एक जगह से दूसरी जगह
रोटी के लिए जी भी रहा है मर भी रहा है
क्या यह सच आज सभी की
नजर में नहीं चल रहा है
बस रोटी का ही खेल है
इसके लिए हर कोई मचल रहा है
आलोक चांटिया रजनीश
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