🌿 कविता
मुझे मालूम है, वह झूठ बोल रहा है
आलोक चांटिया "रजनीश"
मुझे मालूम है वह झूठ बोल रहा है,
दुनिया के रास्ते बस खोल रहा है।
उसे मालूम है कि कई झूठे मिलकर,
एक सच्चे को झूठा साबित कर देंगे —
और हम अपनी मुट्ठी में सब कुछ कर लेंगे।
फिर भी ज़मीन के भीतर से निकलने वाली आग के सहारे,
जब भी एक बीज अवसर पाता है,
वह अपने अंदर के सारे गुण
दुनिया को दिखा जाता है।
उसे चिंता नहीं है
कौन विभीषण बनकर रावण के विरोधी से जा मिला,
कौन जयचंद बनकर पृथ्वीराज को मौत दे गया,
कौन मीर जाफर बनकर गद्दारी की कहानी का गया।
क्योंकि उसे मालूम है —
उसके अंदर जो भी छिपा है,
उसे इस जगत को बनाने वाले ने
गलत नहीं बनाया।
इसलिए चुपचाप बस चलते रहना है,
किसी से कुछ कहना ही नहीं है।
कितना हल्का है सामने वालों का पन,
जब वे रोज कहते हैं:
“हम तुम्हें दो रोटी खिलाते हैं।”
हंसी भी आती है जब वे
भगवान से भी बड़े हो जाते हैं।
न जाने भगवान उनसे क्यों कहलवा रहा है,
क्या मेरे अंदर अभी भी कुछ रुका है
जिसे वह बाहर ला रहा है?
क्या वे चाणक्य के अपमान का अर्थ समझ पाएंगे?
क्या वे समाज को कभी चंद्रगुप्त जैसा महापुरुष दे पाएंगे?
क्योंकि अंतस की ज्वाला में झुलसते हुए
खुद को संभाल पाना
इतना आसान नहीं होता।
कभी-कभी उसकी तपन में
आदमी इतना खो जाता है
कि वह ध्रुव बनने का संकल्प भी नहीं ला पाता,
नचिकेता की तरह तर्क भी नहीं दे पाता,
बस भीष्म की तरह चुपचाप खड़ा रह जाता है।
जिसने अपनों के लिए खुद को नष्ट कर दिया,
बदले में बाणों की शय्या के अलावा क्या मिला?
गंगा की पवित्र धारा से जन्म लेने के बाद भी,
हर पल भीष्म प्रश्नों के घेरे में रहे,
पर कर्म के पथ पर हर मोड़ पर
वह अपने पराक्रम से मिले।
क्योंकि विचारों का क्या है?
कोई भी किसी के लिए कुछ भी कह सकता है।
कृष्ण को शिशुपाल गाली दे सकता है,
दुशासन द्रौपदी का चीर हरण कर सकता है —
पर क्या इससे जीवन का प्रवाह रुक सकता है?
भला कोई शब्दों से किसको हरा सकता है?
सच है — शब्द तीर से भी गहरे घाव कर जाते हैं।
जीते जी न जाने कितने रिश्ते मर जाते हैं।
फिर भी जो जानते हैं,
जो मानते हैं कि वे कहां खड़े हैं,
जो दुनिया को देने का प्रयास कर रहे हैं —
वे शरीर से जरूर मरते हैं,
पर आत्मा से अमर होते हैं।
इसीलिए अंधेरों को समेट कर,
आलोक को अपने अर्थ में समझना होगा।
चाहे सूर्य हो, चंद्रमा हो, तारे हों —
हमें अपने पथ पर हर पल
चमकना ही होगा।
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