"एक कदम भोर की ओर"
मर जाने की बात करके
तुम क्या जताना चाहते हो?
इस नश्वर दुनिया में आकर
इन शब्दों से क्या दिखाना चाहते हो?
तुम्हें क्यों लगता है
कि इस दुनिया में
किसी को तुम्हारी ज़रूरत नहीं है?
तुम रहो या ना रहो —
ये कोई शोहरत नहीं है।
असल में,
तुम्हें लगता है कि अब कोई
तुम्हें समझ नहीं पा रहा,
कोई एक पल का भी वक़्त
तुम्हारे लिए नहीं निकाल पा रहा।
इसीलिए तुम उस राह पर
चले जाना चाहते हो —
जहां एक दिन
हर किसी को
चाहे-अनचाहे पहुँचना होता है।
कोई चिता पर जलता है,
कोई ज़मीन में गड़ता है।
मान लिया,
दुनिया में कोई साथ नहीं दे रहा —
पर क्या तुम्हारा अंतस,
तुम्हारा मन
तुम्हारा साथ दे रहा है?
जब तुम अपने ही मन से हारने लगे हो,
तो इस दुनिया में
कैसे खुद को विजेता कह पा रहे हो?
यह दुनिया किसी के लिए नहीं रुकती।
शेर भी खुद के लिए जीता है,
हाथी भी अपने लिए।
कौआ उड़कर पानी पीता है,
गिलहरी दौड़ती है, गौरैया उड़ती है —
हर कोई जीवन के एक दाने के लिए जीता है।
तो तुम क्यों सोच बैठे थे
कि कोई तुम्हारा हाथ पकड़कर
पूरे जीवन तुम्हें राह दिखाएगा?
और तुम्हारे सन्नाटे से भरे दरवाज़े पर
हर रोज़ कोई दस्तक देगा?
प्रकृति ऐसी कहानी नहीं लिखती।
और संस्कृति?
वो भी केवल सहारे का नाम नहीं —
साँसों से ज़्यादा कोई साथ नहीं होता।
आसमान में उड़ते पंछियों की तरह,
समुद्र में तैरते जीवों की तरह —
बस चलो, कर्मवीर बनकर चलो।
विश्वविजेता हो इस पृथ्वी के,
महामानव बनो —
कम से कम एक बार तो जीकर देखो।
जब अंत तय ही है,
तो क्यों न जीवन में
एक बार साँसों को
सचमुच का अर्थ दे दो?
एक बार —
बस एक बार
अपने भीतर "मानव" को पहचान कर जी लो।
अपनी मुट्ठी में
आत्महत्या के अंधेरे को
जोर से दबाओ —
और एक कदम…
बस एक कदम,
भोर की ओर चल पड़ो।
— आलोक चांटिया “रजनीश”

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