Tuesday, July 8, 2025

रोटी के जख्म -आलोक चांटिया "रजनीश"

 

रोटी के जख्म इतने गहरे होते हैं
उनके एहसास के इतनी पहरे होते हैं
कि हर किसी की नसीब में नहीं आती है
एक रोटी अक्सर दरवाजे के बाहर रह जाती है
अंदर आ ही नहीं पाती किसी का निवाला बनकर
रोटी कूड़े में पड़ी रह जाती है
कोई भूखा रह जाता है दीवारों के पीछे
किसी की आते सिकुड़ जाती हैं भूख के पीछे
पर हर कहीं रोटी न जाने कितनी बची रह जाती हैं
रोटी दौड़ती नहीं खुद लोग रह जाते हैं पीछे
इसीलिए कई बार हंसते हुए लोगों को देखा है
रोटी के पीछे भागते हुए देखा है
दौड़ते दौड़ते छाले पड़ जाते हैं
इतने गहरे जख्म हो जाते हैं
कि जब रोटी मुट्ठी में आती है
तो पसीने के कुछ दाग उसमें रह जाते हैं
खून से लथपथ होता शरीर कुछ और
जीने की आरजू ले चलता है
जब उसे कभी किसी से दो रोटी का साथ मिलता है
इसीलिए संबंधों की बाजार में वही
एक दूसरे के करीब रह जाते हैं
जो रोटी के साथ जीते हैं और मर जाते हैं
देता है साथ भी उनका कोई मन बेमन से
जो रोटी को उन तक पहुंचाते हैं
वरना लाख जानता है हर कोई
सच क्या है झूठ क्या है
पर रोटी को देखकर पता नहीं क्यों चुप रह जाते हैं
मर जाता है कोई बिना सच को निगले हुए
झूठ चलता रहता है बिना कुछ उगले हुए
पेट भी भरा भरा उन्हीं का रहता है
जिनके साथ में रोटी का साज रहता है
इसीलिए रोटी के जख्म इतनी गहरे हो जाते हैं
कि कई बार इसी रोटी के खातिर
अपने ही बहुत दूर हो जाते हैं
आलोक चांटिया "रजनीश"

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