ज्वालामुखी
दर्द की असीम वेदनाओं को
तुम "ज्वालामुखी" कह
धरती से मुंह मोड़ कर
किधर चले जा रहे हो?
क्या यूँ ही,
बेवजह उसे आज
अपने सामने फटता हुआ पा रहे हो?
उसने कब चाहा था
कि तुम चलो
दहकते लावे पर?
कभी नज़र तो डालो —
अपने पाँवों के नीचे
कितनी कोमल, हरी घास
बिछाई थी उसने।
पर तुम कब समझ पाए
उसका समर्पण, उसका त्याग,
वो मौन भावना
जो बस यही चाहती थी —
तुम्हें हँसता हुआ देखना।
क्या तुम्हारे भीतर
उसके लिए कोई भावना थी कभी?
क्या अब समझ पा रहे हो
उसकी अंतहीन उपेक्षा की थकान?
अब वह ज्वालामुखी बन
फट रही है —
क्या इस रूप को भी
समझ पा रहे हो?
किसी को बार-बार
परीक्षा में डालना,
कहाँ की समझदारी है?
धरती का भी दिल धड़कता है —
शायद अब
तुम्हें यह अहसास हो रहा है।
उस बहते लावे में झुलस न जाओ —
इसी डर से
तुम खुद को बचाते फिर रहे हो।
काश,
कभी उसे भी
अपने जैसा समझ लेते —
आज क्यों
सिर्फ उसके विनाश को देखकर
चौंक रहे हो?
मुस्कुराहट देखकर
किसी को अंतहीन सुखी समझ लेना —
तुम्हारी सबसे बड़ी भूल है।
उस हँसी के पीछे
शायद कोई चुभता हुआ शूल हो —
क्या यह कभी सोचा?
क्या तुम्हारा ही दुख
सब कुछ था, आलोक?
उसके जीवन का अंधेरा
क्यों नहीं देख पाए?
अब जब जीवन मिला है,
तो बेचैन हो उठे हो —
क्या इसी को
मानव होने का अर्थ कहते हो?
— आलोक चांटिया "रजनीश"
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