"तरल हीरा"
—आलोक चांटिया "रजनीश"
दर्द आंखों से क्यों बहता है,
दुनिया से ये क्या कहता है?
सब समझते हैं बस पानी है,
पर ये तो कोई कहानी है।
ये बहता है कुछ कहने को,
चुपचाप बहुत कुछ सहने को।
यूँ ही नहीं गिरता बाहर ये,
भीतर कुछ है जो करता क्षोभ।
मत समझो इसको पानी मात्र,
जो निकल गया यूँ बस यूँ ही।
ये दर्द का है तरल हीरा,
जिसमें छुपा है जीवन जी।
कभी कोई इसे पढ़ लेता है,
कभी कोई न समझ पाता है।
कोई कहता ढोंग-दिखावा,
पर ये दिल से निकल आता है।
आंसू इतनी आसानी से
नहीं छोड़ते शरीर को।
जब भीतर अपमान का जहर हो,
तब फूट पड़ते हैं नीर को।
आंखों से गिरता पानी जब,
‘आंसू’ बन जाता है नाम।
हर जीवन में आता क्षण ये,
कभी दर्द, कभी खुशियों का काम।
खुशी में भी आंसू बहते हैं,
फिर क्यों इनका अर्थ हमेशा दर्द है?
जब भी आते, जब भी गिरते,
दर्द का प्रतिबिंब बन बिखरते।

No comments:
Post a Comment