Monday, July 28, 2025

आदमी न जाने कहां खो गया है- आलोक चांटिया "रजनीश"

 आदमी न जाने कहां खो गया है

बंद कमरों में वह चुपचाप हो गया है

समझ नहीं पाता है कहां खोज कर

वह लाये आदमी होने की परिभाषा को

वह जिधर भी देता है

बेबसी उदासी कुछ मुट्ठी में

समेट लेने की चाहत

कोई संघर्षों से तो कोई

अपनों से ही हुआ है आहत

आदमी समझ कर कोई किसी से

बोला भी क्या हाल है अगर

तो एक शून्य को निहार थी आंखें

और एक प्रश्न होता है मगर

कौन हो तुम मेरा तुमसे मतलब क्या है

तुम मुझे चाहते क्या हो

आज कौन सा काम तुम्हारा मुझसे पड़ गया है 

जो तुम मेरे पास आ गए हो

क्यों बेवजह बैठकर मेरा

कीमती समय तुम खा गए हो

मुझे अभी ढूंढनी है अपने लिए दो रोटी

मैं कोई जानवर नहीं हूं जो

घर के बाहर रोज आराम से

मिल जाए मुझे दो रोटी

बेवक्त मेरे घर ऐसे मत आया करो

जहां मन करे वहां जाया करो

हताश खड़ा हुआ इन सारी बातों को

सुनकर देखता रहता है

समझ नहीं पाता कि सामने वाला

यह क्या कहता रहता है

वह तो सिर्फ आदमी की खोज में

यहां तक आया था

थोड़ी देर बैठेगा और मुस्कुराहट 

आपस की कुछ जिंदगी की

 बातें करके चला जाएगा

पर यहां तो आदमी को

उसने कही नहीं पाया था

अंत में उसे कहना पड़ता है

कि लगता है तुम्हारा समय बहुत कीमती है

 तुम बहुत व्यस्त हो

मैं गलत समय पर आ गया हूं

माफ करना किसी दिन मैं फिर आ जाऊंगा 

अगर तुम्हें समझ में आएगा

तो उस दिन ही मानव को पा जाऊंगा

और चुपचाप वह उस दरवाजे से

निकल जाता है जिसके भीतर घुस कर

वह जिसे आदमी समझ कर आया था

वहां पर एक शून्यता पाता है

समझ नहीं पा रहा है

कि आदमी आज कहां खो गया है

बंद कमरों में कितने आंसुओं के साथ

वह आलोक रो गया है

सुबह से शाम शाम से रात

रात से फिर सुबह सिर्फ दवा के ढेर के साथ

 अपने को जिंदा रखने के एहसास में

दो पैरों पर चलने वाला भाग चला जा रहा है 

अब उसे इससे भी नहीं मतलब

कि कौन मर जा रहा है

किसकी शादी हुई किसकी नहीं हुई

किसके घर खाना था

किसके घर खाना नहीं था

वह तो सिर्फ अपने को

ढूंढने में चला जा रहा है

उसे अब यह भी याद नहीं

कि इस पृथ्वी पर पशु जगत के बीच

उसकी परिभाषा मानव के रूप में दी गई थी 

इस मानव के अवतार के रूप में

हर धर्म में न जाने कितने आए थे

और उन्होंने जीवन की वह दर्शन

हम सबको पढ़ाए थे

जियो जीने दो के गीत

हमको सुनाये थे

पर अब तो लगता है कि वह सारे अवतार

और गीत कहीं अंधेरे में खो गए हैं

मानव अपने दबाव में ही

किसी अंधकार में खो गए हैं

अब खोज कर निकालना मानव को भी

इस दुनिया में एक काम हो गया है

आदमी किसे कहा जाए

यह भी एक प्रश्न हो गया है

आलोक चांटिया "रजनीश"


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