Monday, July 14, 2025

एक बहुत ही अजीब सा -समय आ जाता है- आलोक चांटिया "रजनीश"

 

एक बहुत ही अजीब सा
-समय आ जाता है
सच कहूं तो मन और तन दोनों ही
अपने को असमंजस में पाता है
समझ नहीं पाता है कि अब क्या करूं
जिसकी वजह से मैं दुनिया को
अपने दिमाग में चलने वाले
विचारों से परिचय कराया है
और जिस दुनिया ने भी उन
विचारों को पढ़कर मुझको
थोड़ा बहुत समझा है और समझाया है
उन्हीं विचारों को उकेरने वाला
मेरे जाने के बाद भी मुझे अमर करने वाला
या सच कहूं कलम का सिपाही बनकर
जिस कलम के सहारे मैं अंधेरों में
आलोक के रूप में जाना जाता हूं
उस कलम की स्याही खत्म होने पर
एक हाहाकार अपने भीतर पाता हूं
जिस कलम ने मेरी उंगलियों को
सहारा देकर उसके अंदर छिपे हुए
शब्दों को पन्नों पर सजाया है
मुझ जैसे मनुष्य ने उसके हिस्से में क्या दे पाया है
आज जब उस पेन की आत्मा
स्याही के रूप में सूख गई है
या यूं कहूं मेरे स्वार्थ में खत्म हो गई है
तन की तरह खोखली कलम की कहानी
जहां पर आकर खत्म हो गई है
वहां पर अब मेरी उंगलियां
उस कलम को पकड़ना नहीं चाहती हैं
दूसरी कलम की खोज में
अपने को रखना चाहती हैं
समझ में नहीं आता है स्वार्थ का
यह कौन सा स्वर में सुन पा रहा हूं
आज अपने ही हाथों से उस कलम को
जिसने कल तक मेरा साथ दिया
मेरे साथ उंगलियों के संग चल चल कर
मुझे एक नाम हर पल दिया
उस कलम को सिर्फ स्याही
खत्म हो जाने के कारण मैं
एक कोने में डाल आया हूं
जीवन का यह कौन सा मंत्र है
और मनुष्य को मैं क्या पाया हूं
सिर्फ और सिर्फ अपने मतलब के लिए
सुबह से शाम तक उपयोग
उपयोग का मंत्र पढ़कर ही
आदमी आगे चला जा रहा है
यहां तक कि एक कलम को भी
मतलब के बाद भूला जा रहा है
कलम खामोशी के साथ इतना
लंबा साथ देने के बाद भी आदमी से
कुछ नहीं कहना चाहती है
शायद मानव की बनाई दुनिया संस्कृति में
वह अपना मोल प्रयोग होने के बाद जानती है
आलोक चांटिया "रजनीश"

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