न जाने क्यों हर किसी का,
मन एक मोड़ पर आकर,
जरूर यह चाहता है,
कि कोई आकर कहे ,
मैं तुम्हें जानता हूं ,पहचानता हूं,
तुम्हारी हर बात हर,
काम को मानता हूं ,
भले ही वह एक शब्द,
कहकर चला जाए ,
भले ही कोई एक पेन किताब,
फूल देकर चला जाए,
बस बार-बार यही ,
कहकर चला जाए,
मैं तुम्हें जानता हूं, पहचानता हूं ,
इसी खोज में हर कोई,
भटक रहा है यहां वहां,
जहां-तहां न जाने कहां-कहां,
चिपक छिपक रहा है,
कब सुबह होती है ,
कब शाम होती है ,
वह जान ही नहीं पाता ,
बस खोजने में लगा है,
कि भला वह इस दुनिया में ,
क्यों क्या करने आता,
जो किया है उसे कोई,
जान नहीं पा रहा है,
इस बात की एक वेदना ,
वह हर पल अपने भीतर पा रहा है,
हर कोई बताना चाहता है,
दुनिया क्या है, समाज क्या है,
समाज के उस पार क्या है,
दुनिया के उस पार क्या है,
इसी की बिसात बिछाकर,
हर कोई बैठ रहा है,
कोई अपने को आचार्य,
कोई अपने को ज्ञानी,
कोई अपने को कथा वाचक,
कोई अपने को राजनीतिकार,
कोई अपने को शिक्षक कह रहा है,
पर चाहिता यही है,
कोई आकर कहे ,
मैं तुम्हें जानता हूं, पहचानता हूं,
और तुम्हारी हर बात को मानता हूं,
बस इतनी सी बात पर,
एक जीवन सार्थक हो जाने की,
बात हो रही है,
और इसी खोज में अंतहीन,
श्रृंखला में हर एक सांस खो रही है,
जबकि यह सच भी,
हर कोई जानता है,
मानता है, पहचानता है ,
कि जाने के बाद भला कौन,
किसको याद रखता है,
किसी की किसी बात को,
बार-बार हर मोड़ हर चौराहे,
हर रंग मंच पर रखता है,
कभी-कभी अगर याद आ जाए,
किसी को तो भले ही कहा जाता है,
वरना कौन किसके लिए,
यहां पूरा-पूरा जी पाता है,
फिर भी न जाने क्यों,
यही बात बार-बार कहता है,
कोई होता जो आकर कहे,
मैं तुम्हें जानता हूं ,पहचानता हूं ,
और तुम्हारी हर बात को मानता हूं,
जीवन की यही ललक,
जीवन का अर्थ रोज,
सबको बताती है,
पूरब की लाली, चांद की चांदनी,
बार-बार आलोक आती है,
और जीवन की एक कहानी,
पूरी पूरी खत्म हो जाती हैl
आलोक चांटिया
Friday, December 20, 2024
हर जीवन यही चाहता है -आलोक चांटिया
Wednesday, December 18, 2024
मन के दरवाजे क्यों खोलते नहीं -आलोक चांटिया
मन के द्वार क्यों खोलते नहीं,
आहट सुनकर भी कुछ,
क्यों बोलते नहीं ,
बढ़ाते अकुलाहट ही क्यों जा रहे हो,
चुपचाप विलोप हो,
थोड़ा सा डोलते क्यों नहीं,
आशा से हारा थका पथिक,
तुम्हारे द्वारा तक चला आया है,
जब दुनिया के हर दरवाजे पर,
एक सन्नाटा एक बेरुखी,
एक उपेक्षा अपने,
हर दर्द के लिए पाया है,
तब यह सोचकर वह निकल पड़ा है,
कोई समझे ना समझे तुझे तो,
हर बात हर मर्म अपने,
आप ही समझ आया है,
फिर भी कर्म की परिभाषा में क्यों,
यहां नीरवता सी छा रही है,
क्यों नहीं मेरे अंतस में,
तेरे होने की प्रतिध्वनि आ रही है,
ऐसा कैसे हो सकता है,
दुनिया की देखा देखी,
तू भी करने लगा है ,
मेरे हर दर्द पर तू मौन रहने लगा है,
उठो जागो देखो कैसा अत्याचार,
अनाचार भ्रष्टाचार फैल रहा है,
जिस दुनिया को तूने बनाया,
उस दुनिया पर हर तरफ,
रावण और कंस रह रहा है,
तू कहीं योग निद्रा में तो नहीं गया है,
इसीलिए आज चल कर आया हूं,
हे प्रभु तुझको यह बताने आया हूं,
आत्मा परमात्मा के मिलन में,
मैं तेरा हिस्सा यहां रह रहा हूं,
मुझे जब दर्द हो रहा है,
तब तुझसे कह रहा हूं,
क्यों नहीं तू महसूस कर पा रहा है,
जब तेरा ही हिस्सा तुझे,
यह सब बता रहा है,
ऐसे में ध्वनि सुनकर भी,
तुम कुछ क्यों बोलते नहीं,
जीवन के स्वर को बचाने के लिए,
तुम अपने नेत्र क्यों खोलते नहीं,
तुम अपने नेत्र क्यों खोलते नहीं l
आलोक चांटिया
अंधेरा कितना जरूरी है -आलोक चांटिया
कितनी अजीब सी बात है,
कि हर किसी के जीवन में,
जरूर एक रात है,
फिर भी हर कोई ,
उजाले के लिए ही बात करता है,
उसी के लिए जीता है,
उसी के लिए मरता है,
जबकि बिना अंधेरे के ,
उजाले की बात बेमानी हो जाती है,
भला कब आसमान में बिना,
अंधेरे के तारों की बारात आती है,
फिर भी चलता रहता है कि,
जीवन में मेरे दुख क्यों आया ,
मेरा जीवन का पथ,
कोई भी संघर्ष क्यों पाया,
प्रसन्नता क्यों नहीं थिरकी,
हमारे जीवन के आंगन में,
क्यों नहीं हमारा पग,
एक हिमालय सी ऊंचाई पाया,
यही दर्द जब तक चलता रहता है,
हर कोई तब तक,
एक दुख में रहता है,
अगर वह जान लेता मान लेता,
और यह ठान भी लेता कि,
वह कुछ भी कर सकता है तो,
एक बात वह जरूरी याद रखता,
जब वह पूर्व की तरफ ,
पूरे जोश में तकता,
कि आज जिस रोशनी को,
वह आलोक देख रहा है,
वह अंधेरे के रास्ते से ,
गुजर कर यहां तक आई है,
तभी तो जिंदगी में घर के आंगन में,
फूलों की बगिया में फसलों के खेतों में,
एक प्यारी सी खुशबू आई है,
जो यह सारी बातें समझ जाते हैं,
वह अंधेरे के भी थोड़ा सा,
जब तब करीब आते हैं l
आलोक चांटिया
Monday, December 16, 2024
थक जाता है मन - आलोक चांटिया
थक जाता है मन ,
जब तन थक जाता है ,
थक जाता है तन जब मुट्ठी में,
अंधेरा रह जाता है ,
कई बार थक जाता है तन,
जब लाख चाहने के बाद भी,
बाजार को कोई व्यक्ति अपने,
घर तक नहीं ला पाता है,
बिना बाजार को लाये अब,
गांव शहर कहीं पर भी ,
रसोई कहां चाहती है ,
खाने की थाली कहां महकती है,
डर जाता है मन थके हुए,
पांव के साथ घर लौटना ,
क्योंकि कोई नहीं मान पाता,
कोई यूं ही नहीं अपनी,
जिंदगी से हार जाता,
पक्षी ने पूरी जान लगाकर,
आसमान के रास्ते तय किए थे,
ढूंढा था कहीं कोई टुकडा मिल जाता,
और वह भी अपने,
जीवन को संवार पाता,
पर कहां कोई मानता है कि,
किया होगा उसने अपना पूरा जतन,
क्योंकि अक्सर लोग सुनाते हैं उलहना,
तुम्हें ही क्यों नहीं मिला,
ढूंढने से तो मिल जाते हैं भगवान,
तुम हो पूरे निखट्टू और वेदम,
वह तो भला हो भाग्य का,
जिसके सहारे आज भी,
वह जी रहा है
मुट्ठी खाली रहे,जीवन खाली रहे,
पर वह जानता है कल ,
जिंदगी के रास्ते जरूर बदलेंगे,
अपने हाथ की फटी हुई,
लकीरों को बड़े जतन से,
सी रहा है सच है कि थक गया है,
उसका मन नहीं थका है,
मिट्टी के शरीर से उत्साह के,
बीज का वह प्रयास ,
जो कभी तो फूटेगा ,
ऐसा रोज लगाता है वह कयासl
आलोक चांटिया
Tuesday, December 10, 2024
मानवाधिकार -आलोक चांटिया
आज दुनिया को जोर से
चिल्ला कर बता दे,
अधिकार की बात छोड़ो,
कर्तव्य क्या होते हैं,
उसे ही जता दें ,
नींद मिट्टी को ही बिस्तर,
समझ कर सुला देती है,
मां की गोद सुरक्षा के सारे,
इंतजाम कर देती है,
लिपटकर उससे भूख भी,
न जाने कहां खो जाती है,
क्योंकि मां जानती है ,
इस दुनिया में जब भी ,
चिल्लाने की बारी आती है,
तो वह अपने चारों ओर,
सन्नाटा पाती है ,
फिर भी लोग कहते मिल जाते हैं,
मानवाधिकार मानवाधिकार क्या है,
इसके बारे में बताते हैं ,
कोई भी नहीं रुकता ,
जीवन को थाम कर यहां,
मानवाधिकार का हनन,
उसका नाटक हर चौराहे पर,
रोज आलोक दिखाते हैं,
इसीलिए अब सच जीने की,
बारी यहां आ गई है ,
कीचड़ में मां के साथ बच्चों को,
एक अच्छी सी नींद आ गई हैl
आलोक चांटिया
Monday, December 9, 2024
मां को हम कहां समझ पाते हैं आलोक चांटिया
सांसों को बटोरना समेटना,
आसान नहीं होता है,
पल भर में गलती हुई नहीं कि,
कोई भी इसे खोता है ,
लगता जरूर है हर किसी को,
जीवन पाना है आसान,
यह सारी धरती मेरी है,
और ऊपर है मेरा आसमान,
पर सांसों को बुनने का काम,
एक लंबे रास्ते से होकर आता है,
इस दुनिया में लाने के लिए,
जीवन पाने वाला कहां,
यह जान पाता है कि,
कितना जुगत किया गया है ,
उसको बचाने के लिए,
दुनिया को उसे दिखाने के लिए,
पहले कहीं जगह ढूंढी जाती है,
कोई खतरा तो नहीं ,
इसकी बात की जाती है,
फिर छोटे-छोटे अंडों से,
निकलती है जीवन की आहट,
और हर दिन चलता है,
एक अंतहीन प्रयास और ,
बढ़ाने की छटपटाहट,
यूं ही नहीं मिल जाता जीवन में,
उड़ने का किसी को भी कोई अर्थ,
जरा सी गलती हुई नहीं कि,
जीवन चल देता है लेकर अनर्थ,
इसीलिए एक ही रिश्ते को,
दर्द हमेशा बना रहता है,
भूख प्यास नींद से दूर उसका,
जीवन बस हर पल यही कहता है,
कैसे बचा लूं अपने बच्चों को,
दुनिया में दुनिया दिखाने के लिए,
मां ही दिन-रात एक कर देती है,
बच्चों में जीवन का अर्थ पाने के लिए,
और सारे रिश्ते झूठ भी पड़ जाते हैं,
किसी को ना दर्द की चिंता,
ना भूख की चिंता ना,
जिंदा रखने की चिंता पर,
मां ही होती है रिश्तो के अर्थ में,
जिसे हम हर मोड़ पर,
अपने लिए खड़ा पाते हैं,
आलोक चांटिया
Saturday, December 7, 2024
Friday, December 6, 2024
सुखद कहानी जरूर आती है -आलोक चांटिया
हर किसी को आशा होती है,
जब पूर्व से आई रोशनी,
उसके आंगन में होती है ,
सोचता वह भी है प्रकाश फैलेगा,
अंधेरा दूर हो जाएगा ,
शायद हर किसी की जिंदगी,
कुछ ऐसी ही होती है,
कौन नहीं चाहता सीढी पर,
चढ़कर वहां तक चले जाना,
जिसके बाद मंजिल की,
कोई बात नहीं होती है ,
पर सरल कहां है सीढ़ी पर,
चढ़ने के सारे रास्ते,
अमीरी गरीबी जाति धर्म की,
हर तरफ एक बिसात बिछी होती है,
फिर भी जो जुटे रहते हैं,
इसे पाने की जुगत में ,
उनकी भला हार कहां होती है,
नन्हे नन्हे पांव से करते हैं,
चलने की वह हर कोशिश,
जो उन्हें परिपक्व बना जाती है,
सच मानो तुम्हारे हर प्रयास की,
जो तुम रात दिन वहां तक,
जाने के लिए करते हो ,
उसकी एक सुखद कहानी,
आलोक जीवन में जरूर आती है
उसकी एक सुखद कहानी ,
आलोक जीवन में जरूर आती हैl
आलोक चांटिया
Wednesday, December 4, 2024
एक बीज जानता भी था- आलोक चांटिया
एक बीज जानता भी था,
मानता भी था कि समय,
किस तरह से उसे ,
बना भी सकता है,
बिगाड़ भी सकता है ,
आराम के जीवन की खोज में,
अगर वह रह जाएगा,
तो यह समय उसे बीज को,
किसी बोर में सडा जाएगा,
इसीलिए कर्म की परिभाषा में,
उसने चलना सीख लिया है,
एक बीज ने मिट्टी की ,
अतल गहराई में, अंधेरे में,
जीना सीख लिया है,
वह जानता है कि जब समय,
उसका साथ छोड़ कर,
आगे निकल जाएगा ,
तब भी वह बीज तो मिट्टी में,
गुमनाम मर जाएगा ,
लेकिन समय को बताने के लिए,
जमीन से एक सुंदर सा,
पौधा निकल आएगा,
जो पहचान होगा उस,
बीते हुए समय की जो,
दुनिया को यह बतला जाएगा,
कि समय रुकता नहीं है,
किसी के लिए पर अगर,
समय के साथ जीना सीख लिया है,
तो देखो एक बीज ने,
अपने अंदर से एक पौधे को,
देना आलोक सीख लिया है,
तुम भी देख सकते हो,
तुम्हारे अंदर समय के साथ,
क्या निकल सकता है ,
तुम रहो ना रहो पर इस दुनिया को,
तुम्हारे साथ बीते समय से ,
देखो क्या क्या मिल सकता है,
तुम्हारे साथ बीते समय से,
देखो क्या-क्या मिल सकता हैl
आलोक चांटिया
Monday, December 2, 2024
मेरी हत्या को पाप कब समझोगे -आलोक चांटिया
उन्होंने अपराध सिर्फ यही किया था,
कि आदमी पर भरोसा किया था,
सोचा था जब इस जमीन पर,
सबसे खूबसूरत वही बनाए गए हैं,
तो ऐसे आदमी किस्मत से,
उनके जीवन में पाए गए हैं,
इठलाये लहराये न जाने कितने,
झोके दिए गर्मी में ,
छांव को पाने के लिए,
वह पौधे न जाने कब पेड़ बन गए,
और कितनी ही बार उस ,
आदमी के लिए जिए ,
पर जिस पर वह इतना,
भरोसा कर रहे थे,
जिसको ठंडक पहुंचाने के लिए,
वर्षों से मर रहे थे ,उस
आदमी को क्या मतलब था कि,
पौधों में भी जान होती है,
उनकी भी इस यात्रा की
कुछ आन और मान होती है,
वह भी चाहते हैं मिट्टी से जुड़कर,
अपना जीवन पूरा जीना,
पर उन्हें कहां पता था कि,
उन्हें आदमी के साथ रहने का ,
जहर भी था पीना ,
ठंडक ने दस्तक के आते ही,
आदमी को धूप पाने की,
ललक ऐसी जगने लगी,
जिस पौधे को उसने पाला पोसा था,
उसकी छाया ही ,
उसको जहर लगने लगी,
एक पल भी ना सोचा ,
जिसे दुलराया था खिलाया था,
इतना बड़ा बनाया था ,
उसको कितना दर्द हो जाएगा,
जब खटाई खटाक कुल्हाड़ी की,
आवाजों से एक पौधा जीवन के सुर,
रखकर भी मौत को पाएगा,
हुआ भी यही पेड़ ने जिस,
आदमी पर भरोसा करके उसके,
चारों तरफ निकलने की,
गलती किया था आज आदमी ने,
सिर्फ एक कतरा धूप के लिए,
उसकी जान ले लिया था,
आज आदमी ने सिर्फ ,
एक कतरा धूप के लिए ,
उसकी जान ले लिया थाl
आलोक चांटिया
नोट -सिर्फ अपनी सुख की तलाश में पौधों की हत्या मत कीजिए
Saturday, November 30, 2024
आजकल जीवन में, एक अजीब सी दौड़ चल रही हैl आलोक चांटिया
आजकल जीवन में एक,
अजीब सी दौड़ चल रही है,
हर कोई देखना चाहता है ,
किसकी मुट्ठी किस से मिल रही है,
बंद कर दिया है सोचना,
हर किसी ने अपने अंदर झांकना,
बस किसी और के जीवन से,
किसी और की कहानी मिल रही है,
संतोषम परम सुखम रहा होगा कभी,
एक सुंदर सा कथन जीने के लिए,
अब तो सारा आकाश तुम्हारा है,
अवसाद हताशा निराशा में ,
कमरों में सांस मिल रही है,
जानते सभी हैं एक दिन,
चले जाना है यहां से,
चाहे जितना बटोर लो फिर भी,
ना जाएगा कुछ साथ में,
न जाने कितना कुछ पाने की,
कोशिश हर पल चल रही है,
राम को राम बनना था ,
लक्ष्मण को लक्ष्मण बनना था,
ना कोई किसी से कम था,
ना कोई किसी से ज्यादा था
किसी को भी नहीं रह गया है,
विश्वास विभीषण की तरह ,
सीता के बिना ही,
सोने की लंका जल रही है,
कितनी शक्ति बची है मुट्ठी में ,
अब कोई हनुमान से नहीं से पूछता,
मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ ,
बस इसी में हर कोई जूझता,
उजाले से दूर अंधेरे में,
फिर से संस्कृति चल रही है,
आजकल जीवन में,
एक अजीब सी दौड़ चल रही हैl
आलोक चांटिया
Wednesday, November 27, 2024
मुझे अपने सूरज का इंतजार है- अखिल भारतीय अधिकार संगठन
हर दिन मैं सुबह से ही,
सूरज के निकलने का,
इंतजार करता हूं,
उठता हूं बनता हूं,
संवरता हूं बार-बार हर बार ,
पूर्व की तरफ देखता भी हूं,
और एक विश्वास करता हूं,
सूरज आज सिर्फ मेरे लिए निकलेगा,
यही बस एक इंतजार करता हूं,
लोग कहते हैं सूरज निकल आया है,
सूरज चढ़ गया है ,
सूरज डूबने वाला है,
पर मुझे कहीं भी,
सूरज दिखाई नहीं देता ,
मैं तो हर रास्ते पर,
रोशनी का इंतजार करता हूं ,
मैं हरसुबह सूरज का इंतजार करता हूं ,
चाहता हूं अंधेरा मिट जाये,
हर तरफ से पर अंधेरा भी,
कहां समझ पाता है ,
वह तो सूरज से लड़ने चला आता है,
मजबूर कर देता है सूरज को भी,
डूबने के लिए पश्चिम में,
और वह एक दो बार नहीं,
हर बार करता है,
सूरज को छुपाने का प्रयास करता है,
पर पता नहीं क्यों मुझे,
सदैव पूर्व से आशा रहती है,
और अपने सूरज का इंतजार रहता है,
जो कभी नहीं डूबेगा ,
मेरे लिए हर तरफ बस,
अंतस की रोशनी का सूरज,
बाहर के सूरज से लड़ जाएगा,
और एक दिन मेरा अंदर बाहर,
सब यह समझ जाएगा,
मैं समझ जाऊंगा अंधेरा ,
बाहर नहीं मेरे अंदर रहता है,
यह बकवास है कि हर कोई,
पूरब की सूरज को ही सच कहता है,
इसीलिए मैं हर दिन पूर्व की तरफ,
देख कर इंतजार करता हूं,
अपने सूरज के आने का इंतजार करता हूं ,
अपने सूरज के पाने का इंतजार करता हूं l
आलोक चांटिया
Friday, November 22, 2024
यह बहुत बड़ी बात होती है, - अखिल भारतीय अधिकार संगठन
यह बहुत बड़ी बात होती है,
कि कोई किसी के दिल में,
जगह पाता है,
वरना दुनिया में तो एक-एक,
रोटी का हिसाब लिया जाता है,
कौन किसी के साथ,यू ही करता है,
बिना कुछ सोचे समझे हर बात में,
हर बात का अर्थ खुद ही ,
समझ लिया जाता है ,
छोड़ कर चले जाते हैं लोग,
वह घर भी जिसमें खंडहर होने के,
निशान निकल पड़े हैं,
याद के सहारे भला इस जीवन में,
कहां एक कदम भी चला जाता है,
दो रोटी के लिए ही हर कोई,
घर से निकलता है ,
किसी से जुड़ता है ,
किसी का काम करता है ,
वरना दुनिया के हर शख्स से,
कहां कोई जुड़ा जाता है ,
यह बात बहुत बड़ी हो जाती है,
दिल का दर्द लिए कोई जाता है,
इसे किसी भी तरह कम ना समझो,
जब किसी के दिल में कोई,
छोटी सी भी जगह पाता है,
वरना कहां कोई किसी से,
यूं ही जुड़ता है ,
यहां तो एक-एक रोटी का,
हिसाब लिया जाता है,
यहां तो एक-एक रोटी का,
हिसाब लिया जाता है
आलोक चांटिया
Monday, November 18, 2024
जिधर मैं जा रहा हूं,- अखिल भारतीय अधिकार संगठन
जिधर मैं जा रहा हूं,
उधर आप भी जा रहे हैं,
जहां मैं खड़ा हूं,
वहां आप भी खड़े हैं ,
एक दिन में जिस जगह पर ,
पहुंच जाऊंगा वहां एक दिन ,
आप भी पहुंच जाएंगे ,
बस फर्क इतना है ,
ना आप कह पा रहे हैं ,
ना मैं कह पा रहा हूं ,
आपको भी छलावा पसंद है,
मुझको भी छलावा पसंद है,
सच को जीने का हुनर ,
ना आपको आता है ,
ना मुझे आलोक आता है ,
इसीलिए एक दिन जब,
वह क्षण हमारे जीवन में आता है ,
आपके भी जीवन में आता है,
तो हमारी मुट्ठी में सिर्फ अंधेरा ,
खालीपन और रेत का कुछ,
एहसास रह जाता है
ना आप उसे मौत कह पाते हैं ,
ना मैं उसे मौत कह पाता हूं ,
क्योंकि मां के पेट से सिर्फ,
मैं भी जीवन जीने आता हूं ,
आप भी जीवन जीने आते हैं,
भला हम सब कब कहां ,
पूरा सच जी पाते हैं ,
मौत को जी पाते हैंl
आलोक चांटिया
Sunday, November 17, 2024
चलो भगवान को ढूंढने निकलते हैं -अखिल भारतीय अधिकार संगठन
चलो भगवान को ढूंढने निकलते हैं,
यह कहकर ना जाने कितने,
हर रोज अपने घरों से चलते हैं,
पर पहुंच कहां पाए हैं वहां तक,
जहां भगवान रहता है ,
हर कोई हर नुक्कड़ पर इनसे,
बस कहता रहता है,
मैं तुम्हें बताऊंगा वह रास्ता,
मैं तुम्हें दिखाऊंगा वह रास्ता,
जिससे होकर तुम जा सकते हो,
जिसे तुम ढूंढने निकले हो,
उसे तुम यही पा सकते हो,
कई बार फूल के पराग की,
लालच की तरह न जाने कितने,
भंवरे तितली की तरह उलझ कर,
रास्ते में ही रह जाते हैं ,
रोटी की तलाश में भगवान की,
कहानी कहने वाले दूध घी,
मक्खन से नहलाये जाते हैं ,
थक हार कर बंद मुट्ठी में,
अंधेरा लपेटकर वह लौट आता है ,
जो अक्सर भगवान की तलाश में,
अपने घर से बाहर जाता है,
मृग की तरह ढूंढता रहता कस्तूरी,
वह पूरी दुनिया में यहां वहां ,
जहां- तहां मत पूछो कहां-कहां,
भला कब अपने भीतर और,
अपने चारों तरफ झांक पाता है,
माता-पिता को हाड़ मांस का,
समझ कर वह दुनिया में ,
भगवान को पाकर भी ,
भगवान की तलाश में ,
हर बार निकल जाता है,
कई बार आदमी अपने घरों से,
भगवान को ढूंढने निकलता है,
पर सोच कर देखिए कितनों को,
वह कब कहीं बाहर मिलता है,
यह सच है कि कई बाबा संत,
मौलवी मसीहा अमीर हो जाते हैं,
जिनके चक्कर में में हम ,
अंधेरों में खोकर भगवान को ,
ढूंढते रह जाते हैं ,
चलो एक बार फिर भगवान को,
ढूंढने निकलते हैं ,
एक बार चार दिवारी के भीतर,
अपने मां-बाप से फिर से मिलते हैंl
आलोक चांटिया
Saturday, November 16, 2024
सुना आज मैंने भी है कुछ बच्चे मर गए हैं- अखिल भारतीय अधिकार संगठन
सुना आज मैंने है कि,
कुछ बच्चे मर गए हैं ,
अपनी मौत नहीं मरे ,
जिंदा जल गए हैं ,
दौड़ती भागती जिंदगी में,
एक रोटी की तलाश में ,
हम कब अपने पैरों में थम गए हैं,
सुना आज मैंने भी है ,
कुछ बच्चे मर गए हैं ,
मान लिया मरना जीना तो,
ऊपर वाले के हाथ में है,
हम कर भी क्या सकते हैं,
उन्हें जिला तो नहीं देंगे ,
हम कुछ ऐसे ही मोटी ,
चमड़ी के यहां हो गए हैं,
सुना आज मैंने है ,
कुछ बच्चे मर गए हैं ,
कहते तो सभी हैं हम ,
जानवरों से काफी ऊपर उठ गए हैं,
सड़क पर मरे कुत्ते को,
दूसरा कुत्ता सूंघ कर देखता है,
कौवा कांव-कांव करके चिल्लाता है,
पर हम अपनी रफ्तार में,
फिर से निकल गए हैं,
सुना आज मैंने भी है ,
कुछ बच्चे मर गए हैं,
रोज काट काट कर ,
जानवरों को खाने के हम ,
इतने आदी हो गए हैं ,
कि महसूस ही नहीं होता कुछ,
अपने इस दुनिया में खो गए हैं ,
सुना आज मैंने भी है ,
कुछ बच्चे मर गए हैं,
मेरे बच्चे घर में सुरक्षित हैं,
दुनिया जाए भाड़ में ,
हमें क्या पड़ी है ,
क्या सारा ठेका हम ही ने ले रखा है,
इस दर्शन में जी गए हैं,
सुना आज मैंने भी है ,
कुछ बच्चे मर गए हैं ,
सभी के घर में ठहाका लगा ,
खाना बना उत्सव मनाया गया,
शहनाई बजी साहित्य के,
कार्यक्रम लिट़्फेस्ट हो गए हैं,
सुना आज मैंने है ,
कुछ बच्चे मर गए ,
धरती से पानी सूख गया है,
आंखों में आंसू तरस गया है,
हम सन्नाटे आंखों से सब कुछ,
देखने अभ्यस्त हो गए है ,
सुना आज मैंने है ,
कुछ बच्चे मर गए हैंl
आलोक चांटिया
Monday, January 8, 2024
लड़की होने का एहसास
पेट में लात ,
खा कर मैंने ,
माँ होने का ,
एहसास पाया है ,
बचपन की गलियां ,
छोड़ कर मेरा ,
पत्नी नाम आया है,
कलाई में राखी ,
पर राख हुई फिर भी ,
मेरी ही काया है ,
कैसे मैं समझू ,
लड़की को दुर्गा ,
लक्ष्मी , सरस्वती ,
या फिर काली ,
लूटते हो लज्जा ,
करते हो व्यभिचार
उत्पीड़न और प्रहार
कहकर उसकी लाली ,
बचपन से कोमल ,
कहकर मुझ मानव को ,
बना कर भला क्या पाए ,
कही हत्या , कही
बलात्कार कहीं एसिड
सिर्फ क्यों
मेरे हिस्से लाये ,
सच बताओ और
सोच कर देखो क्या ,
एक लड़की गर्भ से ,
कभी बाहर आये ...
लड़की को आज के दौर में किस लिए पैदा होना चाहिए और हम उसके लिए दिल से क्या करना चाहते है , ......मुझे नहीं अपने साथ जुडी किसी भी लड़की के लिए बस सोच भर लीजिये मेरा शब्द सार्थक हो जायेगा ....
आलोक चांटिया
जमीन के साथ जुड़कर ही किसी का भी जीवन निखर पाता है
जमीन के साथ जुड़कर ही
किसी का भी
जीवन निखर पाता है
एक बीज भी अपने
अंदर की छुपी हुई प्रतिभाओं को
दुनिया को बता पाता है
दुनिया भी पा जाती है
पत्ती फूल फल तना और छाया
जब भी जमीन से
जुड़कर रह जाता है
सोच कर देखो तुम अपनी
जमीन से कितना जुड़े हो
क्या उस जमीन के लिए तुम
कभी कहीं किसी भी पल खड़े हो
या तुम्हारे अंदर से
निकल कर आया है जमीन से
जुड़ कर तुम्हारे व्यक्तित्व का
वह सारा सार
जिससे आज तक था अनजान
यह सारा आलोक संसार
गर जमी से जुड़कर
नहीं रहना सीखोगे तो भला अपनी
पहचान से इस दुनिया को क्या दोगे
जो तुम्हारे अंदर है वह
बाहर आने का रास्ता है
इस जमीन से जुड़ना
देखो कुछ भी कर लो पर जमीन से
मुंह फेर कर कभी ना कहीं मुड़ना
आलोक चांटिया