Thursday, December 26, 2024

एकांत -आलोक चांटिया


 एकांत


मिट्टी के तन में कई बार, 

मैंने कई पौधे उगते देखे हैं ,

फलते फूलते फूल,

 खिलते देखे हैं ,

मिट्टी के तन में कई बार मैंने ,

लोगों को पानी डालते देखा है,

 ताकि उस पर उगते हुए पौधे,

  जीवन का मतलब समझ जाए ,

देखा है मैंने मिट्टी को थक कर,

 हार कर पौधों का साथ छोड़ते हुए,

 जो चाह कर भी अब ,

खेल नहीं सकते हैं प्रकृति में ,

हरियाली से मिल नहीं सकते हैं ,

सूख जाते हैं टूट जाते हैं ,

खत्म हो जाते हैं क्योंकि वह,

 अपने जीवन में मिट्टी का अर्थ,

 कभी समझ नहीं पाते हैं,

 मिट्टी में बहती स्त्री का मर्म,

 निगल नहीं पाते हैं ,

कभी भी मिट्टी में औरत को,

 ढूंढ पाते ही नहीं है ,

एक बार भी उसका एकांत ,

तोड़ने के लिए आते ही नहीं है,

 जब इस एक होने का ,

अंत हो जाता है ,

स्त्री की देह से निकलकर एक,

 पुरुष सूखकर मर जाता है ,

मिट्टी के कारण ही इस प्रकृति में,

 सब कुछ चल रहा है ,

जिस पल यह मान जाते हैं,

 उसी क्षण स्त्री के एकांत को ,

खुशियों के सागर में लेकर चले जाते हैं ।

 आलोक चांटिया


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