पेट में लात ,
खा कर मैंने ,
माँ होने का ,
एहसास पाया है ,
बचपन की गलियां ,
छोड़ कर मेरा ,
पत्नी नाम आया है,
कलाई में राखी ,
पर राख हुई फिर भी ,
मेरी ही काया है ,
कैसे मैं समझू ,
लड़की को दुर्गा ,
लक्ष्मी , सरस्वती ,
या फिर काली ,
लूटते हो लज्जा ,
करते हो व्यभिचार
उत्पीड़न और प्रहार
कहकर उसकी लाली ,
बचपन से कोमल ,
कहकर मुझ मानव को ,
बना कर भला क्या पाए ,
कही हत्या , कही
बलात्कार कहीं एसिड
सिर्फ क्यों
मेरे हिस्से लाये ,
सच बताओ और
सोच कर देखो क्या ,
एक लड़की गर्भ से ,
कभी बाहर आये ...
लड़की को आज के दौर में किस लिए पैदा होना चाहिए और हम उसके लिए दिल से क्या करना चाहते है , ......मुझे नहीं अपने साथ जुडी किसी भी लड़की के लिए बस सोच भर लीजिये मेरा शब्द सार्थक हो जायेगा ....
आलोक चांटिया
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