Wednesday, December 18, 2024

मन के दरवाजे क्यों खोलते नहीं -आलोक चांटिया


 मन के द्वार क्यों खोलते नहीं,

 आहट सुनकर भी कुछ,

 क्यों बोलते नहीं ,

बढ़ाते अकुलाहट ही क्यों जा रहे हो,

 चुपचाप विलोप हो,

थोड़ा सा डोलते क्यों नहीं,

 आशा से हारा थका पथिक,

 तुम्हारे द्वारा तक चला आया है,

 जब दुनिया के हर दरवाजे पर,

 एक सन्नाटा एक बेरुखी,

 एक उपेक्षा अपने,

 हर दर्द के लिए पाया है,

तब यह सोचकर वह निकल पड़ा है, 

कोई समझे ना समझे तुझे तो,

 हर बात हर मर्म अपने,

 आप ही समझ आया है,

 फिर भी कर्म  की परिभाषा में क्यों,

 यहां नीरवता  सी छा रही है,

 क्यों नहीं मेरे अंतस में,

 तेरे होने की प्रतिध्वनि आ रही है, 

ऐसा कैसे हो सकता है,

 दुनिया की देखा देखी,

 तू भी करने लगा है ,

मेरे हर दर्द पर तू मौन रहने लगा है, 

उठो जागो देखो कैसा अत्याचार,

 अनाचार भ्रष्टाचार फैल रहा है,

 जिस दुनिया को तूने बनाया,

 उस दुनिया पर हर तरफ,

 रावण और कंस रह रहा है,

तू कहीं योग निद्रा में तो नहीं गया है, 

इसीलिए आज चल कर आया हूं,

 हे प्रभु तुझको यह बताने आया हूं, 

आत्मा परमात्मा के मिलन में,

 मैं तेरा हिस्सा यहां रह रहा हूं,

 मुझे जब दर्द हो रहा है,

 तब तुझसे कह रहा हूं,

 क्यों नहीं तू महसूस कर पा रहा है, 

जब तेरा ही हिस्सा तुझे,

 यह सब बता रहा है,

 ऐसे में ध्वनि सुनकर भी,

 तुम कुछ क्यों बोलते नहीं,

 जीवन के स्वर को बचाने के लिए,

 तुम अपने नेत्र क्यों खोलते नहीं,

 तुम अपने नेत्र क्यों खोलते नहीं l

आलोक चांटिया

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